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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 304
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
39
इ꣣मा꣡ उ꣢ वां꣣ दि꣡वि꣢ष्टय उ꣣स्रा꣡ ह꣢वन्ते अश्विना । अ꣣यं꣡ वा꣢म꣣ह्वे꣡ऽव꣢से शचीवसू꣣ वि꣡शं꣢ विश꣣ꣳ हि꣡ गच्छ꣢꣯थः ॥३०४
स्वर सहित पद पाठइ꣣माः꣢ । उ꣣ । वाम् । दि꣡वि꣢꣯ष्टयः । उ꣣स्रा꣢ । उ꣣ । स्रा꣢ । ह꣣वन्ते । अश्विना । अय꣢म् । वा꣣म् । अह्वे । अ꣡व꣢꣯से । श꣣चीवसू । शची । वसूइ꣡ति꣢ । वि꣡शं꣢꣯विशम् । वि꣡श꣢꣯म् । वि꣣शम् । हि꣢ । ग꣡च्छ꣢꣯थः ॥३०४॥
स्वर रहित मन्त्र
इमा उ वां दिविष्टय उस्रा हवन्ते अश्विना । अयं वामह्वेऽवसे शचीवसू विशं विशꣳ हि गच्छथः ॥३०४
स्वर रहित पद पाठ
इमाः । उ । वाम् । दिविष्टयः । उस्रा । उ । स्रा । हवन्ते । अश्विना । अयम् । वाम् । अह्वे । अवसे । शचीवसू । शची । वसूइति । विशंविशम् । विशम् । विशम् । हि । गच्छथः ॥३०४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 304
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले दो मन्त्रों का देवता ‘अश्विनौ’ है। इस मन्त्र में अश्विनौ के नाम से परमात्मा-जीवात्मा और अध्यापक-उपदेशक की स्तुति की गयी है।
पदार्थ
हे (अश्विनौ) परमात्मा और जीवात्मा अथवा अध्यापक-उपदेशको ! (उस्रा वाम्) आप निवासकों को (इमाः उ) ये (दिविष्टयः) ज्ञान-प्रकाश को चाहनेवाली प्रजाएँ (हवन्ते) पुकार रही हैं। हे (शचीवसू) कर्मरूप और प्रज्ञारूप धनवालो ! (अयम्) यह मैं भी (अवसे) रक्षा के लिए (वाम्) तुम्हें (अह्वे) पुकार रहा हूँ, (हि) क्योंकि, तुम (विशं विशम्) प्रत्येक प्रजा के पास (गच्छथः) जाते हो ॥२॥
भावार्थ
जैसे परमात्मा और जीवात्मा मनुष्यों का मार्गदर्शन करते हैं, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक भी शिक्षा और उपदेश के द्वारा सदाचार का मार्ग दर्शाते हैं। अतः उनकी संगति सबको करनी चाहिए ॥२॥
पदार्थ
(उस्रा-अश्विना) हे इन्द्र ऐश्वर्यवन् परमात्मा के बसाने वाले व्यापनशील ज्ञानप्रकाश और आनन्दरस (वाम्) तुम दोनों को (इमाः-दिविष्टयः) ये दिव्य—अमृत मोक्ष को चाहने वाली प्रजाएँ—उपासक जन (हवन्ते) बुलाते हैं—आकर्षित करते हैं (वाम्) जैसे तुम दोनों को (अवसे) रक्षार्थ (अयम्-अह्वे) यह मैं बुलाता हूँ—आकर्षित करता हूँ वैसे तुम (शचीवसू) प्रज्ञा से वसने वाले (विशं विशं हि गच्छथः) प्रत्येक मनुष्य ही को प्राप्त होते हो।
भावार्थ
हे वसाने वाले परमात्मा के ज्ञानप्रकाश और आनन्दरस धर्मों तुम्हें मोक्ष को चाहने वाले मुमुक्षु उपासक जन अवश्य अपने अन्दर आमन्त्रित करते हैं—आकर्षित करते हैं, सो यह मैं भी अपनी रक्षार्थ तुम्हें आमन्त्रित करता हूँ, वैसे तुम प्रज्ञा से वसने वाले होकर प्रत्येक मनुष्य को प्राप्त होते हो प्रज्ञावान् मनुष्य तुम्हें अपने अन्दर अवश्य धारण करता है॥२॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठ (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवताः—‘अश्विनौ’ इन्द्रसम्बद्धौ (परमात्मा के प्रकाश और आनन्द गुणस्वरूप)॥<br>
विषय
द्युलोक की ओर जानेवाला
पदार्थ
वसिष्ठ कहता है कि हे (उस्त्रा) = उत्तम निवास के देनेवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (इमाः वयः) = इन आपको (उ) = निश्चय से (दिविष्टयः) = स्वर्गलोक की ओर जानेवाले (हवन्ते) = पुकारते हैं, द्युलोक में पहुँचने की कामना से आपकी वे आराधना करते हैं । वस्तुतः प्राणापान की आराधना करनेवाला व्यक्ति ही निःस्वार्थ और दग्धदोष इन्द्रियोंवाला होकर उत्कृष्ट स्थान पर पहुँचा है।
हे (शचीवसू) = प्रज्ञा व शक्तिरूप धनोंवाले प्राणापानो! [शची = प्रज्ञा, शची-कर्म] (अयम्) = यह मैं (वाम्) = आप दोनों को (अवसे) = अपनी रक्षा के लिए (अह्वे) = पुकारता हूँ। प्राणापान मुझे शारीरिक दृष्टिकोण से नीरोग बनाते हैं, मानस दृष्टिकोण से पवित्र और बौद्धिक दृष्टिकोण से तीव्र। शरीर, मन व बुद्धि के दोषों को दूर करनेवाले इन प्राणापानों को मैं क्यों न पुकारूँ? ये प्राणापान (विशं हि गच्छथः) = मेरे अन्दर प्रवेश करनेवाले प्रत्येक शत्रु पर आक्रमण करते हैं। काम-क्रोध आदि हमारे न चाहते हुए भी हममें घुस आते हैं। इसीलिए इन्हें 'विश्वानि'=प्रवेश करनेवाला कहा गया है। यही भावना यहाँ 'विशं' शब्द से दी गई है। मुझ में काम का प्रवेश होता है, मैं दीर्घश्वास लेता हूँ और यह प्राण काम का विध्वंस कर दूर भगा देता है। मुझे क्रोध होने लगता है, गहरा श्वास लेते ही कुछ देर के लिए न जाने क्रोध कहाँ भाग जाता है? एवं, प्राणापान प्रत्येक अवांछनीय भावना को भगा देते हैं।
इस सारी बात का ध्यान करके ही वसिष्ठ 'प्राणापान' की साधना को अपनाता है। मैत्रावरुणि बनकर यह काम, क्रोध से ऊपर उठ जाता है, अतः अगले मन्त्र का ऋषि ही ‘अश्विनौ' हो जाता है। ३०४वें मन्त्र का देवता ३०५वें मन्त्र में ऋषि बन गया है। विष्णु के भक्त को विष्णु बनना ही है, प्राणापान के उपासक ने 'प्राणापान' का पुञ्ज क्यों नहीं बनना?
भावार्थ
प्राणापानों की साधना से हम १. उस्रा = उत्तम निवासवाले, २. अवसे-वासनाओं के आक्रमण से रक्षावाले, ३. शचीवसू - ज्ञान व शक्ति की प्राप्तिवाले ४. दिविष्टय:=द्युलोक में पहुँचनेवाले- - सदा सत्त्वगुण में अवस्थितिवाले बनें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( अश्विनौ ) = अश्विदेवो ! प्राण और अपान शक्तियो ! हे ( उस्रौ ) = वास कराने हारो ! ( इमाः दिविष्टयः ) = ये द्युस्थान या मस्तक में गति करने हारी सात इन्द्रियां ( उ ) = भी ( वां ) = आप दोनों की ( हवन्ते ) = महिमा को बतलाती हैं । ( अयं ) = यह मैं आत्मा या मन ( अवसे ) = अपने जीवन की रक्षा के लिये ( वाम् ) = आप दोनों को ( अह्वे ) = पुनः २ भीतर से बाहर, बाहर से भीतर बुलाता हूं । हे ( शचीवसू ) = शक्ति द्वारा वास कराने हारो ! आप दोनों ( विशं विशं ) = प्रति देह में ( गच्छथः ) = गमन कर रहे हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
देवता - अश्विनौ।
छन्दः - बृहती।
स्वरः - धैवत:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ द्वयोरश्विनौ देवते। अश्विनोर्नाम्ना परमात्मजीवात्मानौ अध्यापकोपदेशकौ च स्तौति।
पदार्थः
हे (अश्विना) अश्विनौ परमात्मजीवात्मानौ अध्यापकोपदेशकौ वा ! (उस्रा२ वाम्) उस्रौ निवासकौ युवाम्। वस निवासे धातोः ‘स्फायितञ्चि’ उ० २।१३ इति रक्, धातोः वकारस्य सम्प्रसारणम्। (इमाः उ) एताः खलु (दिविष्टयः) दिवं ज्ञानप्रकाशमिच्छन्तीति ताः विशः प्रजाः। दिवुपपदात् इषु इच्छायामिति धातोः कर्त्तरि क्तिन्। (हवन्ते) आह्वयन्ति। हे (शचीवसू) कर्मधनौ प्रज्ञाधनौ वा ! शची इति कर्मनाम प्रज्ञानाम च। निघं० २।१, ३।९। (अयम्) एषः अहमपि (अवसे) रक्षणाय (वाम्) युवाम् (अह्वे) आह्वयामि। ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च, लुङि उत्तमैकवचने रूपम्। (हि) यतः युवाम् (विशं विशं) प्रजां प्रजाम् (गच्छथः) प्राप्नुथः ॥२॥
भावार्थः
यथा परमात्मजीवात्मानौ जनानां मार्गदर्शनं कुरुतस्तथैवाध्यापकोपदेशकावपि शिक्षणेनोपदेशेन च सदाचारमार्गं दर्शयतः। अतस्तयोः संगतिः सर्वैः करणीया ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ७।७४।१, साम० ७५३। २. उस्रेति गोनाम, लुप्तोपमं चेदं द्रष्टव्यम्। उस्रा इव। यथा गावः स्वान् वत्सकान् हवन्ते आह्वयन्ति, तद्वदाह्वयन्ति युवां, हे अश्विनौ—इति वि०। तत्तु पदपाठविरुद्धम्। उस्रा उस्रौ वासकौ—इति भ०, सा०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Sun and Moon, the settlers of the world, the subjects hankering after light, want to attain Ye! I too therefore for self-protection want to gain Ye, O giver of intellect and wealth, as Ye visit and reach every man.
Translator Comment
Subjects means men.
Meaning
Brilliant Ashvins, these yajakas dedicated to life divine invoke and call upon you for light, and I too, O versatile commanders of the wealth of knowledge, power and vision, invite you and pray for protection and advancement since you visit and bless every individual and every community. (Rg. 7-74-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (उस्रा अश्विना) હે ઇન્દ્ર પરમૈશ્વર્યવાન પરમાત્માને વસાવનાર વ્યાપનશીલ જ્ઞાનપ્રકાશ અને આનંદરસ (वाम्) તમે બન્નેને (इमाः दिविष्टयः) એ દિવ્ય-અમૃતમોક્ષને ચાહનારી પ્રજાઓ-ઉપાસકજનો
(हवन्ते) બોલાવે છે-આકર્ષિત કરે છે (वाम्) જેમ તમે બન્નેને (अवसे) રક્ષા માટે (अयम् अह्ने) એ હું બોલાવું
છું-આકર્ષિત કરું છું તેમ તમે ।(शचीवसू) પ્રજ્ઞાથી વસનારા (विशं विशं हि गच्छथः) પ્રત્યેક મનુષ્યોને જ પ્રાપ્ત થાઓ છો. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે વસાવનાર પરમાત્માના જ્ઞાન પ્રકાશ અને આનંદરસ ધર્મો તમને મોક્ષને ચાહનારા મુમુક્ષુ ઉપાસક જનો અવશ્ય પોતાની અંદર આમંત્રિત કરે છે-આકર્ષિત કરે છે, તો એ હું પણ મારી રક્ષા માટે તમને આમંત્રિત કરું છું , તેમ તમે પ્રજા દ્વારા વસવાવાળા બનીને પ્રત્યેક મનુષ્યને પ્રાપ્ત થાઓ છો , પ્રજ્ઞાવાન મનુષ્યો તમને પોતાની અંદર અવશ્ય ધારણ કરે છે. (૨)
उर्दू (1)
Mazmoon
سُورج اور چندرماں آپ کا رُوپ
Lafzi Maana
(شچی وسُو) روحانی دولتوں کے سربراہ پرمیشور! (اشوی نا) سُورج اور چندرماں یہ دونوں آپ کا رُوپ ہیں جو ارواحِ عالم کی حفاظت اور خدمت میں دن رات جُٹے ہوئے ہیں۔ (دوشٹیا اِما) تیرے وصل کو چاہنے والے یہ روحانی مجسمے عابد لوگ (وام اُوہونتے) آپ کے پُرنُور اِن دونوں رُوپوں کو چاہ رہے ہیں، (اُسرا) یہ دونوں ہمارے اندھکار کو دُور کرتے ہیں، (ایم اَوسے وام ہوے) اور یہ کہ میں بھی ان دونوں رُوپوں کو روشنی کا مینار سمجھ کر آپ کو پُکار رہا ہوں۔ ہے بھگوان! آپ اِن دونوں روشن میناروں کے (وِشم وِشم ہی گچہتہ) پرکاش داتا ہو کر ہر ایک یوگی جن کو ہی پراپت ہوتے ہو۔
Tashree
چندرماں سُورج یہ دونوں آپ ہی کا رُوپ ہیں، اِس روشنی کے پانے کو ہم بھگت جَن ہیں بُلا رہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे परमात्मा व जीवात्मा माणसांना मार्गदर्शन करतात, तसेच अध्यापक व उपदेशकही शिक्षण व उपदेशाद्वारे सदाचाराचा मार्ग दर्शवितात. त्यामुळे त्यांची संगती करावी ॥२॥
विषय
पुढील दोन मंत्रांची देवता ‘अश्विनौ’ या मंत्रातील ‘अश्विनौ’ नावाने परमात्माक- जीवात्मा आणि अध्यापक- उपदेशक यांची स्तुती केली आहे -
शब्दार्थ
हे (अश्विनौ) परमेश्वर जीवात्मा वा अध्यापक- उपदेशक जनहो, (उस्रा वाम्) तुम्ही निवासक (म्हणजे आवास, धैर्य, साह्य देणारे आहात, म्हणून (इमाः उ) या (दिविष्टयः) ज्ञान - प्रकाशाची कामना करणारी प्रजा (हवन्ते) तुम्हाला हाक मारत आहेत. हे (शचीवस) कर्म व प्रज्ञेचे स्वामी (जीवात्मा, अध्यापक, उपदेशक जनहो) (अयम्) हा मी (उपासक /शिष्य /जिज्ञासू मनुष्य) (अवसे) रक्षणासाठी (वाम्) तुम्हाला (उहृे) हाक मारत आहे (हि) कारण की तुम्ही (विशंविशमुः) प्रत्येक प्रजाजनाच्या /शिष्याच्या /साह्य इच्छिणाऱ्या मनुष्याच्या जवल (गच्छथ) जाता (म्हणूनच मी तुम्हाला बोलावीत आहे.)।। २।।
भावार्थ
जसे परमात्मा व जीवात्मा मनुष्याला मार्गदर्शन करतात, तसेच अध्यापक आणि उपदेशक देखील अध्यापनाने व उपदेशाने सदाचारणाचा मार्ग दाखवितात. त्यामुळे सर्वांनी त्याची संगत धरावी. ।। २।।
तमिल (1)
Word Meaning
(அசுவினிகளே!) (பிராணன்களே!) இந்த ஒளி விரும்பும் பிரசைகள் காலையில் உன்னைஅழைக்கிறார்கள். செயல் சீமானே என் ரட்சிப்பிற்கு உன்னை
அழைக்கிறேன்.நீ (வீடு வீடாய் செல்லவும்).
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