ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
प्र धारा॒ मध्वो॑ अग्रि॒यो म॒हीर॒पो वि गा॑हते । ह॒विर्ह॒विष्षु॒ वन्द्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । धारा॑ । मध्वः॑ । अ॒ग्रि॒यः । म॒हीः । अ॒पः । वि । गा॒ह॒ते॒ । ह॒विः । ह॒विष्षु॑ । वन्द्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र धारा मध्वो अग्रियो महीरपो वि गाहते । हविर्हविष्षु वन्द्य: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । धारा । मध्वः । अग्रियः । महीः । अपः । वि । गाहते । हविः । हविष्षु । वन्द्यः ॥ ९.७.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
विषय - राजा का सत् शिक्षण और आवश्यक स्वाध्याय।
भावार्थ -
(हविःषु) आह्वान करने योग्य, आदरपूर्वक आमन्त्रित जनों में (वन्द्यः) स्तुति योग्य (हविः) सर्वोत्तम आमन्त्रित होकर राजा ही (अग्रियः) अग्रासन के योग्य होकर (मध्वः धाराः प्र गाहते) जल की धाराओं को ज्ञान की धारा, वाणियों के समान खूब उत्तम रीति से विगाहन करे, उनसे स्नान करे और वह (महीः अपः) पूज्य जलों के तुल्य आदरणीय प्रजाजनों को भी (वि गाहते) विशेष रूप से प्राप्त करे उनमें भी विचरे, उनके सुखदुःखादि में सम्मिलित हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - असितः काश्यपो देवलो वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५–९ गायत्री। २ निचृद् गायत्री। ४ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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