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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 305
    ऋषिः - अश्विनौ वैवस्वतौ देवता - अश्विनौ छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    38

    कु꣢ष्ठः꣣ को꣡ वा꣢मश्विना तपा꣣नो꣡ दे꣢वा꣣ म꣡र्त्यः꣢ । घ्न꣣ता꣡ वा꣢मश्न꣣या꣡ क्षप꣢꣯माणो꣣ꣳशु꣢ने꣣त्थ꣢मु꣣ आ꣢द्व꣣न्य꣡था꣢ ॥३०५

    स्वर सहित पद पाठ

    कु꣢ । स्थः꣣ । कः꣢ । वा꣣म् । अश्विना । तपानः꣢ । दे꣢वा । म꣡र्त्यः꣢꣯ । घ्न꣣ता꣢ । वा꣣म् । अश्नया꣢ । क्ष꣡प꣢꣯माणः । अं꣣ऽशु꣡ना꣢ । इ꣣त्थ꣢म् । उ꣣ । आ꣢त् । उ꣣ । अन्य꣡था꣢ । अ꣣न् । य꣡था꣢꣯ ॥३०५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुष्ठः को वामश्विना तपानो देवा मर्त्यः । घ्नता वामश्नया क्षपमाणोꣳशुनेत्थमु आद्वन्यथा ॥३०५


    स्वर रहित पद पाठ

    कु । स्थः । कः । वाम् । अश्विना । तपानः । देवा । मर्त्यः । घ्नता । वाम् । अश्नया । क्षपमाणः । अंऽशुना । इत्थम् । उ । आत् । उ । अन्यथा । अन् । यथा ॥३०५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 305
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताया है कि किस कारण से उक्त अश्वी तप्त या रुष्ट होते हैं।

    पदार्थ

    हे (देवा) दानादि गुणों से युक्त, तेज से प्रकाशमान (अश्विना) परमात्मा-जीवात्मा और अध्यापक-उपदेशको ! (युवाम्) तुम (कु) कहाँ (स्थः) हो? (कः मर्त्यः) कौन मनुष्य (वाम्) तुम्हें (तपानः) संतप्त करनेवाला है? तुम कहाँ हो? प्रेरणा, शिक्षण या उपदेश क्यों नहीं करते हो? क्या रुष्ट हो? तुम्हारे रोष का क्या कारण है? आगे स्वयं ही उत्तर देता है—प्रथम—परमात्मा-जीवात्मा के पक्ष में—(अश्नया) मन में व्याप्त, (वाम् घ्नता) तुम्हारे पास पहुँचनेवाले (अंशुना) ज्ञान-कर्म-श्रद्धारूप सोमरस से (क्षपमाणः) तुम्हें वंचित करनेवाला ही तुम्हारा संतापक है । द्वितीय—अध्यापक-उपदेशक के पक्ष में। (अश्नया) भूख से (घ्नता) पीड़ित (वाम्) तुम्हें (अंशुना) भोजन, वस्त्र, वेतन आदि देयांश से (क्षपमाणः) वंचित करनेवाला ही तुम्हारा संतापक है। आगे अभयपक्ष में—(इत्थम् उ) ऐसा ही है न? (आत् उ) अथवा (अन्यथा) इससे भिन्न अन्य ही कोई तुम्हारे संताप और रोष का कारण है? अभिप्राय यह है कि अन्य कोई कारण नहीं हो सकता ॥३॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा और जीवात्मा रूप अश्वी सदा मनुष्यों के हृदय में बैठे हुए हैं। जो ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, भक्ति आदि का सोमरस यथायोग्य उन्हें अर्पित करता है, उसे वे सदा सत्प्रेरणा देते रहते हैं। पर जो उनकी उपेक्षा करता है उससे वे रुष्ट के समान हो जाते हैं। उसी प्रकार जो शिक्षण और उपदेशों से उपकार करनेवाले अध्यापक और उपदेशक को दक्षिणारूप में भोजन-वस्त्र आदि अथवा निश्चित वेतन नहीं देता, वह उनके प्रति अपराध करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (अश्विना देवा) हे परमात्मा के ज्ञानप्रकाश और आनन्दरस देवो! (कः कुष्ठः-मर्त्यः) कौन पृथिवीस्थ—प्रथित संसार का मरणशील नश्वर पदार्थ (वां तपानः) तुम्हारा तापक—अभिभूत करने वाला है? कोई नहीं (वाम्) तुम्हारा (अश्नया घ्नता-अंशुना) व्यापने वाले तुम्हें प्राप्त होने वाले उपासनारस से “हन् हिंसागत्योः” [अदादि॰] ‘इत्यत्र गत्यर्थो हन् धातुः’ (इत्थम्-उ) (यथा-आद्वन्-क्षपमाणः) ऐसे ही जैसे अन्न आदि भोजन साधनवान् ऐश्वर्यशाली होता है “क्षयति-ऐश्वर्यकर्मा” [निघं॰ २.२१] (इत्थम्-उ) ऐसे ही ऐश्वर्यशाली होते हैं।

    भावार्थ

    हे परमात्मा के ज्ञानप्रकाश और आनन्दरस दिव्य धर्मो! इस प्रथित संसार में मरणधर्मी नश्वर पदार्थ कौन है? अर्थात् कोई नहीं जो तुम्हारा तापक—विरोधी अभिभूत करने वाला हो, अपितु व्यापने वाले तुम्हें प्राप्त होने वाले उपासनारस से तुम ऐसे ऐश्वर्यशाली बन जाते हो जैसे भोजन साधन वाला जन ऐश्वर्यशाली हो जाता है, अतः मेरे उपासनारस से प्रभु के ज्ञानप्रकाश और अमृतानन्द तुम मेरे अन्दर बढ़ते रहो॥३॥

    विशेष

    <br>देवताः—‘अश्विनौ’ इन्द्रसम्बद्धौ (परमात्मा के प्रकाश और आनन्द गुणस्वरूप)॥

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    विषय

    इस प्रकार भी, उस प्रकार भी

    पदार्थ

    प्राणापान की साधना करनेवाला व्यक्ति प्राणापान का पुँज बनकर यहाँ 'अश्विनौ' इस नामवाला ही हो गया है- प्राणापान ने इसके अन्धकार को विवासित कर इसे 'वैवस्वतौ' इस यथार्थ नामवाला किया है। ज्ञान के सूर्य से चमकने के कारण यह 'विवस्वान्' तो है ही। यह (कुष्ठः)=इस पृथिवी पर स्थित हुआ- हुआ भी (कः) = कोई विरला ही (मर्त्यः) = व्यक्ति (अश्विना)= प्राणापानो! हे (देवा:) = ज्ञान की दीप्ति देनेवाले! (वाम्) = आप दोनों के (तपान:) = दीप्ति करने के स्वभाववाला (वाम्) = आपकी (घ्नता अश्नया) = सब दोषों को नष्ट करनेवाली व्याप्ति से (क्षयमाणः) = शरीर के रोगों को, मन के दोषों को और बुद्धि की कुण्ठता को नष्ट करता हुआ (अंशुना) = प्रकाश की किरणों से (उ) = निश्चय से (इत्थम्) = ऐसे तो चमकता ही है जैसे कि इहलोक में कोई स्वस्थ, सम्पन्न, सबल व्यक्ति चमका करता है, परन्तु इसके (आत उ) = साथ ही [अपि च] (अन्यथा) = उस विलक्षण [अन्य=विलक्षण] रीति से भी शोभायमान होता है जिससे कि कोई सात्त्विक आध्यात्मिक उन्नति सम्पन्न व्यक्ति चमका करता है, अर्थात् यह प्राणापान को दीप्त करनेवाला व्यक्ति अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों को सिद्ध करनेवाला होता है। प्रेय व श्रेय दोनों का इसके जीवन में उचित समन्वय होता है। यह इहलोक व परलोक दोनों का कल्याण प्राप्त करता है। प्राणापान की साधना इसे प्रभुता के आकर्षण से बचाकर प्रभु की ओर ले जाती है। प्रभु की प्राप्ति इसे प्रभुता तो प्राप्त करा ही देती है।

    ‘तपान:' संकेत कर रहा है कि प्राणापान की साधना हमारा स्वभाव बन जाए, उसके बिना हम रह ही न सकें। 'अशुना' शब्द संकेत करता है कि यह साधना हमें दीप्त करेगी। सूर्य की किरणों की भाँति हम भी ज्ञान की किरणोंवाले होंगे । 'घ्नता अश्नया' से स्पष्ट है कि जहाँ-जहाँ इनका संयम करेंगे वहाँ-वहाँ ये दोषों को दग्ध कर देंगे, परन्तु इस पृथिवी पर कोई विरला व्यक्ति ही इस साधना में तत्पर होता । प्राणापान हमारे भोजन को सूक्ष्म करता हुआ हमें भौतिकता से ऊपर उठाता है। ('कण्ठकूपे क्षुत्पिपासा निवृतिः') = इस योगसूत्र के अनुसार तो हम सचमुच 'अब्भक्ष' और 'वायुभक्ष' बनकर पार्थिवता से ऊपर ही उठ जाते हैं। हमें द्युलोक में पहुँचना तो है ही, अतः इस साधना को अपनाना ही ठीक है।

    भावार्थ

    प्राणापान की साधना से मैं ऐसे भी चमकूँ और वैसे भी।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = [ प्र० १ ] हे ( अश्विनी ) = देह में व्यापक प्राण और अपान ( वाम् ) = आप दोनों ( कुस्थ: ) = कहां स्थित हो ? [ प्र० २ ] ( वाम् ) = आपको ( कोः मर्त्यः ) = कौन मरणधर्मा पदार्थ ( तपानः ) = तप्त करता है। [ उत्तर १ ] ( वाम् ) = आप दोनों ( अश्नया ) = शरीर की भोजन करने की शक्ति द्वारा ( घ्नता ) = ताड़ित होकर गति करते हो । [ उ० २ ] ( यथा आद्वन् ) = जिस प्रकार भोगों और ऐश्वर्यो का भोक्ता  राजा, शासक ( अंशुना ) = अपने समस्त देशव्यापी बल से ( क्षयमाणः ) = देश भर में विराजमान होकर भृत्यों को चलाता है और तपाता है ( इत्थम् उ ) = उसी प्रकार ( आद्वन् ) = व्यापक आत्मा ( क्षयमाणः ) = देह में रहकर ( अंशुना ) = अपने व्यापक भोग-कर्म शक्ति द्वारा आप दोनों को तपाता है, गति देता है। और ( अश्नया ) = अशना और पिपासा द्वारा आप दोनों ( घ्नता ) = पीड़ित होकर उसके शासन में गति करते हो । ( इसका विवरण देखो बृह० उप० अ० १, ब्राह्मण २ )

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - अश्विनौ वैवस्वतौ।

    देवता - अश्विनौ।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ केन हेतुना तावश्विनौ तप्तौ रुष्टौ वा भवत इत्याह१।

    पदार्थः

    हे (देवा) देवौ दानादिगुणयुक्तौ, तेजसा दीप्यमानौ (अश्विना) अश्विनौ परमात्मजीवात्मानौ अध्यापकोपदेशकौ वा ! उभयत्र ‘सुपां सुलुक्०’—अ० ७।१।३९ अनेन औ इत्यस्य आकारः। युवाम् (कु२) कुह। कु तिहोः। अ० ७।२।१०४ इति किमः कुः आदेशः, प्रत्ययस्य छान्दसो लुक्। (स्थः) वर्तेथे ? संहितायाम् पूर्वपदात् अ० ८।३।१०६ इति सकारस्य मूर्धन्यादेशः। (कः मर्त्यः) को मनुष्यः (वाम्) युवाम् (तपानः३) सन्तापयन् भवतीति शेषः ? युवां कुत्र स्थः किमिति प्रेरणां शिक्षणमुपदेशं च न प्रयच्छथः ? किमु रुष्टौ स्थः ? किं वां रोषहेतुः ? अथ स्वयमेवोत्तरति। प्रथमं परमात्मजीवात्मपक्षे—(अश्नया) अश्नेन मनसि व्याप्तेन। अशूङ् व्याप्तौ। ‘सुपां सुलुक्०’ इति तृतीयैकवचनस्य या आदेशः। (वाम् घ्नता) युवां प्रतिगच्छता। हन हिंसागत्योः, शतरि रूपम्. (अंशुना) ज्ञान-कर्म-श्रद्धारूपेण सोमरसेन, युवाम् (क्षपमाणः४) वञ्चितं कुर्वन् एव वां तपानोऽस्ति इत्यहमवैमि। अथ अध्यापकोपदेशकपक्षे—(अश्नया५) अशनया बुभुक्षया। अकारलोपश्छान्दसः, यद्वा अशनाया अर्थे अश्ना शब्दः स्वतन्त्रो वेदे प्रयुक्त इति ज्ञेयम्। (घ्नता) घ्नतौ हतौ। द्वितीया-द्विवचनस्य ‘सुपां सुलुक्’ इति आकारादेशः। (वाम्) युवाम् (अंशुना) भोजनाच्छादनवेतनादिना देयांशेन (क्षपमाणः) वञ्चितं कुर्वन् जन एव वां संतापकोऽस्ति। क्षप प्रेरणे चुरादिः, शानच्। अथ उभयपक्षे—(इत्थम् उ) एवमेव विद्यते, ममानुमानं सत्यमस्ति ? (आत् उ६) यद्वा (अन्यथा) एतद्भिन्नम्, युवयोः तापस्य रोषस्य च कारणं किमप्यन्यदेवास्ति ? न किमप्यन्यत् संभवतीति भावः ॥३॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥

    भावार्थः

    परमात्मजीवात्मरूपौ अश्विनौ सदा जनानां हृदये संनिविष्टौ स्तः। यो ज्ञानकर्मश्रद्धादिरूपं सोमरसं यथायोग्यं ताभ्यामर्पयति, तस्मै तौ सदा सत्प्रेरणां प्रयच्छतः। परं यस्तयोरुपेक्षां करोति तं प्रति तौ रुष्टाविव तिष्ठतः। तथैव यो शिक्षणोपदेशैरुपकुर्वद्भ्यामध्यापकोपदेशकाभ्यां दक्षिणारूपेण भोजनाच्छादनादिकं निश्चितं वेतनं वा नार्पयति स ताभ्यामपराध्यति ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. अश्विनोः स्तूयमानयोः आगमनविलम्बात् विचिकित्सेयम्—इति भ०। २. कु ष्ठः कुत्र स्थो युवाम्—इति भ०। विवरणकृता सायणेन च ‘कुष्ठः’ इति समस्तपदत्वेन व्याख्यातम्। ‘कुः पृथिवी तस्यां स्थितः कुस्थः’—इति वि०। कौ पृथिव्यां वर्तमानः को मर्त्यः—इति सा०। ३. कः वां युवां हे अश्विनौ तपानः तापयमानः—इति वि०। को मर्त्यः वां युवां क्षपमाणः भवति अस्मान् प्रहापयन् भवति। तपानः तप आचरन्—इति भ०। ४. क्षयमाणः इति पाठान्तरम्। सायणेन तदनुसृत्यैव व्याख्यातम्। ५. अश्नया क्षुधा—इति वि०। अश्नया अश्न शब्दाद् द्वितीयाद्विवचनस्य या आदेशः। अश्नौ व्यापकौ युवाम्। अश्नोतेरश्नौ। ‘तस्य भ्राता मध्यमोऽस्त्यश्नः’ ऋ० १।१६४।१ इति हि निगमः। अथवा अश्नया अशनया फलेच्छयेति—भ०। ६. सायणेन ‘आद्वन्’ इत्येकं पदं स्वीकृत्य अभिमतान्नरसादिभक्षणवान् राजादिरिवेति व्याख्यातम्। तत्तु पदकारविरुद्धम्, तत्र ‘आत् उ अन्यथा’ इति पाठात्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Pran and Apan, Ye gods, what mortal man can satisfy Ye? Continual lessening of the quantity of food, harasses Ye with hunger and thirst. Proper feeding keeps Ye intact.

    Translator Comment

    In the first part there is a question, and in the latter an answer. If the body is not properly fed, Prana and Apana, and intellect deteriorate and become weak. Food keeps the vital breaths in order. He who underfeeds himself lowers his intellect and the vitality of his breaths. Prana is the in-going and Apana the outgoing breath.^Griffith writes, the stanza is obscure, and some words of the text seem corrupt. These remarks are inapt, as the verse is clear in meaning.

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    Meaning

    O divine Ashwins, sun and moon, who on earth is the mortal that can give the refulgence you have? None. And would you abandon the man living on earth, extracting soma and regaling you with the nectar radiating from sun, beaten by thunder, and showered by clouds on earth this way or otherwise?

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अश्विना देवा) હે પરમાત્માના જ્ઞાનપ્રકાશ અને આનંદરસ દેવો ! (कः कुष्ठः मर्त्यः) કોણ
    પૃથિવી પર-સ્થિત સંસારના મરણશીલ નશ્વર પદાર્થ (वां तपानः) તમને તાપક-અભિભૂત કરનાર છે ?
    કોઈનહીં. (वाम्) તમને (अश्नया घ्नता अंशुना) વ્યાપનાર તમને પ્રાપ્ત થનાર ઉપાસનારસથી (इत्थम् उ यथा आद्वन् क्षपमाणः) જેમ અન્ન આદિ ભોજન સાધનવાન મનુષ્ય ઐશ્વર્યવાન બને છે. (૩)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે પરમાત્માના જ્ઞાનપ્રકાશ અને આનંદરસ દિવ્ય ધર્મો ! આ સ્થિત સંસારમાં મરણધર્મી નશ્વર પદાર્થ કોણ છે ? અર્થાત્ કોઈ નથી. જે તમારા તાપક-વિરોધી અભિભૂત કરનાર છે, પરન્તુ વ્યાપનાર—તમને પ્રાપ્ત થનાર ઉપાસનારસથી તમે એવા ઐશ્વર્યવાન બની જાઓ છો, જેમ ભોજનના સાધનથી સંપન્ન જન ઐશ્વર્યવાન બની જાય છે, તેથી મારા ઉપાસનારસથી પ્રભુના જ્ઞાનપ્રકાશ અને અમૃતાનંદ તમે મારી અંદર વૃદ્ધિ પામતા રહો. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    کون مُستحق ہے آپ کے وِصال کا؟

    Lafzi Maana

    (اشوی نا) سُورج اور چندرماں کی طرح پرکاشمان پرمیشور! (کشٹھ کاہ وام) دھرتی کا باسی کون آپ کے اِن سُوریہ چندرماں کے سمان رُوپ کی چاہنا کرتا ہے؟ (دیو) ہے نورِتجّلیٰ کے داتا! جو (مرتیہ پتا ناہ) آدمی اپنے کو تپاتا ہے، تپ، تیاگ اور ریاضت کرتا ہے اور آپ کو پُکارتا بھی رہتا ہے، (گھنتا اشمیا) ساتھ ہی اُسری (شیطانی) خیالات کو پتھر کی طرح پیس دینے والا اور (اشُونا) گیان کی شعاؤں کے ذریعے جو اُپاسک (عابد) اتتھم کہشے مانہ) راکھشی بھاوناؤں کا ناش کرتا ہوا جیسے کہ (یتھا آدون اشمیا) جیسے کہ اَنّ کھانے والا پتھر کی چکی سے اُس کو پیستا ہے وہ ہی آپ کو بُلانے کا مستحق ہے۔

    Tashree

    کون دھرتی پہ ریاضت سے جو تجھ کو پا سکے، اپنی بدکاری کو پتھر مار کے جو مٹا سکے۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमात्मा व जीवात्मारूपी अश्वी (दोन्हींची जोडी) सदैव माणसांच्या हृदयात असतात. जो ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, भक्ती इत्यादींचा सोमरस यथायोग्यरीत्या त्यांना अर्पित करतो त्याला ते सदैव सत्प्रेरणा देत असतात, पण जो त्यांची उपेक्षा करतो त्यांच्यावर ते रुष्ट होतात. त्याचप्रकारे जे शिक्षण व उपदेशाद्वारे उपकार करणारे अध्यापक व उपदेशक यांना दक्षिणारूपात भोजन-वस्र इत्यादी किंवा निश्चित वेतन देत नाही, तो त्यांचा अपराधी असतो. ॥३॥

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    विषय

    अश्विनौ का संत्पत वा रूष्ट होतात ?

    शब्दार्थ

    हे (देवा) दान आदी गुणांनी युक्त, तेजामुले प्रकाशवंत (अश्विना) परमात्मा- जीवात्मा आणि अध्यापक - उपदेशकहो, (युवाम्) तुम्ही (कु) (स्थ) कुठे आहात ? (कः मर्त्यः) कोण माणूस (वाम्) तुम्हाला संतप्त करणारा आहे ?तुम्ही कुठे आहात ? आम्हाला प्रेरणा, शिक्षण वा उपदेश वा करीत नाहीत ? आमच्यावर रागावला आहात का ? तुमच्या रोषाचे काय कारण आहे ? पुढे उपासक /शिष्य स्वतःच उत्तर देतो - प्रथम अर्थ (जीवात्मा परमात्मापर) - (अश्वया) मनात व्याप्त (वाम् घ्नता) तुमच्यापर्यंत येणारा (अंथुना) ज्ञान, कर्म, क्षद्धारूप सोमरसापासून (क्षपमाणः) तुम्हाला वंचित करणारा माणूसच तुमचा संतापक आहे. (जो तुमची भक्ती वा जो मनन- चिंतन करीत नाहीत तोच तुमचा विरोधक आहे.) द्वितीय अर्थ - (अध्यापन- उपदेशकपर) - तुम्ही (अश्नया) भुकेमुळे (घ्नता) व्याकूळ असताना जो (वाम्) तुम्हाला (अंशुना) भोजन, वस्त्र, वेतन आदी देयांशापासून श्रक्षपमाणः) वंचित ठेवणारा मनुष्य आहे, तोच तुमचा संतापक आहे. (पुढे उभयपक्षी) - (इत्थम् उ) असेच आहे ना ? (अत् उ) अथवा (अन्यथा) तुमच्या संतापाचे वा रोषाचे अन्य कोणते तरी कारण आहे ?सारांश - यापेक्षा इतर कोणते कारण असूच शकत नाही.।। ३।।

    भावार्थ

    परमात्मा- जीवात्मारूप अश्वी मनुष्याच्या हृदयात सदा उपस्थित असतात. जो माणूस त्यांना ज्ञान, कर्म, श्रद्धा, भक्ती आदींचा सोमरस यथोचित रूपाने अर्पित करतो, त्याला ते सदैव स्प्रेरणा देत असतात, पण जो कुणी त्यांची उपेक्षा करतो, त्यास ते कष्ट असल्याप्रमाणे होतात. तसेच शिक्षण आणि उपदेश देऊन सर्वांवर उपकार करणाऱ्या अध्यापक- उपदेशकांना जो दक्षिणारूपेण भोजन, वस्त्र आदी देत नाही अथवा त्यांना योग्य वेतन देत नाही, असा माणूस त्यांचा अपराधी जाणावा.।। ३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे ।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (தேவர்களே!) நீங்கள் எங்கே? (அசுவினிகளே!) எந்த மனிதன் நீயன்னியில் பிரகாசமாகிறான். அமிழ்த்தப்படும் மேகத்தால் உன்னைத் தூண்டிக் கொண்டு பொழிந்து பெருகும் சோமனால் அழிபவன் (சோமனால் சின்ன விஷயங்களை அழித்துக் கொள்பவன்) சந்தோஷமுள்ளவனாகிறான், செழிப்புள்ளவனாகிறான்.

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