ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
प॒वित्रं॑ ते॒ वित॑तं ब्रह्मणस्पते प्र॒भुर्गात्रा॑णि॒ पर्ये॑षि वि॒श्वत॑: । अत॑प्ततनू॒र्न तदा॒मो अ॑श्नुते शृ॒तास॒ इद्वह॑न्त॒स्तत्समा॑शत ॥
स्वर सहित पद पाठप॒वित्र॑म् । ते॒ । विऽत॑तम् । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । प्र॒ऽभुः । गात्रा॑णि । परि॑ । ए॒षि॒ । वि॒श्वतः॑ । अत॑प्तऽतनूः । न । तत् । आ॒मः । अ॒श्नु॒ते॒ । शृ॒तासः॑ । इत् । वह॑न्तः । तत् । सम् । आ॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवित्रं ते विततं ब्रह्मणस्पते प्रभुर्गात्राणि पर्येषि विश्वत: । अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते शृतास इद्वहन्तस्तत्समाशत ॥
स्वर रहित पद पाठपवित्रम् । ते । विऽततम् । ब्रह्मणः । पते । प्रऽभुः । गात्राणि । परि । एषि । विश्वतः । अतप्तऽतनूः । न । तत् । आमः । अश्नुते । शृतासः । इत् । वहन्तः । तत् । सम् । आशत ॥ ९.८३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 83; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
विषय - तपस्या द्वारा प्रभु के पद की प्राप्ति।
भावार्थ -
हे (ब्रह्मणः पते) वेदज्ञान के स्वामिन् ! हे महान् ब्रह्माण्ड, अपार बल और ज्ञान के पालक प्रभो ! (ते) तेरा (पवित्रम्) परम पावन ज्ञान और तेज (विततं) विस्तृत रूप से व्यापक है। तू (प्रभुः) सब का स्वामी, शक्तिमान् होकर (विश्वतः) सब ओर (गात्राणि परि एषि) संसार के समस्त अवयवों को व्याप रहा है (अतप्त-तनूः) जिसने अपने को ब्रह्मचर्य, सत्य भाषण, शम, दम, योगाभ्यास, जितेन्द्रिय, सत्संगादि तपश्चर्या से तप्त नहीं किया वह (आमः) कच्चा, अपरिपक्व वीर्य और मति वाला पुरुष (तत्) उस परम पावन स्वरूप ब्रह्म को (न अश्नुते) नहीं प्राप्त होता और (शृतासः) जिन्होंने तप से अपने का तप्त कर लिया है जो मन से शुद्ध हैं, वह (इत् वहन्तः) तप का आचरण करते हुए, (तत् सम् आशत) उस को प्राप्त होते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - पवित्र ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ४ निचृज्जगती। २, ५ विराड् जगती॥ ३ जगती॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
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