Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 303
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः
देवता - उषाः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
34
प्र꣡त्यु꣢ अदर्श्याय꣣त्यू꣢३꣱च्छ꣡न्ती꣢ दुहि꣣ता꣢ दि꣣वः꣢ । अ꣡पो꣢ म꣣ही꣡ वृ꣢णुते꣣ च꣡क्षु꣢षा꣣ त꣢मो꣣ ज्यो꣡ति꣢ष्कृणोति सू꣣न꣡री꣢ ॥३०३॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣡ति꣢꣯ । उ꣣ । अदर्शि । आयती꣢ । आ꣣ । यती꣢ । उ꣣च्छ꣡न्ती꣢ । दुहि꣣ता꣢ । दि꣣वः꣢ । अ꣡प꣢꣯ । उ꣣ । मही꣢ । वृ꣣णुते । च꣡क्षु꣢꣯षा । त꣡मः꣢ । ज्यो꣡तिः꣢꣯ । कृ꣣णोति । सून꣡री꣢ । सु꣣ । न꣡री꣢꣯ ॥३०३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्यु अदर्श्यायत्यू३च्छन्ती दुहिता दिवः । अपो मही वृणुते चक्षुषा तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी ॥३०३॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रति । उ । अदर्शि । आयती । आ । यती । उच्छन्ती । दुहिता । दिवः । अप । उ । मही । वृणुते । चक्षुषा । तमः । ज्योतिः । कृणोति । सूनरी । सु । नरी ॥३०३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 303
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम मन्त्र का देवता उषा है। इसमें उषा के आविर्भाव का वर्णन है।
पदार्थ
(आयती) आती हुई, (उच्छन्ती) उदित होती हुई (दिवः दुहिता) द्यौ-लोक की पुत्री उषा (प्रति अदर्शि उ) दिखाई दी है। (मही) महती यह उषा (चक्षुषा) दर्शनप्रदान से (तमः) अन्धकार को (अप उ वृणुते) दूर कर रही है। (सूनरी) सुनेत्री यह उषा (ज्योतिः) ज्योति को (कृणोति) उत्पन्न कर रही है ॥१॥ इस मन्त्र में स्वभावोक्ति अलङ्कार है और प्राकृतिक उषा के वर्णन से आध्यात्मिक उषा का वर्णन ध्वनित हो रहा है ॥१॥
भावार्थ
जैसे सूर्योदय से पूर्व व्याप्त घने रात्रि के अन्धकार को विच्छिन्न करता हुआ प्राकृतिक उषा का प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है, वैसे ही परमात्मारूप सूर्य के उदय से पूर्व मनोभूमि में व्याप्त तामसिक वृत्तियों के जाल को विच्छिन्न कर आध्यात्मिक उषा का प्रकाश आत्मा में फैलता है। यह उषा योगमार्ग में ऋतम्भरा प्रज्ञा के नाम से प्रसिद्ध है ॥१॥
पदार्थ
(दिवः-दुहिता) सूर्य की दुहिता—ज्ञानप्रकाशक परमात्मा को दूहने वाली श्रद्धा प्रज्ञा का उत्कृष्टरूप ज्ञानज्योति “श्रद्धा वै सूर्यस्य दुहिता” [श॰ १२.७.३.११] “प्रज्ञा पूर्वरूपं श्रद्धोत्तररूपम्” [शां—आ॰ ३.७, कौ॰ उ॰ १.७] (आयती) आती हुई—प्राप्त होती हुई (उच्छन्ती) अज्ञान एवं संसारमोह को हटाती हुई (प्रत्यदर्शि-उ) उपासकों द्वारा प्रतिलक्षित होती है प्रत्यक्ष होती है “लुप्तोपमावाचकालङ्कारः” जैसे (मही सूनरी) महत्त्ववाली उषा “सूनरी उषो नाम” [निघं॰ १.८] (चक्षुषा) ‘चक्षुषः’ ‘आकारादेशश्छान्दसः’ नेत्र के आगे आने वाले (तमः) अन्धकार को (उ-अपवृणुते) निश्चय हटाती है (ज्योतिः-कृणोति) प्रकाश को सामने करती है।
भावार्थ
ज्ञानप्रकाशक परमात्मा की दूहने वाली उपासक के अन्दर उसके दर्शनामृत को खींच ले आनेवाली श्रद्धा जो कि प्रज्ञा से भी ऊँची ज्ञानज्योति उपासक के अन्दर आती हुई अज्ञान एवं सांसारिक मोह को हटाती मिटाती हुई उपासक द्वारा प्रत्यक्ष होती है जैसे महत्त्वपूर्ण प्रातःकालीन उषा—प्रभा नेत्र के आगे आने वाले अन्धकार को नितान्त हटाती है और प्रकाश को सामने कर देती है॥१॥
विशेष
ऋषिः—वसिष्ठ (परमात्मा में अत्यन्त वसने वाला उपासक)॥ देवताः—उषा ‘इन्द्रप्रसक्तोषाः’ (ऐश्वर्यवान् परमात्मा से सम्बद्ध उषा—ज्ञानज्योति)॥<br>
विषय
उषा का उपदेश
पदार्थ
(उ)=निश्चय से (प्रति आयती)= प्रत्येक व्यक्ति की ओर आती हुई यह उषा (अदर्शि) = देखी जाती है। (आयती) = निरन्तर गति करती हुई यह उषा यही कहती है कि मैं जैसे [उष दाहे] अन्धकार को जलाकर उषा बनी हूँ, उसी प्रकार तुम भी गतीशील बनोगे तो अन्धकार को समाप्त करनेवाले बनोगे।
(उच्छन्ती) = [अच्छी विवासे] यह उषा अन्धकार को विवासित कर देती है - देश निकाला दे देती है। उषा से प्रेरणा लेनेवाला व्यक्ति भी अपने अन्धकार को दूर करने के लिए सतत प्रयत्न करता है। यह उषा (दिवः) = प्रकाश की (दुहिता) = पूरण करनेवाली होती है। मनुष्य को भी अपने अज्ञानान्धकार को दूर करके अपने मस्तिष्क को ज्ञान से परिपूर्ण करना है। एवं, उषा का उपदेश व्यक्ति को तीन शब्दों में दिया गया है । १. गतिशील बन, २. अन्धकार को दूर कर, ३. ज्ञान को अपने अन्दर भर।
(मही)=महनीय–पूजनीय यह उषा (चक्षुषा) = प्रकाश से (तमः) = अन्धकार को (उ) = निश्चय से (अपवृणुते) = दूर करती है। साधक को भी मानो यह प्रेरणा देती है कि तू इस उषाकाल में प्रभु की पूजा करनेवाला बन और स्वयं ज्ञानी बनकर औरों के अन्धकार को दूर कर। यह (सूनरी) = उत्तम ढङ्ग से हमें उत्तमता की ओर ले - चलनेवाली उषा (ज्योतिः) = प्रकाश (कृणोति) = कर देती है। हमें भी उपदेश देती है कि तुम्हें भी बड़े उत्तम प्रकार से माधुर्य के साथ ज्ञान-प्रसाररूप कार्य करना है। एवं, उषा का सामाजिक उपदेश यह है कि मनुष्य प्रभु का उपासक बनकर अज्ञानान्धकार को दूर करने के लिए यत्न करे और इस ज्ञान-प्रसार रूप कार्य को अत्यन्त मधुरता से करे।
इस उल्लिखित उषा के उपदेश को 'वसिष्ट' ही क्रियान्वित कर सकता है। वश में करनेवालों में श्रेष्ठ अर्थात् जितेन्द्रिय ही इस मार्ग का आक्रमण करता है और यह जितेन्द्रियता इसे ‘मैत्रावरुणि’ बनने से प्राप्त होती है। मैत्रावरुणि-प्राणापानों की साधना करनेवला।
भावार्थ
मैं उषा का योग्यतम शिष्य बनूँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( दिवः दुहिता ) = सूर्य की प्रभा के समान प्रकाशमान परमात्मा से उत्पन्न हुई शक्ति ( उच्छन्ती ) = अन्धकार को दूर हटाती हुई ( प्रति उ अदर्शि ) = सबको दिखाई दे रही है। वह ( मही ) = महान् विस्तारयुक्त होकर ( तमः ) = अन्धकार को उषा काल के समान ( अप वृणुते उ.) = दूर हटाती है । और वह ( सूनरी ) = उत्तम नेत्री, पथदर्शिका ( ज्योतिः कृणोति ) = सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश कर देती है। यह मन्त्र मन्त्रमय वेदवाणी और प्रबुद्ध चिति शक्ति और उषा तीनों पर समान रूप से है। साधक की यह दशा ज्योतिष्मती विशोका प्रज्ञा का उदयकाल कहा जाता है। यह आदित्यवर्ण पुरुष के दर्शन का पूर्वकाल है ।
टिप्पणी
३०३ - 'अपोमहीवयति चक्षसे' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - वसिष्ठ:।
देवता - उषाः।
छन्दः - बृहती।
स्वरः -धैवत:।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ प्रथमाया उषा देवता। उषस आविर्भावं वर्णयति।
पदार्थः
(आयती) आगच्छन्ती (उच्छन्ती) उदयं भजमाना। उछी विवासे, भ्वादिस्तुदादिश्च। (दिवः दुहिता) द्युलोकस्य पुत्री उषाः (प्रति अदर्शि उ) प्रतिदृष्टास्ति खलु। (मही) महती एषा उषाः (चक्षुषा) दर्शनप्रदानेन। चष्टे पश्यतिकर्मा। निघं० ३।११। (तमः) अन्धकारम् (अप उ वृणुते) अपाकरोति। (सूनरी२) सुनेत्री इयम् उषाः। सूनरी इति उषर्नामसु पठितम्। निघं० १।८। (ज्योतिः) प्रकाशम् (कृणोति) जनयति। कृवि हिंसाकरणयोः इत्यस्य रूपम् ॥१॥ अत्र स्वभावोक्तिरलङ्कारः। प्राकृतिक्या उषसो वर्णनाच्चाध्यात्मिकी उषा व्यज्यते ॥१॥
भावार्थः
यथा सूर्योदयात् प्राग् व्याप्तं निविडं नैशं तमो व्युदस्यन् प्राकृतिक्या उषसः प्रकाशः सर्वत्र प्रसरति, तथैव परमात्मरूपस्य सूर्यस्योदयात् प्राङ्मनोभूमौ व्याप्तं तामसवृत्तीनां जालं विच्छिन्दन्नाध्यात्मिक्या उषसः प्रकाशो जीवात्मानं व्याप्नोति। सेयमुषा योगमार्गे ऋतम्भरा प्रज्ञेति३ नाम्ना ख्याता ॥१॥
टिप्पणीः
१. ७।८१।१ ‘अपो महि व्ययति चक्षसे’ इति पाठः। साम० ७५१। २. सूनरी। शोभना नराः यस्याः स्तावकत्वेन भवन्ति सा सुनरी। सुनर्येव सूनरी—इति वि०। शोभनाः नराः स्तोतारः यस्याः सा सूनरी। सु सुष्ठु नयति प्राणिनः इति वा सूनरी—इति भ०। जनानां सुष्ठु नेत्री—इति सा०। सुष्ठु नयतीति सूनरी। नॄ नये। ‘अच इः’ इति इ प्रत्ययः। गतिसमासे ‘कृद्ग्रहणे गतिकारकपूर्वस्यापि ग्रहणम्’ (परिभा० २८) इति वचनात् ‘कृदिकारादक्तिनः’ (पा० ४।१।४५ ग०) इति ङीष्। ‘परादिश्छन्दसि बहुलम्’ इत्युत्तरपदाद्युदातत्त्वम्। ‘निपातस्य च’ इति पूर्वपदस्य दीर्घः। इति ऋ० १।४८।५ भाष्ये सायणः। ३. योग० १।४८।
इंग्लिश (2)
Meaning
O God Our advancing darkness-dispelling intellect, like the Dawn, the daughter of the Sun, through knowledge removes ignorance. The mighty intellect, leading men on the right path, sheds lustre, and is verily attained daily through Thy grace.
Meaning
The great and glorious dawn, child of the light of divinity, is seen rising, dispelling mists and darkness, and illuminates with light the world of our actions, brilliant guide as she is for the day. (Rg. 7-81-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (दिवः दुहिता) સૂર્યની દૂહિતા-જ્ઞાન પ્રકાશક પરમાત્માને દોહનારી શ્રદ્ધા પ્રજ્ઞાના ઉત્કૃષ્ટ સ્વરૂપ જ્ઞાન જ્યોતિ (आयाती) આવતી-પ્રાપ્ત થતી (उच्छन्ती) અજ્ઞાન અને સંસારના મોહને દૂર કરતી (प्रत्यदर्शि उ) ઉપાસકો દ્વારા પરિલક્ષિત થાય છે-પ્રત્યક્ષ થાય છે જેમ (मही सूनरी) મહત્ત્વવાળી સૂનરી ઉષા (चक्षुषा) નેત્રની સામે આવનાર (तमः) અંધકારને (उ अपवृणुते) નિશ્ચિત રૂપથી દૂર કરે છે અને (ज्योतिः कृणोति) પ્રકાશને સામે લાવે છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : જ્ઞાન પ્રકાશક પરમાત્મને દોહનારી ઉપાસકની અંદર તેના દર્શનામૃતને ખેંચીને લાવનારી શ્રદ્ધા જે પ્રજ્ઞાથી પણ શ્રેષ્ઠ જ્ઞાન જ્યોતિ ઉપાસકની અંદર આવતી, અજ્ઞાન અને સાંસારિક મોહને દૂર કરતી, ઉપાસક દ્વારા પ્રત્યક્ષ થાય છે; જેમ મહત્ત્વપૂર્ણ પ્રાતઃકાલીન ઉષા-પ્રભા આંખની સામે આવનારા અંધકારને નિતાન્ત દૂર કરે છે અને પ્રકાશને તેની સામે કરી દે છે. (૧)
उर्दू (1)
Mazmoon
ادھیاتمک چِت وِرتی
Lafzi Maana
(دِوَہ دُوہتا) عرشِ بریں کی بیٹی سُوریہ کی کِرن کی طرح دل کو منّور کرنے والی چِت کی وِرتی کومیں نے )پرتی اُوادرشی) ظاہر ظہور کر لیا ہے۔ جو (آیتی اُوچھنتی) جو آتی ہوئی میرے اگیان اندھکار کو دُور کر رہی ہے۔ یہ (مہی) مہان ہے۔ اِس کی دِویہ جیوتی (نُورِحق) سے (تمہ اپ اُووِرتے) میری جہالت کا پردہ ہٹ گیا ہے۔ اِس نے میرے اندر (جیوتی کِرتوتی) چاروں طرف روشنی پھیلا دی ہے۔ کیونکہ (سُونری) راہِ راست دکھلانے والی دِلرُبا پیاری روشنی پرم یوگ رِتم بھرا خدائی وصل کرانے والی عقلِ سلیم ہے۔
Tashree
اُتری ہے عرش بریں سے دِل میں عرفاں روشنی، ہٹ گیا جُہل بطالت نُور کا ماحول ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसे सूर्योदयापूर्वी व्याप्त असलेल्या रात्रीच्या गहन अंधकाराला विच्छिन्न करत प्राकृतिक उषेचा प्रकाश सर्वत्र पसरतो, तसेच परमात्मारूप सूर्याच्या उदयापूर्वी मनोभूमीत व्याप्त तामसिक वृत्तींची जाळी विच्छिन्न करून आध्यात्मिक उषेचा प्रकाश आत्म्यात पसरतो. ही उषा योगमार्गात ऋतंभरा प्रज्ञा या नावाने प्रसिद्ध आहे. ॥१॥
विषय
प्रथम मंत्राची देवता उषा आहे. या मंत्रात उषेच्या आगमनाचे वर्णन आहे -
शब्दार्थ
(आयती) येत असलेली (उच्छन्ती) उदित होत असलेली ही (दिवः दुहिता) द्यूलोकाची पुत्री उषा (प्रति) (अदर्शि उ) समोर दिसत आहे. (मही) महती ही उषा (चदुषा) दर्शन घेऊन (येऊन) (तमः अंधकार (अप उ वृणुते) दूर करीत आहे. (सूनरी) सुनेत्री (वा डोक्याला सुख देणारी ही उषा (ज्योतिः) ज्योती (कृणोति) उत्पन्न करीत आहे. ।। १।।
भावार्थ
जसे सूर्योदयापूर्वी सर्वत्र व्याप्त अंधकाराला छिन्न भिन्न करीत निसर्गातील उषेचा प्रकाश सर्वत्र पसरतो, तसेच परमेश्वर रूप सूर्याच्या उदयाने पूर्व मनोभूमीत व्याप्त तामसिक वृत्तीचे पाश छिन्न भिन्न होतात आणि आध्यात्मिक उषेचा प्रकाश आत्म्यात व्याप्त होतो. ही उषा योग मार्गात ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ या नावाने प्रसिद्ध आहे. ।। १।।
विशेष
या मंत्रात स्वभावोक्ति अलंकार आहे. येथे प्राकृतिक उषेव्या वर्णनातून आध्यात्मिक उमेचा अर्थ ध्वनित होत आहे. ।। २।।
तमिल (1)
Word Meaning
இருளை நீக்கி வருபவளாய் சோதியுலகின் சூரியனுடைய பெண்ணான, உஷை(சோதியின் பிரகாசம்) தென்படுகிறாள். கண்களால் மகத்தான இருட்டைத் திறக்கிறாள். சுபமான கண்களுள்ள உஷை (பிரகாசத்தைச் செய்கிறாள்).
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal