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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 134
ऋषिः - त्रिशोकः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
32
भि꣣न्धि꣢꣫ विश्वा꣣ अ꣢प꣣ द्वि꣢षः꣣ प꣢रि꣣ बा꣡धो꣢ ज꣣ही꣡ मृधः꣢꣯ । व꣡सु꣢ स्पा꣣र्हं꣡ तदा भ꣢꣯र ॥१३४॥
स्वर सहित पद पाठभि꣣न्धि꣢ । वि꣡श्वाः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । द्वि꣡षः꣢꣯ । प꣡रि꣢ । बा꣡धः꣢꣯ । ज꣣हि꣢ । मृ꣡धः꣢꣯ । व꣡सु꣢꣯ । स्पा꣣र्ह꣢म् । तत् । आ । भ꣣र ॥१३४॥
स्वर रहित मन्त्र
भिन्धि विश्वा अप द्विषः परि बाधो जही मृधः । वसु स्पार्हं तदा भर ॥१३४॥
स्वर रहित पद पाठ
भिन्धि । विश्वाः । अप । द्विषः । परि । बाधः । जहि । मृधः । वसु । स्पार्हम् । तत् । आ । भर ॥१३४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 134
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा, राजा और आचार्य से विघ्नों के नाश तथा धन प्रदान करने की प्रार्थना है।
पदार्थ
हे इन्द्र ! विद्यावीर, दयावीर, बलवीर परमात्मन् राजन् व आचार्य ! आप (विश्वाः) सब (द्विषः) द्वेष-वृत्तियों को और काम, क्रोध, लोभ आदि असुरों तथा मानव राक्षसों की सेनाओं को (अप भिन्धि) विदीर्ण कर दीजिए। (बाधः) बाधक, सन्मार्ग में विघ्न डालनेवाले (मृधः) संग्राम करनेवाले पापों को (परि जहि) सर्वत्र नष्ट कर दीजिए। (तत्) वह प्रसिद्ध (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) सत्य, अहिंसा, आरोग्य, विद्या, सुवर्ण आदि आध्यात्मिक और भौतिक धन (आभर) हमें प्रदान कीजिए ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिए कि परमात्मा, राजा और आचार्य की सहायता द्वारा रास्ते से राग, द्वेष, पाप, विघ्न-बाधा आदि को हटाकर और सब प्रकार का धन प्राप्त करके विजयी हों ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र नामक परमेश्वर आदि के गुणों का वर्णन होने से उसके पास से ऐश्वर्यों की प्रार्थना होने से, उसके प्रति प्रणाम अर्पित होने से और उससे शत्रु-विनाश तथा स्पृहणीय धन की याचना होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिए ॥ द्वितीय प्रपाठक में प्रथम अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ द्वितीय अध्याय में द्वितीय खण्ड समाप्त ॥
पदार्थ
(विश्वाः-द्विषः) हे इन्द्र ऐश्वर्यवन् परमात्मन्! तू समस्त द्वेष करने वाली प्रवृत्तियों को (अपभिन्धि) छिन्न-भिन्न कर दे (बाधः) समस्त बाधाभावनाओं को (मृधः) पापप्रवृत्तियों को “पाप्मा वै मृधः” [श॰ ६.३.३.८] (परिजहि) सब प्रकार से हत कर दे—(स्पार्हं वसु तत्-आभर) स्पृहणीय—वाञ्छनीय गुणधन है उसे समन्तरूप से धारण करा या ले आ।
भावार्थ
परमात्मन्! मेरे अन्दर से दूसरों के प्रति होनेवाली तथा मेरे प्रति दूसरों की भी सब द्वेषप्रवृत्तियों को छिन्न-भिन्न कर दे, मेरे अन्दर दूसरों के प्रति होनेवाली बाधाप्रवृत्तियों और पापवृत्तियों को एवं मेरे प्रति दूसरों की बाधाभावनाओं पापवृत्तियों को मिटा दे। पुनः वाञ्छनीय वननीय गुणधन को मेरे अन्दर धारण करा दे—भर दे जिससे दूसरे का अहितचिन्तन न करूँ न मेरे प्रति कोई अहितचिन्तन कर सके॥१०॥
विशेष
ऋषिः—त्रिशोकः (तीनों ज्ञान कर्म उपासना से प्राप्त दीप्ति वाला जन)॥<br>
विषय
स्पृहणीय धन
पदार्थ
१. हे प्रभो! (विश्वाः द्विषः) = हमारे अन्दर सहसा प्रविष्ट हो जानेवाली सब द्वेष की भावनाओं को [विश् = to enter, द्वेषणे द्विट्] (अप भिन्धि)- हमसे दूर विदीर्ण कर दीजिए | हमारे पास ये कुत्सित भावनाएँ फटकने भी न पाएँ । मन की मलिनताएँ ' राग, द्वेष और मोह' ही तो हैं हम इन मलिनताओं को दूर करके अपने मनों को निर्मल बनाने में समर्थ हों। हमारा यह सतत प्रयत्न हो कि 'हम द्वेष से दूर रहें। हम सदा सबके मङ्गल की ही कामना करें- ('सर्वे भद्राणि पश्यन्तु') यही हमारी कामना हो । इसी प्रकार तो हम अपने मनों को दीप्त रख सकेंगे।
२. (बाधः मृधः परिजहि) = उन्नति के मार्ग में बाधारूप और अन्त में मृत्यु के कारणभूत रोगों को भी हमसे दूर कीजिए । ('धर्मार्थकाममोक्षाणां आरोग्यं मूलमुत्तमम्') = धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष सभी पुरुषार्थों का उत्तम मूल आरोग्य ही है, नीरोगता के अभाव में इन पुरुषार्थों की सिद्धि सम्भव नहीं होती। रोग इनकी प्राप्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, अतः इन्हें ‘बाधः' शब्द से स्मरण किया गया है। ये ही रोग असमय में मृत्यु के कारण हो जाने से ‘मृध:'=murderers हिंसक कहे गये हैं। हे प्रभो! हमारे शरीर इस प्रकार तेजस्वी हों कि हमें ये रोग अपना शिकार न बना सकें। हमें शरीर की वह दीप्ति प्राप्त हो, जिसमें ये रोग भस्म हो जाएँ।
३.( तत् स्पार्हं वसु) आभर हे प्रभो! उस स्पृहणीय धन को हममें भर दीजिए । 'बाह्य धन' और 'आन्तर धन' ये दो शब्द सोना, चाँदी व ज्ञान के लिए प्रयुक्त होते हैं। मानव जीवन में दोनों धनों का स्थान है। शारीरिक आवश्यकताएँ बाह्य धन से पूरी होती हैं तो आत्मिक उन्नति ज्ञान की अपेक्षा रखती है। हमारा जीवन इस आन्तर धन से परिपूर्ण हो । बाह्य धन की तुलना में यह आन्तर धन स्पृहणीय है। हमारी शक्तियाँ बाह्य धन के जुटाने में ही समाप्त न हो जाएँ। हे प्रभो! आपकी कृपा से हमारा मस्तिष्क ज्ञान की ज्योति से दीप्त बने । हम ज्ञान की ही स्पृहावाले हों और इस प्रकार मन, शरीर व बुद्धि तीनों को दीप्त करके हम इस मन्त्र के ऋषि त्रिशोक हों।
भावार्थ
ज्ञान ही हमारा स्पृहणीय धन हो ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( विश्वा द्विषः ) = सब द्वेष करने वालों को हे राजन् ! आत्मन् ! ( अप भिन्धि ) = दूर ही काट डाल और ( बाध: ) = पीड़ा पहुंचाने वाले, ( मृधः ) = संग्रामकारी हिंसक, सेनाओं को ( परि जहि ) = सब और नाश कर ( स्पार्हम् ) = हमारी अभिलाषा के पात्र ( तद् ) = उस ( वसु ) = हमारे भीतरी आत्मरूप धन को ( आ भर ) = हमें प्राप्त करा |
बृहदारण्यक उपनिषद् में 'नवा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति । वेद के शब्दों में आत्मा 'स्पार्हं ' वसु या सबसे अधिक प्रिय धन है । 'तत्' यह शब्द उस विस्मृत को याद कराता है जिसको हम अविद्या के कारण भूल गये हैं, जिसको मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य से पूछा- येनाहं नामृतास्यां किमहं तेन कुर्याम् । यदेव भगवान् वेद तदेव में ब्रूहि '। इस पर याज्ञवल्क्य ने उक्त सिद्धान्त कहकर कहा । 'एतावदरे खलु अमृतम् ।' यह 'तत्' अन्य उपनिषदों में भी है जैसे-'तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदु नात्येति कश्चन, तत्वमसि श्वेतकेतो' इत्यादि ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - त्रिशोकः।
छन्दः - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा राजाऽऽचार्यश्च विघ्नविनाशाय वसुप्रदानाय च प्रार्थ्यते।
पदार्थः
हे इन्द्र ! विद्यावीर, दयावीर, बलवीर परमात्मन् राजन् आचार्य वा ! त्वम् (विश्वाः) समस्ताः (द्विषः२) द्वेषवृत्तीः, कामक्रोधलोभाद्यसुराणां मानवरिपूणां च द्वेष्ट्रीः सेना वा (अप भिन्धि) अपविदारय, (बाधः३) बाधकान्, सन्मार्गे विघ्नकरान्। बाध धातोः क्विपि, द्वितीयाबहुवचने रूपम्। (मृधः४) संग्रामोत्पादकान् पाप्मनः च। मृध इति संग्रामनाम। निघं० २।१७। पाप्मा वै मृधः। श० ६।३।३।८ (परि जहि) परितो विनाशय। संहितायाम् अन्येषामपि दृश्यते इति दीर्घः। (तत्) प्रसिद्धम् (स्पार्हम्) स्पृहणीयम् (वसु) सत्याहिंसारोग्यविद्यासुवर्णादिकम् आध्यात्मिकं भौतिकं च धनम् (आभर) अस्मभ्यं प्रयच्छ ॥१०॥
भावार्थः
मनुष्यैः परमात्मनो नृपतेराचार्यस्य च साहाय्येन मार्गाद् रागद्वेषपापविघ्नबाधादिकमपसार्य सर्वविधं धनं च प्राप्य विजेतव्यम् ॥१०॥ अत्रेन्द्राख्यस्य परमेश्वरादिकस्य गुणवर्णनात्, ततः सकाशादैश्वर्यप्रार्थनात्, तं प्रति प्रणामार्पणात्, ततः शत्रुविनाशस्य स्पृहणीयवसुप्रदानस्य च याचनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन संगतिरस्तीति विज्ञेयम् ॥ इति द्वितीये प्रपाठके प्रथमार्धे चतुर्थी दशतिः। इति द्वितीयाध्याये द्वितीयः खण्डः ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।४५।४०, अ० २०।४३।१, साम० १०७०। २. द्विषः द्वेष्ट्रीः शत्रुसेनाः—इति सा०। ३. बाधा पीडा। सर्वतो यो बाधां करोति स बाधयति। बाधयतेः क्विप्। बाधः। तान् सर्वतः पीडाकरानित्यर्थः—इति वि०। बाधः, बाधकान्। बाधतेः क्विप्—इति भ०। बाधः हिंसित्रीः मृधः संग्रामान्—इति सा०। ४. मृधः संग्रामनाम। मृधं करोति मृधयति। मृधयतेः क्विप्। तान् मृधः संग्रामकारिणः इत्यर्थः—इति वि०। मृधः हिंसकान्—इति भ०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God, drive all our enemies away, smite down our violent foes and tormentors. Grant us that wealth of soul for which we long.
Meaning
Break off all the jealous adversaries, remove all obstacles, eliminate the enemies and violence and fill the world with cherished wealth, honour and prosperity. (Rg. 8-45-40)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्वाः द्विषः) હે ઈન્દ્ર ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! તું સમસ્ત દ્વેષ કરનારી પ્રવૃત્તિઓને (अपभिन्धि) છિન્ન - ભિન્ન કરી દે , (बाधः) સમસ્ત બાધા ભાવનાઓ ને (मृधः) પાપવૃત્તિઓને (परिजहि) સર્વ પ્રકારથી દૂર કરી દે , (स्पार्हं वसु तत् आभर) જે સ્પૃહણીય - વાંછનીય ગુણ છે , તે સમગ્ર રૂપમાં ધારણ કરાવ અથવા લઈ આવ. (૧૦)
भावार्थ
ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! મારી અંદર બીજાઓ પ્રત્યે થનારી તથા મારા પ્રત્યે બીજાઓની પણ સર્વ દ્વેષ પ્રવૃત્તિઓને છિન્ન - ભિન્ન કરી દે , મારી અંદર બીજાઓ પ્રત્યે થનારી બાધા પ્રવૃત્તિઓ તથા પાપ વૃત્તિઓને તથા મારા પ્રત્યે બીજાઓની બાધા ભાવનાઓ અને પાપવૃત્તિઓનો નાશ કર. પુનઃ વાંછનીય વનનીય ગુણધનને મારી અંદર ધારણ કરાવી દે - ભરી દે , જેથી અન્યોનું અહિત ચિંતન ન કરું અને મારા વિષે કોઈ અહિત ચિંતન ન કરી શકે. (૧૦)
उर्दू (1)
Mazmoon
دویش اور دویشی کو بھسمی بھُوت کرو
Lafzi Maana
ہے پرمیشور! (وِشوا دوِشہ بِھندھی) ہماری سب پرکار کی دویش بھاوناؤں کو اور دویش کرنے والی دُشٹ شتروؤں کو چھن بھن کی دیجئے، (بادھ پری اپ) بادھائیں، وِگھن، روکاوٹیں دُور کر دیجئے(مردھاجہی) دیو اُسر سنگرام میں جو اندر اور باہر کام کرودھ وغیرہ اور شرارتی عناصر ہیں، اُنہیں بھی بھسمی بھوت کر دیویں اور (سپارہم وسُوتت آبھر) اور کرپا کر کے جو ہماری منو کامنائیں ہیں، وہ ادھیاتمک دھن، موکھش جو روحانی خزانے کا مبنع ہے وہ ہمارے لئے کھول دیجئے!
Tashree
دُشمنی کی بھاونا اور دُشمنوں کو دُور کر دو، وِگھن بادھائیں ہٹا کر موکھش کے امرت کو بھر دو۔
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी परमात्मा, राजा व आचार्याद्वारे राग, द्वेष, पाप, विघ्न-बाधा इत्यादी आपल्या मार्गातून हटवावेत व सर्व प्रकारचे धन प्राप्त करून विजयी व्हावे ॥१०॥ या दशतिमध्ये इंद्र नावाच्या परमेश्वर इत्यादीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे त्याच्याजवळ ऐश्वर्याची प्रार्थना केल्यामुळे त्याला प्रणाम अर्पित केल्यामुळे व त्याला शत्रु-विनाश व स्पृहणीय धनाची याचना केल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे
विषय
पुढील मंत्रात परमेश्वराला राजाला आणि आचार्याला विघ्नविनाशासाठी आणि धनप्रदानासाठी प्रार्थना केली आहे -
शब्दार्थ
हे इन्द्र, विद्यावीर, दयावीर, बलवीर परमात्मा, हे राजा वा हे आचा४, आपण (विश्वाः) सर्व (द्विषः) द्वेष भावना आणि काम, क्रोध, लोभ आदी असुरांना तसेच मानव राक्षसांच्या सैन्याला (दुष्ट मनुष्यांना) (अप भिन्धि) विदीर्ण करा. (बाधः) बाधक, सन्मार्गात अडथळे उत्पन्न करणाऱ्या (मृघ) आमच्याशी युद्ध करणाऱ्या पापकर्मांना (परि जहि) सर्वत्र सर्वथा नष्ट करूा. (तत्) तो प्रसिद्ध (स्पार्हम्) स्पृहणीय (वसु) सत्य, अहिंसा, आरोग्य, विद्या, सुवर्ण आदी आध्यात्मिक व भौतिक घन (आभर) आम्हा (उपासकांना / प्रजाजनांना वा शिष्यांना) प्रदान करा. ।। १०।।
भावार्थ
मनुष्यंनी परमेश्वर, राजा आणि आचार्य यांच्या साह्याने आपल्या सन्मार्गातील राग, द्वेष, पाप, विघ्न आदी अडथळे दूर केले पाहिजेत आणि सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य संपादित केले पाहिजे. ।। १०।। या दशतीध्ये इन्द्र नाम परमेश्वराच्या गुणांचे वर्णन असून त्यापासून ऐश्वर्य प्राप्तीची प्रार्थना केली आहे. तसेच परमेश्वराला प्रणाम अर्पित केले असून त्याला शत्रुनिवारा आणि स्पृहणीय धनाची याचना केली आहे. या सर्व विषयांच्या वर्णनामुळे या दशतीच्या विषयांशी यापूर्वीच्या दशतीची संगती आहे, असे जाणावे. द्वितीय प्रपाठकातील प्रथम अर्धापैकी चतुर्थ दशती समाप्त. द्वितीय अध्यायातील द्वितीय खंड समाप्त
विशेष
आता इंद्राचे सहकारी मरुत यांचे वर्णन करीत आहेत. येथे जरी इन्द्राचे सहकारी म्हणून मरुतांची स्तुती केली आहे, तथापि सैनिकांच्या स्तुतीच्या माध्यमातून सेनापतीचीच स्तुती केली आहे, असेच मानले जाते. या न्यायाने या मंत्राची देवता इन्द्र मानली आहे. ऋग्वेदातही मरुतांनाच या मंत्राची देवता म्हटले आहे. इन्द्र शब्दाने शरीराचा सम्राट जीवात्मा अपेक्षित असून राष्ट्राचा सम्राट राष्ट्रपती अभिप्रेत होत आहे. जीवात्मारूप इन्द्राचे सहकारी आहेत मरुत आणि राष्ट्रपतीरूप इन्द्राचे सहकारी मरुत म्हणजे राष्ट्राचे सैनिक. या मंत्राचा असाच अर्थ घेतला पाहिजे.।।
तमिल (1)
Word Meaning
சர்வமான எங்கள் [1]துவேஷிகளை துரத்தவும். துவம்சஞ்செய்யவும், சத்துருக்களை ஹிம்சிக்கவும், விருப்பமுள்ள பிரசித்தமான ஐசுவரிய நிலயங்களை எங்களுக்குக் கொண்டு வரவும்.
FootNotes
[1].துவேஷிகளை - சத்துருக்களை
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