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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 305
ऋषिः - अश्विनौ वैवस्वतौ देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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कु꣢ष्ठः꣣ को꣡ वा꣢मश्विना तपा꣣नो꣡ दे꣢वा꣣ म꣡र्त्यः꣢ । घ्न꣣ता꣡ वा꣢मश्न꣣या꣡ क्षप꣢꣯माणो꣣ꣳशु꣢ने꣣त्थ꣢मु꣣ आ꣢द्व꣣न्य꣡था꣢ ॥३०५

स्वर सहित पद पाठ

कु꣢ । स्थः꣣ । कः꣢ । वा꣣म् । अश्विना । तपानः꣢ । दे꣢वा । म꣡र्त्यः꣢꣯ । घ्न꣣ता꣢ । वा꣣म् । अश्नया꣢ । क्ष꣡प꣢꣯माणः । अं꣣ऽशु꣡ना꣢ । इ꣣त्थ꣢म् । उ꣣ । आ꣢त् । उ꣣ । अन्य꣡था꣢ । अ꣣न् । य꣡था꣢꣯ ॥३०५॥


स्वर रहित मन्त्र

कुष्ठः को वामश्विना तपानो देवा मर्त्यः । घ्नता वामश्नया क्षपमाणोꣳशुनेत्थमु आद्वन्यथा ॥३०५


स्वर रहित पद पाठ

कु । स्थः । कः । वाम् । अश्विना । तपानः । देवा । मर्त्यः । घ्नता । वाम् । अश्नया । क्षपमाणः । अंऽशुना । इत्थम् । उ । आत् । उ । अन्यथा । अन् । यथा ॥३०५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 305
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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भावार्थ -

भा० = [ प्र० १ ] हे ( अश्विनी ) = देह में व्यापक प्राण और अपान ( वाम् ) = आप दोनों ( कुस्थ: ) = कहां स्थित हो ? [ प्र० २ ] ( वाम् ) = आपको ( कोः मर्त्यः ) = कौन मरणधर्मा पदार्थ ( तपानः ) = तप्त करता है। [ उत्तर १ ] ( वाम् ) = आप दोनों ( अश्नया ) = शरीर की भोजन करने की शक्ति द्वारा ( घ्नता ) = ताड़ित होकर गति करते हो । [ उ० २ ] ( यथा आद्वन् ) = जिस प्रकार भोगों और ऐश्वर्यो का भोक्ता  राजा, शासक ( अंशुना ) = अपने समस्त देशव्यापी बल से ( क्षयमाणः ) = देश भर में विराजमान होकर भृत्यों को चलाता है और तपाता है ( इत्थम् उ ) = उसी प्रकार ( आद्वन् ) = व्यापक आत्मा ( क्षयमाणः ) = देह में रहकर ( अंशुना ) = अपने व्यापक भोग-कर्म शक्ति द्वारा आप दोनों को तपाता है, गति देता है। और ( अश्नया ) = अशना और पिपासा द्वारा आप दोनों ( घ्नता ) = पीड़ित होकर उसके शासन में गति करते हो । ( इसका विवरण देखो बृह० उप० अ० १, ब्राह्मण २ )

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - अश्विनौ वैवस्वतौ।

देवता - अश्विनौ।

छन्दः - बृहती।

स्वरः - मध्यमः। 

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