ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
अर॑ममाणो॒ अत्ये॑ति॒ गा अ॒भि सूर्य॑स्य प्रि॒यं दु॑हि॒तुस्ति॒रो रव॑म् । अन्व॑स्मै॒ जोष॑मभरद्विनंगृ॒सः सं द्व॒यीभि॒: स्वसृ॑भिः क्षेति जा॒मिभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठअर॑ममाणः । अति॑ । ए॒ति॒ । गाः । अ॒भि । सूर्य॑स्य । प्रि॒यम् । दु॒हि॒तुः । ति॒रः । रव॑म् । अनु॑ । अ॒स्मै॒ । जोष॑म् । अ॒भ॒र॒त् । वि॒न॒म्ऽगृ॒सः । सम् । द्व॒यीभिः॑ । स्वसृ॑ऽभिः । क्षे॒ति॒ । जा॒मिऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अरममाणो अत्येति गा अभि सूर्यस्य प्रियं दुहितुस्तिरो रवम् । अन्वस्मै जोषमभरद्विनंगृसः सं द्वयीभि: स्वसृभिः क्षेति जामिभि: ॥
स्वर रहित पद पाठअरममाणः । अति । एति । गाः । अभि । सूर्यस्य । प्रियम् । दुहितुः । तिरः । रवम् । अनु । अस्मै । जोषम् । अभरत् । विनम्ऽगृसः । सम् । द्वयीभिः । स्वसृऽभिः । क्षेति । जामिऽभिः ॥ ९.७२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
विषय - उसका लोकमत के अनुसार शासन से शान्ति प्राप्ति।
भावार्थ -
वह उत्तम शास्ता, (अरममाणः) कहीं भी सुख न पाता हुआ, (गाः अति एति) आत्मा के तुल्य समस्त भूमियों को अति क्रमण कर जाता है। उनका (तिरः) तिरस्कार करके (सूर्यस्य दुहितुः) सूर्य को तेज से पूर्ण करने वाला, उसकी पुत्री के समान उषा के तुल्य कान्तियुक्त स्त्रीवत् (सूर्यस्य प्रियं दुहितुः) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के प्रिय अभिलषित मनोरथ को पूर्ण करने वाली प्रजा के (रवम् अभि एति) लोकमत के प्रति ध्यान देता है। और वह (विनंगृसः) बाहु के समान विविध काम्य पदार्थों को ग्रहण करने वाला क्षत्रिय वीर (अस्मै जोषम् अनु अभरत्) इस राष्ट्र के हित को लक्ष्य करके उसका भरण पोषण करता है और (द्वयीभिः स्वसृभिः जामिभिः) दोनों प्रकार की, स्वयं उस तक पहुंचने वाला बहुतों के तुल्य विद्वान् बलवान्, निर्बल धनी और निर्धन प्रजाओं सहित वह (सं क्षेति) एक ही राष्ट्र में निवास करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - हरिमन्त ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:-१—३, ६, ७ निचृज्जगती। ४, ८ जगती। ५ विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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