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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 135
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    21

    इ꣣हे꣡व꣢ शृण्व एषां꣣ क꣢शा꣣ ह꣡स्ते꣢षु꣣ य꣡द्वदा꣢꣯न् । नि꣡ यामं꣢꣯ चि꣣त्र꣡मृ꣢ञ्जते ॥१३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ꣣ह꣢ । इ꣣व । शृण्वे । एषाम् । क꣡शाः꣢꣯ । ह꣡स्ते꣢꣯षु । यत् । व꣡दा꣢꣯न् । नि । या꣡म꣢꣯न् । चि꣣त्र꣢म् । ऋ꣣ञ्जते ॥१३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इहेव शृण्व एषां कशा हस्तेषु यद्वदान् । नि यामं चित्रमृञ्जते ॥१३५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इह । इव । शृण्वे । एषाम् । कशाः । हस्तेषु । यत् । वदान् । नि । यामन् । चित्रम् । ऋञ्जते ॥१३५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 135
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 1
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब इन्द्र के सहायक मरुतों का वर्णन करते हैं। यहाँ यद्यपि इन्द्र के सहायक मरुतों की स्तुति है, तथापि सैनिकों की स्तुति से सेनापति की ही स्तुति मानी जाती है, इस न्याय से देवता इन्द्र माना गया है। ऋग्वेद में इस मन्त्र के देवता साक्षात् ‘मरुतः’ ही है। इन्द्र से शरीर का सम्राट् जीवात्मा और राष्ट्र का सम्राट् राष्ट्रपति गृहीत होता है। जीवात्मा रूप इन्द्र के सहायक मरुत् प्राण हैं और राष्ट्रपति रूप इन्द्र के सहायक मरुत् सैनिक हैं, यह समझना चाहिए ॥

    पदार्थ

    प्रथम—सैनिकों के पक्ष में। (एषाम्) इन सैनिकों के (हस्तेषु) हाथों में, युद्धकाल में (यत्) जो (कशाः) चाबुकें (वदान्) बोलती हैं, वह इनका शब्द (इह इव) मानो यहीं, युद्ध से भिन्न स्थल में भी (शृण्वे) मैं सुन रहा हूँ। यह सैनिकों का गण (यामन्) संग्राम में (चित्रम्) अद्भुत (निऋञ्जते) प्रसाधन करता है ॥ वेद में सैनिकों का वेशप्रसाधन इस रूप में वर्णित हुआ है—तुम्हारे कंधों पर ऋष्टियाँ हैं, पैरों में पादत्राण हैं, वक्षःस्थलों पर सोने के तमगे हैं, तुम रथ पर शोभायमान हो। तुम्हारी बाहुओं में अग्नि के समान चमकनेवाले विद्युदस्त्र हैं, सिरों पर सुनहरी पगड़ियाँ हैं। ऋ० ५।५४।११, तुम उत्कृष्ट हथियारों से युक्त हो, गतिमान् हो, उत्कृष्ट स्वर्णालङ्कार धारण किये हो। ऋ० ७।५६।११। द्वितीय—प्राणों के पक्ष में। (एषाम्) इन प्राणों के (हस्तेषु) पूरक-कुम्भक क्रियारूप हाथों में (यत्) जो (कशाः) कानों से न सुनायी देनेवाली सूक्ष्म वाणियों (वदान्) ध्वनित होती हैं, उस आवाज को (इह इव) मानो यहीं, प्राणाभ्यास से अतिरिक्त दशा में भी (शृण्वे) सुन रहा हूँ। यह प्राणगण (यामन्) अभ्यास मार्ग में (चित्रम्) अद्भुत रूप से (निऋञ्जते) प्राणायामाभ्यासी योगी को योगैश्वर्यों से अलंकृत कर देता है ॥१॥ इस मन्त्र में भूतकाल की वस्तु को वर्तमान काल में प्रत्यक्ष घटित के समान वर्णन करने के कारण भाविक अलङ्कार है। सैनिक तथा प्राण इन दो अर्थों को अभिहित करने से श्लेष भी है ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे राजा के सहायक सैनिक लोग राष्ट्र की रक्षा करते हैं, वैसे ही योगी के सहायक प्राण योगी के योग की रक्षा करते हैं। युद्धों में शत्रुओं के सम्मुख सैनिकों की चाबुकें आवाज करती हैं, उस दृश्य को जिन्होंने देखा होता है, उससे चमत्कृत होने के कारण युद्ध से भिन्न स्थलों में भी उन्हें ऐसा लगता है कि वे आवाजें सुनायी दे रही हैं। सैनिकों का वीरोचित वेश-विन्यास भी अद्भुत ही प्रतीत होता है। प्राण भी योगियों के सैनिक ही हैं, जो शरीर में उत्पन्न सब दोषों को बाहर निकाल देते हैं, इन्द्रियों को निर्मल करते हैं और योगैश्वर्य की प्राप्ति के प्रयास को सफल बनाते हैं ॥१॥

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    पदार्थ

    (एषां हस्तेषु कशाः) इन इन्द्र सखाजनों “इन्द्रस्य वै मरुतः” [कौ॰ ५.४.५] ऋत्विजों विद्वानों के “मरुतः ऋत्विजः” [निघं॰ ३.१८] सप्तप्राण, लोकों के सात प्राण स्थानों में—“सप्त हस्तास इति येषु सप्तसु लोकेषु चरन्ति प्राणा गुहाशयाः” [काठक॰ २५.२-३] “सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणाः” [मुण्ड॰ २.८] वाणियों—वेदवाणियों को “कशा वाङ् नाम” [निघं॰ १.११] (इह-इव शृण्वे) यहाँ अपने अन्दर जैसा ही मैं सुनता हूँ (यत्-वदान्) कि जैसे मैं बोलता हूँ (यामन् चित्रम्-नि-ऋञ्जते) कि जो इन्द्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा अध्यात्म मार्ग में या अध्यात्म कर्म में “यामे कर्मणि” [श॰ ६.३.२.३] अद्भुतरूप में अर्न्तदृष्टि से साथ प्रसिद्ध करता है, साक्षात् करता है “ऋञ्जति प्रसाधनकर्मा” [निरु॰ ६.२१]।

    भावार्थ

    विद्वान् जन अपने प्राणसंस्थानों में जिन वेदवाणियों को धारण कर यज्ञ आदि प्रसङ्ग में बोलते हैं मैं अध्यात्म यज्ञ का याजक उन ईश्वरीय वाणियों को अपने अन्तःकरण में सुनता हूँ वह परमात्मा अध्यात्म मार्ग या अध्यात्म कर्म में उन वेदवाणियों को सुन्दर रूप में सार्थ प्रसिद्ध कर देता है साक्षात् समझा देता है॥१॥

    विशेष

    छन्दः—गायत्री। स्वरः—षड्जः। ऋषिः—कण्वो घौरः (वक्ता का शिष्य मेधावी)॥ देवताः—इन्द्रसखायो मरुतः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा और उसके सखा अग्नि आदि ऋषिजन)॥<br>

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    विषय

    कहना- करना

    पदार्थ

    हम सब प्रभु से प्रार्थना करते हैं। कुछ की प्रार्थना सुनी जाती है, कुछ की नहीं। हमने गत मन्त्रों में तीन दीप्तियों के लिए प्रार्थना की थी। कुछ को ये प्राप्त हैं, कुछ को नहीं। यह क्यों? इस प्रश्न का उत्तर बड़े सुन्दर शब्दों में यहाँ इस इस प्रकार दिया गया हैं कि (इह एव) = यहाँ ही (एषाम्) = इनकी बात (शृण्वे) = सुनी जाती है (यत्) = जब (कशा) = वाणी (हस्तेषु)  हाथों में (वदान्) =  बोलती है, अर्थात जब ये जैसा कहते हैं वैसा करते हैं, वचन के अनुसार क्रिया होने पर प्रार्थना सुनी जाती है, अन्यथा नहीं। ('यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति') इन शब्दों में हमारी वाणी और कर्म का समन्वय होना चाहिए, तभी प्रभु हमारी प्रार्थना सुनेंगे और हम इसी जीवन में उन्नत होकर लक्ष्य स्थान पर पहुँच जाएँगे। एक टन उपदेश से एक औंस उदाहरण कहीं अधिक प्रभावशाली होता है। शास्त्रों में भी क्रियावान् को ही पण्डित माना गया है। (‘शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा:') = शास्त्रों को पढ़कर भी मूर्ख होते ही हैं। 'कहना कुछ, करना कुछ' यही मूर्खता है।

    , एवं, जिनकी वाणी हाथों में बोलती है अर्थात् जो क्रियाशील हैं, वे लोग ही (यामन्) = इस जीवन-यात्रा के मार्ग को (चित्रम्) = बड़े अद्भुत प्रकार से बड़ी सुन्दरता से (निऋञ्जते) = निश्चय से अलंकृत करते हैं। शास्त्रानुकूल आचरण से जीवन का सुन्दर बन जाना स्वाभाविक है। कण-कण करके-थोड़ा-थोड़ा करके - उसने इस जीवन को उत्कृष्ट बनाया है, अतः इसका नाम ‘कण्व’ हो गया है। यह कण्व घोरपुत्र अति घोर अर्थात् बहुत उत्कृष्ट जीवनवाला [घोर=noble] है।

    भावार्थ

    जो कहें, वह करें। हमारे आगम व प्रयोग में समानता हो । कथनी व करनी में समता ही उच्च जीवन का लक्षण हैं। जैसा बोलूँ, वैसा करूँ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = ( एषां ) = इन मरुतों प्राणों के ( हस्तेषु १  ) = हाथों में ( कशा ) = कशा है । ( यद् वदान् ) = यह जो बात कहते हैं ( इह एव शृण्वे ) = उसको मैं यहां ही सुनता हूं। वह कशा ( चित्रं ) = अद्भुत प्रकार से ( नियामं ) = नियम, व्यवस्था को ( ऋंजते ) = साध रही है । 
    'कशा' का वर्णन अथर्ववेद ( का० ९ । सु. १ ) में किया है। जैसे“य एति मधुकशा रराणा तत् प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ।"
    पश्यन्त्यस्याश्चरितं पृथिव्यां पृथक् नरो बहुधा मीमांसमानाः ।  
    "अग्नेवातान् मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ।”

     साधक प्रत्यक्षदर्शी ऋषि कहता है कि मैं उन मरुतों की कशा (हन्टर) नाद को सुनता हूं. वह विचित्र प्रकार से सबको व्यवस्था में बांधे हैं । अथर्व में इसको 'मरुतामुग्रा नप्तिः' प्राणियों को उग्र रूप होकर बांधने बाली बतलाया है। इसका स्पष्ट विवरण त्रिपुरदहन के अलंकार की व्याख्या में शिव के जगन्नाथ के महारथ पर मरुत् सारथि के हाथों में ओंकार का हन्टर बतलाया है । शि० पु० ।  योगी लोग उसी ओंकार के अनाहत नाद  को सुनते हैं । उसी का यहां विवरण है ।

    टिप्पणी

    १. हस्तो हन्तेः, प्राशुर्हनने इति । निरु० १, ३, २। 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - कण्वो घौरः।

    छन्दः - गायत्री।

    स्वरः - षड्जः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रस्य सहाया मरुतो वर्ण्यन्ते। अस्मिन् मन्त्रे यद्यपि इन्द्रस्य सहाया मरुतः स्तूयन्ते तथापि सैनिकानां स्तुत्या सेनापतिरेव स्तुतो भवतीति न्यायेनेन्द्रो देवता। ऋग्वेदे त्वस्य मन्त्रस्य (ऋ० १।३७।३) मरुत एव देवताः। इन्द्रश्च शरीरस्य सम्राट् जीवात्मा, राष्ट्रस्य सम्राट् राष्ट्रपतिश्च। जीवात्मनः सहाया मरुतः प्राणाः, राष्ट्रपतेश्च सहाया मरुतः सैनिका इति बोध्यम्।

    पदार्थः

    प्रथमः—सैनिकपक्षे। (एषाम्) एतेषां मरुतां सैनिकानां (हस्तेषु) पाणिषु, युद्धकाले (यत् कशाः) प्रतोदाः (वदान्) वदन्ति नदन्ति, ध्वनिं कुर्वन्ति। वद धातोर्लेटि लेटोऽडाटौ अ० ३।४।९४ इत्याट् इतश्च लोपः परस्मैपदेषु अ० ३।४।९७ इत्यनेन अन्ति इत्यस्य इकारलोपः। ततश्च संयोगान्ततकारलोपे रूपम्। तत् तेषां नदनम् (इह इव२) अत्र इव, अयुद्धस्थलेष्वपीति भावः। (शृण्वे३) शृणोमि। आत्मनेपदम् छान्दसम्। एष मरुद्गणः सैनिकानां समाजः (यामन्४) यामनि संग्रामे। यान्ति आक्रामन्ति परस्परं योद्धारो यस्मिन् स यामा, तस्मिन्। या धातोरौणादिको मनिन् प्रत्ययः। सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति ङेर्लुक्। (चित्रम्) अद्भुतं यथा स्यात् तथा (निऋञ्जते) प्रसाध्नोति, अलङ्करोत्यात्मानम्। ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा। निरु० ६।२१। मरुतां सैनिकानां वेशप्रसाधनमेवं वर्णयति श्रुतिः—“अंसे॑षु व ऋ॒ष्टयः॑ प॒त्सु खा॒दयो॒ वक्षः॑सु रु॒क्मा म॑रुतो॒ रथे॒ शुभः॑। अ॒ग्निभ्रा॑जसो वि॒द्युतो॒ गभ॑स्त्योः॒ शिप्राः॑ शी॒र्षसु॒ वित॑ता हिर॒ण्ययीः॑ ॥” ऋ० ५।५४।११। स्वा॒यु॒धास॑ इ॒ष्यिणः॑ सुनि॒ष्का उ॒त स्व॒यं त॒न्वःशुम्भ॑मानाः ॥ ऋ० ७।५६।११ इति। अथ द्वितीयः—प्राणपक्षे। (एषाम्) एतेषां मरुतां प्राणानाम् (हस्तेषु) हस्तोपलक्षितेषु पूरककुम्भकादिविधिषु (यत् कशाः) अकर्णगोचराः सूक्ष्मा वाचः। कशेति वाङ्नाम। निघं० १।११। (वदान्) ध्वनन्ति, तद् ध्वननम् (इह इव) अत्र इव, अनभ्यासदशायामपीत्यर्थः (शृण्वे) शृणोमि। एष मरुतां प्राणानां गणः (यामन्) अभ्यासमार्गे। यान्ति अस्मिन्निति यामा मार्गः। (चित्रम्) अद्भुतम् (निऋञ्जते) प्रसाधयति अलङ्करोति योगैश्वर्यैः प्राणायामाभ्यासिनं साधकम् ॥१॥५ अस्मिन् मन्त्रे भूतस्य वस्तुनः प्रत्यक्षवद् वर्णनाद् भाविकालङ्कारः६। सैनिकप्राणरूपार्थद्वयप्रकाशनाच्च श्लेषः ॥१॥

    भावार्थः

    यथा राज्ञः सहायकाः सैनिका राष्ट्रं रक्षन्ति, तथैव योगिनः सहायकाः प्राणा योगिनो योगं रक्षन्ति। युद्धेषु शत्रूणां पुरतः सैनिकानां कशा ध्वनन्ति, तद् दृश्यं यैः साक्षात्कृतं भवति, तच्चमत्कृतास्ते, युद्धेतरस्थलेष्वपि मन्यन्ते यदत्रापि तेषां कशाः शब्दायन्त इव। सैनिकानां वीरोचितो वेशविन्यासोऽप्यद्भुत इव प्रतिभाति। प्राणा अपि योगिनां सैनिका एव, ये शरीरोत्पन्नं दोषजातं बहिर्निष्कासयन्ति, इन्द्रियाणि निर्मलयन्ति, योगैश्वर्यप्राप्तिप्रयासं च सफलयन्ति ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १।३७।३, देवता मरुतः। २. इव शब्द एवार्थे—इति वि०। इव शब्द उपमानार्थः सम्प्रत्यर्थोऽवधारणार्थः पदपूरणार्थश्च भवति। अत्र उपमानार्थव्यतिरिक्तानां त्रयाणामन्यतमो ग्राह्यः—इति भ०। ३. शृण्वे श्रूयते—इति वि०, भ०। शृणोति—इति सा०। ४. यामन् संग्रामे—इति सा०। ५. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं वायुपक्षे व्याख्यातः। ६. प्रत्यक्षा इव यद्भावाः क्रियन्ते भूतभाविनः, तद् भाविकम्। का० प्र० १०।११४ इति तल्लक्षणात्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When we two converse, together we hear though ’twere close at hand. It shows speech is in their hands, which accomplishes wondrous achievements.

    Translator Comment

    We refers to teacher and pupil. Their refers to teacher and preacher, which refers to speech.^The word कशा has been translated by Swami Tulsi Ram as speech. Literally the word कशा means as whip or hunter. Pt. Jaidev Vidyalankar says that in the hands of breaths i.e., Pranas there is the hunter of Om. which the Yogis use in their contemplation.

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    Meaning

    Whatever I hear here wherever I am, whatever the stimulation of the nerves and motions of the muscles in the hands, whatever people speak, whatever varied and wonderful they straighten, realise or obtain in the business of life, all that is by the motion of these winds. (Research into the energy, power and uses of the winds. ) (Rg. 1-37-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (एषां हस्तेषु कशाः) હે ઇન્દ્ર મિત્રજાનો ઋત્વિજો વિદ્વાનોના સપ્તપ્રાણ , લોકોના સાત પ્રાણ સ્થાનોમાં વાણીઓ - વેદવાણિઓને (इह इव श्रृण्वे) અહીં મારી અંદર જેમ હું સાંભળું છું , (यत् वदान्) જેમ હું બોલું છું , (यामन् चित्रम् नि ऋञ्जते) જે ઇન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા અધ્યાત્મ માર્ગમાં અથવા અધ્યાત્મ કર્મમાં , અદ્ભુત રૂપમાં , અન્તઃદૃષ્ટિની સાથે પ્રસિદ્ધ કરે છે , સાક્ષાત્ કરે છે. (૧)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : વિદ્વાન મનુષ્ય પોતાના પ્રાણ સંસ્થાનોમાં જે વેદવાણીઓને ધારણ કરીને યજ્ઞ આદિ પ્રસંગોમાં બોલે છે , હું અધ્યાત્મ યજ્ઞનો યાજક તે ઈશ્વરીય વાણીઓને મારા અંતઃકરણમાં સાંભળું છું , તે પરમાત્મા અધ્યાત્મ માર્ગ અથવા અધ્યાત્મ કર્મમાં તે વેદ વાણીઓને સુંદર રૂપમાં અર્થ સહિત પ્રસિદ્ધ કરી દે છે , સાક્ષાત્ સમજાવી દે છે. (૧)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    ڈرَ ووُہ بڑا زبردست ہے

    Lafzi Maana

    (ایشام) ان ہماری ایک دوسرے کے لئے دشمنانہ چالوں ایسی رکاوٹوں اور لڑائی فساد کی شیطانی حرکات کے (ہستیشُو) ہاتھوں میں (کشا) مانو کہ چابکیں (ہنٹر) ہیں (یت ودان) جن کی مار کی آوازیں (ایہہ اِو) اِس زندگی کے اوقات میں (شِرنوے) میں سُن رہا ہون۔ پرمیشور ان چابکوں کے ذریعے (نیامن) ہم سب کو ازلی قاعدے قانون کی حکومت میں اپنے (چترم رنجتے) تعجبانہ، حیران کُن ڈھنگ سے چلا رہا ہے، جس سے اُن کی گرفت سب پر عیان ہوتی ہے۔

    Tashree

    تشریح: بیماریاں، تاکیلف مانسک پریشانیاں، بنے بنائے کاموں میں ایک رکاوٹوں، وِگھنوں، بادھاؤں کے پہاڑوں کا ٹُوٹ پڑنا، طوفان بادوباراں اور سیلابوں کی تباہی خیزیاں وغیرہ اِن چابکوں کی ماریں ہیں، جن کو جتی، ستی، یوگی اور پرمیشور کے پیارے سُن پاتے ہیں اور کہہ اُٹھتے ہیں کہ: یہ ہے قانون قدرت کا کرو جیسا بھرو ویسا، نہ رشوت اور سفارش سے وہاں تو بچنے پائیگا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे राजाला साह्य करणारे सैनिक राष्ट्राचे रक्षण करतात, तसेच योग्याचे सहायक प्राण योगी लोकांच्या योगाचे रक्षण करतात. युद्धात शत्रूंसमोर सैनिकांच्या शस्त्रांचा आवाज येतो, ते दृश्य पाहिलेल्यांना इतर स्थानीही तसाच भास होतो. सैनिकांचा वीरोचित पोशाखही अद्भुत वाटतो. प्राणही योग्याचे सैनिकच आहेत. ते शरीरातील दोष बाहेर काढतात, इंद्रिये निर्मळ करतात व योगैश्वर्याच्या प्राप्तीचे प्रयास सफल होतात. ॥१॥

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    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (सैनिक पर) (एषाम्) या सैनिकांच्या (हस्तेषु) हातात युद्धकाळी (यत्) जे (कशाः) चाबुक (वदान्) आहेत, त्यांचा आवाज (इह इव) जणू काय इथेच नव्हे, तर युद्धक्षेत्राहून भिन्न स्थळांपर्यंत (शृण्वे) घुमताना मी (एक नागरिक) ऐकत आहे. हे सैनिक दल (यामन्) संग्रामामध्ये (चित्रम्) अद्भुत (निऋज्जते) वेध धारण करत (त्यांचे प्रसाधन चित्र - विचित्र असते.) वेदांमध्ये सैनिकांच्या वेश प्रसाधनाचे स्वरूप या प्रकारे वर्णित आहे - ‘‘हे सैनिकहो, तुमच्या खांद्यावर ऋष्टी आहेत. पायांमध्ये पादत्राणे आहेत. वक्षःस्थळावर सोन्याचे पदक असून तुम्ही रथावर आरूढ रूपाने शोभायमान आहात. तुमच्या बाहूमध्ये अग्नीप्रमाणे दीप्ती असणारा विद्युत अस्त्रे आहेत आणि शिरावर सोनेरी फेटा वा पागोटे आहे. ‘ऋ. ५/ ५४/ ११ ‘तुम्ही उत्कृष्ट शस्त्रांची समृद्ध आहात, गतिमान आहात आणि तुम्ही उत्कृष्ट स्वर्णालंकार धारण केलेले आहेत.’ द्वितीय अर्थ - (प्राणपरक) - (एषाम्) या प्राणांच्या (हस्तेषु) पूरक- कुम्भक क्रियारूप हातांमध्ये (यत्) ज्या (कशाः) कानांनी न ऐकू येणाऱ्या अशा ज्या सूक्ष्म वाणी (वदान्) ध्वनित होतात, त्या ध्वनीला (इह इव) जणू काय इथेच म्हणजे प्राणायामाव्यतिरिक्त अवस्थेतदेखील मी (एक योगसाधक) (शृण्वे) ऐकत आहे. हा प्राणसमूह (पंचप्राण) (यामन्) अभ्यास मार्गात (चित्रम्) अद्भुत रूपेण (निऋज्जते) प्राणायाम अभ्यासी योग्याला विविध योग ऐश्वर्याने अलंकृत करतो. ।। १।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे राजाचे सहकारी सैनिक राष्ट्राची रक्षा करतात, तद्वत योगीजनाचे प्राण योगीच्या योगाची रक्षा करतात. युद्धांमध्ये शत्रुसैन्यासमोर सैनिकांचे चाबुक मोक्ष फटकाऱ्याचा आवाज करतात ते ज्या लोकांनी ऐकले आहे, ते त्या ध्वनीच्या भीषणाने प्रभावित होऊन त्यांना युद्धक्षेत्राहून वेगळ्या स्थानी गेल्यानंतरही त्याच भीषणतेचा अनुभव येत असतो. जणू काय ते तिथेदेखील तो ध्वनी ऐकत आहेत, असा त्यांना भास होतो. सैनिकांचा नीरोचित वेश विन्यासदेखील अद्भुत वाटतो. प्राण हेदेखील योगी व्यक्तीचे सैनिक आहेत, जे शरीरात उत्पन्न सर्व दोष काढून टाकतात, इन्द्रिये निर्मळ करतात आणि योगेश्वर्य प्राप्तीचे यत्न यशस्वी करतात. ।। १।।

    विशेष

    या मंत्रात भूतकाळातील वस्तूंचे (सैनिकांची वेशभूषा, आदींचे) वर्तमानकाळात प्रत्यक्ष असल्याप्रमाणे वर्णन केले आहे, त्यामुळे इथे भाविक अलंकार आहे. (हस्तेषु, कशान्, यामन्) या शब्दाने प्राण व सैनिक असे दोन अर्थ असल्यामुळे या मंत्रात श्लेष अलंकारदेखील आहे.

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    மருத்துக்களின் கைகளிலிருக்கும் சாட்டைகளின் சப்தஞ்செய்வதானது இங்குதான் என செவியுறுகிறேன். அவர்கள் யுத்தத்தில் விதவிதமான வீரத்தை சேகரிக்கிறார்கள்.

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