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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 135
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣣हे꣡व꣢ शृण्व एषां꣣ क꣢शा꣣ ह꣡स्ते꣢षु꣣ य꣡द्वदा꣢꣯न् । नि꣡ यामं꣢꣯ चि꣣त्र꣡मृ꣢ञ्जते ॥१३५॥
स्वर सहित पद पाठइ꣣ह꣢ । इ꣣व । शृण्वे । एषाम् । क꣡शाः꣢꣯ । ह꣡स्ते꣢꣯षु । यत् । व꣡दा꣢꣯न् । नि । या꣡म꣢꣯न् । चि꣣त्र꣢म् । ऋ꣣ञ्जते ॥१३५॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामं चित्रमृञ्जते ॥१३५॥
स्वर रहित पद पाठ
इह । इव । शृण्वे । एषाम् । कशाः । हस्तेषु । यत् । वदान् । नि । यामन् । चित्रम् । ऋञ्जते ॥१३५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 135
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
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विषय - परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ -
भा० = ( एषां ) = इन मरुतों प्राणों के ( हस्तेषु १ ) = हाथों में ( कशा ) = कशा है । ( यद् वदान् ) = यह जो बात कहते हैं ( इह एव शृण्वे ) = उसको मैं यहां ही सुनता हूं। वह कशा ( चित्रं ) = अद्भुत प्रकार से ( नियामं ) = नियम, व्यवस्था को ( ऋंजते ) = साध रही है ।
'कशा' का वर्णन अथर्ववेद ( का० ९ । सु. १ ) में किया है। जैसे“य एति मधुकशा रराणा तत् प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ।"
पश्यन्त्यस्याश्चरितं पृथिव्यां पृथक् नरो बहुधा मीमांसमानाः ।
"अग्नेवातान् मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ।”
साधक प्रत्यक्षदर्शी ऋषि कहता है कि मैं उन मरुतों की कशा (हन्टर) नाद को सुनता हूं. वह विचित्र प्रकार से सबको व्यवस्था में बांधे हैं । अथर्व में इसको 'मरुतामुग्रा नप्तिः' प्राणियों को उग्र रूप होकर बांधने बाली बतलाया है। इसका स्पष्ट विवरण त्रिपुरदहन के अलंकार की व्याख्या में शिव के जगन्नाथ के महारथ पर मरुत् सारथि के हाथों में ओंकार का हन्टर बतलाया है । शि० पु० । योगी लोग उसी ओंकार के अनाहत नाद को सुनते हैं । उसी का यहां विवरण है ।
टिप्पणी -
१. हस्तो हन्तेः, प्राशुर्हनने इति । निरु० १, ३, २।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिः - कण्वो घौरः।
छन्दः - गायत्री।
स्वरः - षड्जः।
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