ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
ऋषिः - रेनुर्वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्रिर॑स्मै स॒प्त धे॒नवो॑ दुदुह्रे स॒त्यामा॒शिरं॑ पू॒र्व्ये व्यो॑मनि । च॒त्वार्य॒न्या भुव॑नानि नि॒र्णिजे॒ चारू॑णि चक्रे॒ यदृ॒तैरव॑र्धत ॥
स्वर सहित पद पाठत्रिः । अ॒स्मै॒ । स॒प्त । धे॒नवः॑ । दु॒दु॒ह्रे॒ । स॒त्याम् । आ॒ऽशिर॑म् । पू॒र्व्ये । विऽओ॑मनि । च॒त्वारि॑ । अ॒न्या । भुव॑नानि । निः॒ऽनिजे॑ । चारू॑णि । च॒क्रे॒ । यत् । ऋ॒तैः । अव॑र्धत ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्रिरस्मै सप्त धेनवो दुदुह्रे सत्यामाशिरं पूर्व्ये व्योमनि । चत्वार्यन्या भुवनानि निर्णिजे चारूणि चक्रे यदृतैरवर्धत ॥
स्वर रहित पद पाठत्रिः । अस्मै । सप्त । धेनवः । दुदुह्रे । सत्याम् । आऽशिरम् । पूर्व्ये । विऽओमनि । चत्वारि । अन्या । भुवनानि । निःऽनिजे । चारूणि । चक्रे । यत् । ऋतैः । अवर्धत ॥ ९.७०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
विषय - पवमान सोम। विद्यार्थी के लिये वेदविद्या का दोहन पक्षान्तर में परमेश्वर का वेदों का प्रकाशित करना।
भावार्थ -
(पूर्व्ये व्योमनि) पूर्व विद्यमान एवं विद्या बल में पूर्ण विशेष रूप से सब के रक्षा करने वाले एवं सब के लिये प्राप्त होने योग्य गुरु आश्रम में (अस्मै) इस विद्याभिलाषी ब्रह्मचारी शिष्य के लिये (सप्त धेनवः) सातों छन्दोमयी वाणियां (सत्याम् आशिरं दुदुह्रे) सत्य आश्रय योग्य ज्ञान-रस का दोहन करती हैं। (यत्) जो (ऋतैः) सत्य ज्ञान वा यज्ञों से (अवर्धत) बढ़ता बढ़ाता है, वह (अन्या चत्वारि) अन्य चार (चारूणि भुवनानि) उत्तम जलों के समान पवित्र शान्तिदायक वेदमय साधनों को भी (निर्णिजे चक्रे) स्वशोधन के लिये अनुष्ठान करे। (२) परमेश्वर के पक्ष में—(अस्मै) इसकी सातों छन्दोमयी वाणियां सत्य ज्ञान रस को प्रदान करती हैं। वही जलोंवत् चारों वेदों को बनाता है, जिनको यज्ञों से समृद्ध करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - रेणुर्वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ त्रिष्टुप्। २, ६, ९, १० निचृज्जगती। ४, ५, ७ जगती। ८ विराड् जगती। दशर्चं सूक्तम्॥
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