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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 18
ऋषिः - प्रयोगो भार्गवः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
92
औ꣣र्वभृगुव꣡च्छुचि꣢꣯मप्नवान꣣व꣡दा हु꣢꣯वे । अ꣣ग्नि꣡ꣳ स꣢मु꣣द्र꣡वा꣢ससम् ॥१८॥
स्वर सहित पद पाठऔ꣣र्वभृगुव꣢त् । औ꣣र्व । भृगुव꣢त् । शु꣡चि꣢꣯म् । अ꣣प्नवानव꣢त् । आ । हु꣣वे । अग्नि꣢म् स꣣मुद्र꣡वा꣢ससम् । स꣣मुद्र꣢ । वा꣣ससम् ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
और्वभृगुवच्छुचिमप्नवानवदा हुवे । अग्निꣳ समुद्रवाससम् ॥१८॥
स्वर रहित पद पाठ
और्वभृगुवत् । और्व । भृगुवत् । शुचिम् । अप्नवानवत् । आ । हुवे । अग्निम् समुद्रवाससम् । समुद्र । वाससम् ॥१८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 18
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 2;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कैसे परमात्मा का मैं आह्वान करता हूँ, यह कहते हैं।
पदार्थ
प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। मैं (और्वभृगुवत्) पार्थिव पदार्थों को तपानेवाले सूर्य के समान, और (अप्नवानवत्) क्रियासेवी वायु के समान (शुचिम्) पवित्र व पवित्रताकारक, और (समुद्रवाससम्) हृदयाकाश में व ब्रह्माण्डाकाश में निवास करनेवाले (अग्निम्) ज्योतिष्मान् तथा ज्योतिष्प्रद परमात्मा को (आहुवे) पुकारता हूँ ॥ द्वितीय—विद्युत् के पक्ष में। बिजली के प्रयोग के विषय में कहते हैं। मैं (और्वभृगुवत्) जैसे सूर्य को अर्थात् सूर्य के ताप को यन्त्रों आदि में प्रयुक्त करता हूँ, और (अप्नवानवत्) जैसे पाकादि कर्मों का सेवन करनेवाले पार्थिव अग्नि को यन्त्रों आदि में प्रयुक्त करता हूँ, वैसे ही (शुचिम्) प्रदीप्त, (समुद्रवाससम्) अन्तरिक्षनिवासी (अग्निम्) वैद्युत अग्नि को (आहुवे) प्रकाश के लिए तथा यान आदि में प्रयुक्त करने के लिए अपने समीप लाता हूँ ॥८॥ इस मन्त्र में उपमा और श्लेष अलङ्कार हैं ॥८॥
भावार्थ
जैसे सूर्य और वायु पवित्र, पवित्रताकारक और सबके जीवनाधार हैं, वैसे ही परमात्मा भी है। जैसे सूर्य और वायु आकाश में निवास करते हैं, वैसे ही परमात्मा हृदयाकाश में और विश्वब्रह्माण्ड के आकाश में निवास करता है। ऐसे परमात्मा का सबको साक्षात्कार करना चाहिए। साथ ही सूर्याग्नि, पार्थिवाग्नि तथा वैद्युत अग्नि के द्वारा यान आदि चलाने चाहिएँ ॥८॥ जैसे और्व ऋषि, भृगु ऋषि और अप्नवान ऋषि शुचि अग्नि को बुलाते हैं, वैसे ही मैं बुला रहा हूँ, यह विवरणकार की व्याख्या है। भरतस्वामी का भी यही अभिप्राय है। सायण ने और्व और भृगु अलग-अलग नाम न मानकर एक और्वभृगु नाम माना है। यह सब व्याख्यान असंगत है, क्योंकि सृष्टि के आदि में प्रादुर्भूत वेदों में पश्चाद्वर्ती ऋषि आदिकों का इतिहास नहीं हो सकता ॥
पदार्थ
(और्वभृगुवत्) उर्वी-पृथिवी में होने वाले—और्व गन्धक पोटास आदि “उर्वी पृथिवीनाम” [निघं॰ १.१] खनिज पदार्थों से अग्नि को प्रकट करने वाले रासायनिक विद्वान् की भाँति—जैसे वह अग्नि को भौम पदार्थों से प्रकट करता है वैसे। तथा (अप्नवानवत्) संघर्षण कर्म—मन्थन के सेवन करने वाले के समान “अप्नः कर्मनाम” [निघं॰ २.१] “वन सम्भक्तौ” [भ्वादि॰] अथवा दोनों भुजाओं प्रशस्त भुजाओं वाले शिल्पीजन के समान “अप्नवाना बाहुनाम” [निघं॰ २.४] ‘तौ प्रशस्तौ यस्य सोऽप्नवानः, अकारो मत्वर्थीयश्छान्दसः’। अग्नि को प्रकट करता है ऐसे मैं अध्यात्मयज्ञकर्ता उपासक आध्यात्मिक भृगु और आध्यात्मिक आप्नवान बनकर (समुद्रवाससं शुचिम्-अग्निम्-आहुवे) अन्तरिक्ष—आकाश—महाकाश “समुद्रोऽन्तरिक्षनाम” [निघं॰ १.३] है वासस्—वास स्थान जिसका उस व्याप्त परमात्मा अग्नि को प्रदीप्त-साक्षात् आमन्त्रित करता हूँ—प्राप्त करता हूँ—प्रकट करता हूँ।
भावार्थ
अग्निविद्या में निष्णात विद्वान् गन्धक आदि पदार्थों के सम्मिश्रण से या चकमक पत्थर और लोहे के संघर्षण से या वंशकाष्ठों के मन्थन से अग्नि को प्रकट कर लेता है इसी प्रकार अध्यात्मयाजी ध्यानी उपासक भी अभ्यास और वैराग्य के स्वाध्याय—जप और योग—अर्थभावन के सम्मिश्रण से विश्वाकाश समस्त संसार में व्याप्त परमात्मा को अपने अन्दर प्रकाशित कर सकता है “स्वाध्याद् योगमासीत योगात् स्वाध्यायमामनेत्। स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते” [योग॰ १.२८ व्यासः] अतः मैं आत्मसमर्पी ध्यानी उपासक भी परमात्मन्! तुझे अपने अन्दर साक्षात् कर सकूँगा तुझे अपने अन्दर आमन्त्रित करता हूँ॥८॥
टिप्पणी
[*8. “भृगुर्भृज्यमानो न देहे” (निरु॰ ३.१७)।]
विशेष
ऋषिः—भार्गवः प्रयोगः (अध्यात्म अग्नि प्रज्वलान*8 में कुशल प्रयोग कर्ता उपासक)॥<br>
विषय
तीन उपासक
पदार्थ
इस मन्त्र में कहा है कि और्व की भाँति, भृगु की भाँति और अप्नवान् की भाँति शुचि, अग्नि और समुद्रवासस् प्रभु को आहुवे - आह्वयामि = पुकारता हूँ। वैदिक संस्कृति में एक नियम है–उपासना का ठीक प्रकार यही है कि उपास्य जैसा बनने का यत्न किया जाए। ('विष्णुर्भूत्वा भजेद् विष्णुम्')= विष्णु बनकर ही विष्णु की उपासना की जाती है।
इसी नियम के अनुसार मन्त्र में प्रथम बात यह कही गयी है कि वे प्रभु (शुचिम्)= निर्मल हैं। उनकी उपासना और्व बनने से होगी। और्व शब्द का अर्थ है उरोरपत्यम्-उरु की सन्तान-विशाल का पुत्र अर्थात् अत्यन्त उदार हृदयवाला । 'शुचि' प्रभु का उपासक तो वही है जो विशाल हृदय रखता है, जिसके हृदय में अपकारियों के लिए भी स्थान है।
द्वितीय, उपासक ‘भृगु' है जो 'अग्नि' की उपासना करता है। प्रभु ज्ञानाग्नि के पुञ्ज हैं। उनकी उपासना आचार्य के समीप रहकर तपस्या की अग्नि में अपना परिपाक करके ज्ञानी बननेवाला भृगु [भ्रस्ज पाके] ही करता है।
तृतीय, उपासक ‘अप्नवान्' है जो ‘समुद्रवासस्' को अपना उपास्य बनाता है। ‘अप्न’ शब्द निघण्टु मे कर्मवाचक है, ‘वान्' का अर्थ कोश में Living= जीवन है। एवं Activity is Life=क्रिया ही जीवन है, इस तत्त्व को अपने जीवन में अनूदित करनेवाला व्यक्ति ‘अप्नवान्’ है। ‘वान्' शब्द का अर्थ weaving = बुनना भी है, अतः जिसका जीवन कर्मों के ताने-बाने से बुने वस्त्र के समान है वही 'अप्नवान्' है। यही ‘समुद्रवासस्' प्रभु का उपासक है। मुद्-हर्ष। स=सहित । सदा आनन्द के साथ निवासवाले वे प्रभु समुद्रवासस् हैं। वे वस्तुतः आनन्दमय हैं। (‘स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च')= क्रिया उनका स्वभाव है, यही उनकी आनन्दमयता का रहस्य है। मनुष्य भी अप्नवान् = क्रियामय जीवनवाला बनकर आनन्द में
निवास कर सकता है। अप्नवान् से पूर्व भृगु का उल्लेख ज्ञानपूर्वक क्रिया का संकेत कर रहा है। हम ज्ञानी बनकर कर्म करें, यही आनन्द प्राप्ति का साधन है। उस समय हमारे सब कर्म उदार व पवित्र होंगे, उनमें शुचिता होगी और उनका परिणाम वास्तविक आनन्द का लाभ होगा।
भावार्थ
हम विशाल हृदय बनें, तपस्या में अपना परिपाक कर ज्ञान का संचय करें तथा क्रियाशीलता को ही जीवन समझें। इसी प्रकार हम इस मन्त्र के ऋषि 'प्रयोग' – उत्तम कर्मों में कुशलतावाले बनेंगे, या प्र= प्रकृष्ट, योग- उपासनावाले होंगे। ऐसा बनना ही प्रभु की सच्ची उपासना है।
विषय
परमेश्वर की स्तुति
भावार्थ
भा० = ( समुद्रवाससम् १) = समुद्र, आकाश में व्यापक ( शुचिम् ) = शुद्ध ( अग्निम् ) = अग्नि, ईश्वर को ( और्वभृगुवत् अप्नवानवद् ) = और्वभृगु पृथ्वी के गर्भगत और अप्नवान अर्थात् ओषधि रसों में विद्यमान अग्नि के समान ( आहुवे ) = स्मरण करता=जानता हूं ।
'और्वभृगु ' अग्नि पृथ्वी के गर्भ में रह कर समस्त पदार्थों को अपने ताप से भर्जन करती और पकाती है। 'अप्नवान' अग्नि रसों और ओषधियों में शान्त भाव से रहती है और रस, अम्ल क्षार रूप में प्रकट होती है । उसी प्रकार तेजोमय कान्तिमान् ईश्वर को समस्त ब्रह्माण्ड में सामर्थ्य रूप में जानना चाहिये ।
टिप्पणी
१. समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम, नि० १ । ३
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - प्रयोग:।
छन्द: - गायत्री।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ कीदृशं परमात्मानमहमाह्वयामीत्याह।
पदार्थः
प्रथमः—परमात्मपरः। अहम् (और्वभृगुवत्) उर्व्या पृथिव्यां भवाः पदार्था और्वाः, तान् भृज्जति भर्जति वा स और्वभृगुः सूर्यः, तमिव, (अप्नवानवत्) अप्नांसि कर्माणि वन्यन्ते सेव्यन्ते येन सोऽप्नवानः गमनशीलो वायुः, तमिव च। अप्न इति कर्मनाम। निघं० २।१। वन सम्भक्तौ। (शुचिम्) पवित्रं पवित्रतादायकं च, शुचिर् पूतीभावे। (समुद्रवाससम्) हृदयाकाशे ब्रह्माण्डकाशे वा निवसन्तम्। समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम। निघं० १।३। वस निवासे। (अग्निम्) ज्योतिष्मन्तं ज्योतिष्प्रदं च परमात्मानम्। (आहुवे) आह्वयामि। ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च। बहुलं छन्दसि। अ० ६।१।३४ इति सम्प्रसारणे रूपम् ॥ अथ द्वितीयः—विद्युत्परः। विद्युत्प्रयोगविषयमाह। अहम् (और्भृगुवत्) और्वभृगुः सूर्यः तमिव, यथाहं सूर्याग्निमाह्वयामि, सूर्यतापं यन्त्रेषु संगृह्णामि तथेत्यर्थः। (अप्नवानवत्) अप्नांसि) पाकादिकर्माणि वन्यन्ते सेव्यन्ते येन सोऽप्नवानः पार्थिवाग्निः, तमिव, यथाहं पार्थिवाग्निमाह्वयामि, यन्त्रेषु संगृह्णामि तथेत्यर्थः, (शुचिम्) दीप्तम्। शुच दीप्तौ। (समुद्रवाससम्२) अन्तरिक्षनिवासिनम् (अग्निम्) वैद्युताग्निम् (आहुवे) आह्वयामि, प्रकाशं प्राप्तुं, यानादिषु च प्रयोक्तुं स्वसकाशम् आनयामि ॥८॥ अत्रोपमा श्लेषश्चालङ्कारः ॥८॥
भावार्थः
यथा सूर्यो वायुश्च शुचिः, शुचिकारकः, सर्वेषां जीवनाधारश्च, तथैव परमात्मापि। यथा सूर्यो वायुश्चाकाशे निवसति, तथैव परमात्मा हृदयाकाशे विश्वब्रह्माण्डाकाशे च। तादृशः परमात्मा सर्वैः साक्षात्करणीयः, किं च सूर्याग्निना वैद्युताग्निना च यानादीनि चालनीयानि ॥८॥ यथा और्वः ऋषिः यथा च भृगुर्ऋषिः यथा च अप्नवान आह्वयति तद्वदहमपि शुचिम् आहुवे आह्वयामीति वि०। तदेव भरतस्वामिनोऽभिमतम्। सायणमते तु और्वभृगुः इत्येकं नाम। तत्सर्वमसंगतं, सृष्ट्यादौ प्रादुर्भूतेषु वेदेषु पश्चाद्वर्तिनाम् ऋष्यादीनामितिहासस्यासंभवात् ॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।१०२।४। २. समुद्र इत्यन्तरिक्षनाम, तत्र निवासो यस्य स समुद्रवासाः, तं समुद्रवाससम्, अन्तरिक्षनिवासमित्यर्थः। वैद्युतात्मा ह्यसौ तत्र निवासति—इति वि०। अग्निं समुद्रवाससं वैद्युतमग्निम् आह्वयामि—इति भ०।
इंग्लिश (4)
Meaning
I invoke God All-Pure, residing in the heart, as do the men of knowledge and action.
Translator Comment
समुद्र means Antriksha, i.e. the heart.^और्वभृगु means, vide Swami Tulsi Ram’s commentary, men of Knowledge, who know the Rgveda. and अप्नवान means the men of action, who knowing the Yajurveda, rightly perform rituals (Karma Kanda).
Meaning
Like a mature and self-disciplined sage and scholar of nature and spirit, I invoke and study Agni, the fire energy, concealed in the sea and the sky and the psychic energy abiding in the mind. (Rg. 8-102-4)
Translation
Linvoke the Omniscient God who pervades the firmanent, the earth and the sea. I invoke Him like the men of true
wisdom and noble actions.
Comments
आऔवेस्गत्रः~ उव्यां प्रथिव्यस्थिता ये भृगत्रः-परिपक्त्रविज्ञाना । स्तपस्विनः ज्ञानकाणिडनः | भ्रगुः--अ्रस्ज-पाक इति धातोः | अप्नवाना:--अप्न इति कम नाम ( निघ० २.१ )कमकाणिडनः कम योगिनोवा |
Translation
The one who is like an austere sage and like an honest toiler, such a pure fire divine pervading the entire space of firmament, I invoke. (Cf. Rv VIII.102.4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (और्व भृगुवत्) ઉર્વી = પૃથિવીમાં ઉત્પન્ન ઔર્વ = ગંધક પોટાસ આદિ ખનિજ પદાર્થો દ્વારા અગ્નિને પ્રકટ કરનારા રાસાયનિક વિદ્વાનોની સમાન-જેમ તે ભૂમિના પદાર્થોથી અગ્નિને પ્રકટ કરે છે. (अप्नवानवत्) મંથનનું સેવન કરનારાઓની સમાન, અથવા બન્ને હાથો, પ્રશસ્ત ભુજાઓવાળા શિલ્પીજન સમાન, અગ્નિને પ્રકટ કરે છે; તેમ હું અધ્યાત્મયજ્ઞકર્તા ઉપાસક આધ્યત્મિક ભૃગુ અને આધ્યાત્મિક અપ્નવાન્ હાથોવાળો બનીને (समुद्रवाससं शुचिम् अग्निम् आहुवे) અન્તરિક્ષ - આકાશ મહાકાશ હે વાસસ્ - જેનું વાસ સ્થાન તે વ્યાપ્ત પરમાત્મા અગ્નિને પ્રદીપ્ત-સાક્ષાત્ આમંત્રિત કરું છું - પ્રાપ્ત કરું છું - પ્રકટ કરું છું.
[આ મંત્રમાં ઔર્વ ભૃગુ અને અપ્ન્વાનની સમાન શુચિ, અગ્નિ અને અન્તરિક્ષ વાસ-વ્યાપ્ત પ્રભુને પ્રાપ્ત કરવાનું વર્ણન છે. અનુ.]
भावार्थ
ભાવાર્થ : જેમ અગ્નિવિદ્યાના નિષ્ણાત વિદ્વાન ગંધક આદિ પદાર્થોના મિશ્રણથી અથવા ચકમક પર લોઢાના ઘર્ષણ-રગડવાથી અથવા અરણીના લાકડાના મંથનથી અગ્નિને પ્રકટ કરે છે; “તેમ અધ્યાત્મયાજ્ઞિક ધ્યાની ઉપાસક પણ અભ્યાસ અને વૈરાગ્યના સ્વાધ્યાય, જપ અને યોગ-અર્થ ભાવનના મિશ્રણથી વિશ્વાકાશ-સમસ્ત સંસારમાં વ્યાપ્ત પરમાત્માને મારી અંદર પ્રકાશિત કરી શકું છું."
તેથી હું આત્મ સમર્પણ કરનાર ધ્યાની ઉપાસક પણ હે પરમાત્મન્ ! તને મારી અંદર સાક્ષાત્ કરી શકીશ; તને મારી અંદર આમંત્રિત કરું છું. (૮)
उर्दू (1)
Mazmoon
پربُھو کا آہ وان
Lafzi Maana
(مدُرواس سم) زمینی سمندر، آسمانی سمندر (آکاش) اور ہردیہ ساگر میں بسنے والے (شُچےم) شدھ اور تیجسوی (اگنےم) پرکاش روپ جگت پتی رہنمائے دُنیا کا (آہُوے) شردھا بھرے دِل میں آہ واہن کرتا ہوں، بُلاتا ہوں جو (اؤرّو بھرےگووت) زمین کے اندر پدارتھوں کو پکانے والے سُورج تاپ اگنی کی طرح اور (اپن وان وت) اَوشدھی رسوں میں موجود اگنی کی طرح موجود ہے۔ اُس کو میں کرم یوگیوں کے سمان پکارتا ہوں۔
Tashree
تشریح: ایک اگنی پرتھوی کے گربھ میں رہ کر تمام اشیاء کو اپنے تاپ سے پکاتی ہے، تو دوسری اگنی پیڑ، پودوں، اوشدھیوں، پُھول، پھلوں میں شانت بھاؤ سے رہتی ہوئی اُن کے اندر مٹھاس، کھٹاس، نمکین اور تلخ وغیرہ چھ رسوں کے رُوپ میں ظاہر ہوتی ہے۔ اِسی طرح وہ ورمیشور اگنی سارے برہمانڈ میں رہا ہوا ہے۔
جیوں تِل ماہیں تیل ہے جیوں چقمق میں آگ،
تیرا صاحب تُجھ میں بسے جاگ سکے تو جاگ۔
اِس لئے کرم یوگ تپ اور ریاضت سے اُسے من میں پکارتے رہتے ہیں۔
چُپکے چُپکے جو کوئی دِل سے دُعا کرتا ہے،
اُس کی منظور یقیناً وہ خدا کرتا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे सूर्य व वायू पवित्र व सर्वांचे जीवनाधार आहेत, तसाच परमात्मा आहे. जसे सूर्य व वायू आकाशात निवास करतात, तसेच परमात्मा हृदयाकाशात व विश्वब्रह्मांडाच्या आकाशात निवास करतो, अशा परमात्म्याचा सर्वांनी साक्षात्कार केला पाहिजे. तसेच सूर्याग्नी, पार्थिवाग्नी व वैद्युत अग्नीद्वारे यान इत्यादी चालविले पाहिजेत. ॥८॥
टिप्पणी
जसे और्व ऋषी, भृगु ऋषी व अप्नवान ऋषी शुची अग्नीला बोलावितात, तसेच मी बोलवीत आहे, ही विवरणकाराची व्याख्या आहे. भरतस्वामींचाही हाच अभिप्राय आहे. सायणने और्व व भृगु वेगवेगळी नावे न मानता एक और्वभृगु नावाने मानलेले आहे. हे सर्व व्याख्यान असंगत आहे. कारण सृष्टीच्या आरंभी प्रादुर्भूत वेदांमध्ये पश्चाद्वर्ती ऋषी इत्यादींचा इतिहास होऊ शकत नाही ॥
विषय
आता, मी कशा परमेश्वराचे आवाहन करीत आहे. हे सांगतात.
शब्दार्थ
मी (और्वभृगुवत्) पार्थिव पदार्थांना तप्त करणाऱ्या सूर्याप्रमाणे आणि (अप्नवानवत्) क्रियासेवी गमनशील वायूप्रमाणे (शुचिम्) स्वत: पवित्र तसेच पवित्रताकारक आणि (समुद्रवाससम) हृदयाकाशामध्ये तसेच ब्रह्माण्डाकाशामध्ये निवास करणाऱ्या (अग्निम्) ज्योतिष्यान् व ज्योतिप्रद परमात्म्यास (आहुवे) हाक देत आहे. ।।८।। द्वितीय अर्थ : विद्युत परक विद्युते विषयी सांगतात मी (और्वभृगुवत्) जसे सूर्याचा म्हणजे सूर्याच्या उष्णतेचा मंत्रादीमध्ये उपयोग करतो आणि (अप्नवानवत्) पाककर्म आदी कार्यांसाठी पार्थिव अग्नीचा यंत्रादीमध्ये उपयोग करतो, तसेच (शुचिम्) प्रदीप्त (समुद्रवाससम) अंतरिक्षात असणाऱ्या वैद्युत अग्नीचा (आहुवे) प्रकाशासाठी व यानादीमध्ये वापर करण्यासाठी (आहुवे) जवळ आणत आहे. (शक्ती वा ऊर्जा म्हणून त्याचा उपयोग करीत आहे.) ।।८।। या मंत्रात उपमा आणि श्लेष अलंकार आहेत. ।।८।।
भावार्थ
ज्याप्रमाणे सूर्य आणि वायू पवित्र असून शुद्धीकारक आहेत, सर्वांचे जीवनाधार आहेत, तद्वत परमेश्वरही तसाच आहे. जसे सूर्य आणि वायू आकाशात राहतात, तसेच परमेश्वरही हृदयाकाशात आणि विश्व ब्रह्माण्डाकाशात आहे. अशा परमेश्वराचा सर्वांनी साक्षात्कार केला पाहिजे. याशिवाय सूर्याग्नी, पार्थिवाक्षी आणि वैद्युताग्नीद्वारा यान आदींचे संचालन केले पाहिजे. ।।८।। जसे और्वऋषि, भृगुऋषि आणि अप्नवान ऋषि शुचि अग्नीला आमंत्रित करतात, तसेच मीही बोलावत आहे विवरणकाराने या मंत्राची अशी व्याख्या केली आहे. भरतस्वामींनीही हाच अर्थ ग्रहीत केला आहे. सायणाचार्य ने और्व आणि भृगु ही वेगळी नावे न मानता एकच नाव और्वभृगु असे रूप केले आहे. वरील ही सर्व व्याख्याने असंगत आहेत. कारण की सृष्टीच्या आरंभकाळात प्रादुर्भाव वेदांमध्ये पश्चाद्ववर्ती ऋषी आदींचा इतिहास असणे शक्य नाही. ।।
विशेष
(या मंत्राचे दोन अर्थ आहेत.) (प्रथम अर्थ परमात्मपरक)
तमिल (1)
Word Meaning
கடல் உடை அணிந்த சுத்த அக்னியை [1] ()ஔர்வ பிருகுவைப் போல் [2] (அப்ன வானவனை)ப் போல் நான் அழைக்கிறேன்.
FootNotes
[1] ஔர்வ பிருகுவைப் போல் - நிலத்தில் உள்ள அனலை
[2] அப்ன வானவனைப் போல் - நீரிலுள்ள அக்னியை
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