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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प्र राजा॒ वाचं॑ ज॒नय॑न्नसिष्यदद॒पो वसा॑नो अ॒भि गा इ॑यक्षति । गृ॒भ्णाति॑ रि॒प्रमवि॑रस्य॒ तान्वा॑ शु॒द्धो दे॒वाना॒मुप॑ याति निष्कृ॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । राजा॑ । वाच॑म् । ज॒नय॑न् । अ॒सि॒स्य॒द॒त् । अ॒पः । वसा॑नः । अ॒भि । गाः । इ॒य॒क्ष॒ति॒ । गृ॒भ्णाति॑ । रि॒प्रम् । अविः॑ । अ॒स्य॒ । तान्वा॑ । शु॒द्धः । दे॒वाना॑म् । उप॑ । या॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र राजा वाचं जनयन्नसिष्यददपो वसानो अभि गा इयक्षति । गृभ्णाति रिप्रमविरस्य तान्वा शुद्धो देवानामुप याति निष्कृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । राजा । वाचम् । जनयन् । असिस्यदत् । अपः । वसानः । अभि । गाः । इयक्षति । गृभ्णाति । रिप्रम् । अविः । अस्य । तान्वा । शुद्धः । देवानाम् । उप । याति । निःऽकृतम् ॥ ९.७८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 78; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (राजा) तेजस्वी राजा (वाचं प्र जनयन्) वाणी को सबसे उत्कृष्ट रूप से प्रकट करता हुआ, (असिष्यदत्) निरन्तर प्रवाह के समान गम्भीरता से बहे, वाणी के प्रवाह से भावों का प्रकाश करे। वह (अपः वसानः) अभिषेक योग्य जलों के तुल्य आप्त जनों को अपने पर, वस्त्रादिवत् धारण करता हुआ, (गाः) नाना प्रजा की स्तुति वाणियों को (अभि इयक्षति) प्राप्त करता है। वह स्वयं (अविः) जगत् वा राष्ट्र का रक्षक होकर (तान्वा) अपने पटवत् विस्तृत सामर्थ्य से (अस्य) इस जगत् वा शिष्य सेवक जन के (रिप्रम्) पाप को (गृभ्णाति) थाम देता है, पाप को नहीं बढ़ने देता। प्रत्युत स्वयं (शुद्धः) सब परीक्षाओं में निर्दोष सिद्ध होकर (देवानां) विद्वानों, वीर पुरुषों के (निष्कृतम् उप याति) स्थान को प्राप्त होता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - कविर्ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ५ निचृज्जगती। २–४ जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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