Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 18
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
0
औ꣣र्वभृगुव꣡च्छुचि꣢꣯मप्नवान꣣व꣡दा हु꣢꣯वे । अ꣣ग्नि꣡ꣳ स꣢मु꣣द्र꣡वा꣢ससम् ॥१८॥
स्वर सहित पद पाठऔ꣣र्वभृगुव꣢त् । औ꣣र्व । भृगुव꣢त् । शु꣡चि꣢꣯म् । अ꣣प्नवानव꣢त् । आ । हु꣣वे । अग्नि꣢म् स꣣मुद्र꣡वा꣢ससम् । स꣣मुद्र꣢ । वा꣣ससम् ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे । अग्निꣳ समुद्रवाससम् ॥१८॥
स्वर रहित पद पाठ
और्वभृगुवत् । और्व । भृगुवत् । शुचिम् । अप्नवानवत् । आ । हुवे । अग्निम् समुद्रवाससम् । समुद्र । वाससम् ॥१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 18
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
Acknowledgment
विषय - परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ -
भा० = ( समुद्रवाससम् १) = समुद्र, आकाश में व्यापक ( शुचिम् ) = शुद्ध ( अग्निम् ) = अग्नि, ईश्वर को ( और्वभृगुवत् अप्नवानवद् ) = और्वभृगु पृथ्वी के गर्भगत और अप्नवान अर्थात् ओषधि रसों में विद्यमान अग्नि के समान ( आहुवे ) = स्मरण करता=जानता हूं ।
'और्वभृगु ' अग्नि पृथ्वी के गर्भ में रह कर समस्त पदार्थों को अपने ताप से भर्जन करती और पकाती है। 'अप्नवान' अग्नि रसों और ओषधियों में शान्त भाव से रहती है और रस, अम्ल क्षार रूप में प्रकट होती है । उसी प्रकार तेजोमय कान्तिमान् ईश्वर को समस्त ब्रह्माण्ड में सामर्थ्य रूप में जानना चाहिये ।
टिप्पणी -
१. समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम, नि० १ । ३
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिः - प्रयोग:।
छन्द: - गायत्री।