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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 302
    ऋषिः - नृमेध आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
    36

    त्वा꣢मि꣣दा꣡ ह्यो नरोऽपी꣢꣯प्यन्वज्रि꣣न्भू꣡र्ण꣢यः । स꣡ इ꣢न्द्र꣣ स्तो꣡म꣢वाहस इ꣣ह꣡ श्रु꣣ध्यु꣢प꣣ स्व꣡स꣢र꣣मा꣡ ग꣢हि ॥३०२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वा꣢म् । इ꣣दा꣢ । ह्यः । न꣡रः꣢꣯ । अ꣡पी꣢꣯प्यन् । व꣣ज्रिन् । भू꣡र्ण꣢꣯यः । सः । इ꣣न्द्र । स्तो꣡म꣢꣯वाहसः । स्तो꣡म꣢꣯ । वा꣣हसः । इह꣢ । श्रु꣣धि । उ꣡प꣢꣯ । स्व꣡स꣢꣯रम् । आ । ग꣣हि ॥३०२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामिदा ह्यो नरोऽपीप्यन्वज्रिन्भूर्णयः । स इन्द्र स्तोमवाहस इह श्रुध्युप स्वसरमा गहि ॥३०२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । इदा । ह्यः । नरः । अपीप्यन् । वज्रिन् । भूर्णयः । सः । इन्द्र । स्तोमवाहसः । स्तोम । वाहसः । इह । श्रुधि । उप । स्वसरम् । आ । गहि ॥३०२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 302
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 7;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमेश्वर वा राजा का आह्वान किया गया है।

    पदार्थ

    हे (वज्रिन्) वज्रधारी अर्थात् दुर्जनों के दलन और सज्जनों के रक्षण की शक्ति से युक्त परमात्मन् वा राजन् ! (त्वाम्) आपको (भूर्णयः) लोगों का भरण-पोषण करनेवाले (नरः) नेताजन (इदा) इस समय, तथा (ह्यः) भूतकाल में (अपीप्यन्) बढ़ाते हैं और बढ़ाते रहे हैं, अर्थात् सदा आपका प्रचार करते हैं। (सः) वह आप (इन्द्र) हे दुर्मति के विदारक और सुमति के दाता परमात्मन् वा राजन् ! (स्तोमवाहसः) स्तुति करनेवाले हम लोगों को अर्थात् हमारे निवेदनों को (इह) यहाँ (श्रुधि) सुनिए और (स्वसरम्) हमारे हृदयसदन में अथवा प्रजा के सभागृह में (उप आ गहि) आइए ॥१०॥ इस मन्त्र में अर्थश्लेषालङ्कार है ॥१०॥

    भावार्थ

    समाज में जो नेताजन होते हैं, उन्हें चाहिए कि सर्वत्र परमात्मा वा प्रजारञ्जक राजा का प्रचार करें, जिससे राष्ट्र के सब लोग आस्तिक तथा राजभक्त हों ॥१०॥ इस दशति में इन्द्र के प्रति सोमरस अर्पित होने, गाय के रूप में इन्द्र का स्मरण करके उसका आह्वान होने, इन्द्र से सम्बन्ध रखनेवाले त्वष्टा, पर्जन्य, बृहस्पति एवं अदिति का आह्वान होने और इन्द्र नाम से राजा, सेनापति आदि का भी वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्वदशति के विषय के साथ संगति है ॥ चतुर्थ प्रपाठक में प्रथम अर्ध की प्रथम दशति समाप्त ॥ तृतीय अध्याय में सप्तम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (वज्रिन्) हे ओजस्वी परमात्मन्! “वज्रो वा ओजः” [श॰ ८.४.१.२०] (भूर्णयः-नरः) भरण—तुझे अपने अन्दर भरने स्थापित करने वाले उपासक जन (त्वाम्) तुझे (ह्यः) गए कल—गत समय में (इदा) और अब (अपीप्यन्) अपना उपासनारस पिलाते रहे—पिलाते हैं (सः) वह (इन्द्र) तू परमात्मन्! (इह) यहाँ फलदान प्रसङ्ग या वरदान प्रसङ्ग में या प्रतिदान प्रसङ्ग में (स्तोमवाहसः-उपश्रुधि) स्तुति को पहुँचाने वाले हम जनों को उपश्रुत कर—उपकृत कर अपना बना, अतः (स्वसरम्-आगहि) हमारे हृदय गृह को आ—प्राप्त हो “स्वसराणि गृहाणि” [निघं॰ ३.४] जिससे उनके अभीष्ट को जानकर हमें उपकृत कर सकें।

    भावार्थ

    हे ओजस्वी परमात्मन्! तुझे अपने अन्दर भरने स्थापित करने वाले उपासक जन कल—पीछे और अब भी उपासनारस पान कराते रहे और अब भी पान कराते हैं, स्तुति पहुँचाने वाले उपासकों को भी उपकृत कर—करता है—उन हमको कभी उपेक्षित नहीं करता है अतः उपकृत करने के हेतु हमारे हृदय गृह को आ—प्राप्त हो॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—नृमेधः (नायक मेधावाला जन)॥<br>

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    विषय

    घर में पहुँच

    पदार्थ

    मनुष्य जब तक अज्ञानवश स्वार्थ में रहेगा, तबतक वह अपने घर से दूर ही भटकता रहेगा। ज्ञानवृद्धि के साथ, स्वार्थ का नाश होकर, वह पुनः अपने घर की ओर मुड़ेगा और अन्त में अपने ब्रह्मलोकरूप घर में पहुँच ही जाएगा। यह स्वार्थ से ऊपर उठा हुआ व्यक्ति सभी का कल्याण करनेवाला, सभी को ‘मैं' समझनेवाला 'नृमेध' होगा, मनुष्यों से सम्पर्कवाला। सभी व्यसनों से ऊपर उठा हुआ होने के कारण 'आङ्गिरस' होगा। प्रभु इससे कहते हैं कि (उप स्वसरम आगहि) = फिर घर के समीप आ जा। तू ब्रह्मलोक से कितना दूर भटक गया। लौट, इसी जीवन में फिर घर के समीप पहुँच जाने के लिए प्रयत्न कर। इस उद्देश्य से (सः) = वह तू (इह) = इस मानवजीवन में (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बनकर (स्तोमवाहसः) = स्तुति - समूहरूप वेद मन्त्रों को धारण कनेवाले ज्ञानियों से (श्रुधि) = ज्ञान का श्रवण कर। घर का नाम [स्व-सर] है - स्वतन्त्रतापूर्वक चलने का स्थान । इन्द्रियों के अधीन हुए और इनकें होकर न जाने हम कहाँ-कहाँ भटकते रह जाते हैं। ज्ञान को प्राप्त कर फिर हम स्वाधीन होते हैं और ‘स्व-सर'=स्वतन्त्रतापूर्वक विचरने के स्थानरूप अपने घर को प्राप्त होते हैं। प्रभु कहते हैं कि हे नृमेध! (त्वाम्)= तुझे (इदा) - आज और (ह्यः) = कल (भूर्णयः) = पालन करनेवाले - आसुर वृत्तियों के आक्रमणों से बचानेवाले (नर:) = तुझे आगे और आगे ले-चलनेवाले, स्वयं संसार में [न+रम्] न फँसे हुए ज्ञानी लोग (अपीप्यन्) = ज्ञान-जल का पान कराएँ। (वज्रिन्) = तू भी वज्रवाला बन। [वज् गतौ] निरन्तर गतिशीलता ही तेरा वह वज्र हो जोकि तुझे सब अशुभों को संहार करने में समर्थ करे। ‘आलस्य के अभाव' रूप वज्रवाला तू हो । इस प्रकार आलस्य को छोड़कर, ज्ञान से चमकता हुआ तू पूर्ण स्वतन्त्र हो और अपने घर में पहुँच।

    मन्त्र में प्रसङ्गवश पढ़नेवालों के लिए दो बातें कही गईं हैं- १. (इन्द्र) = वह इन्द्रियों का अधिष्ठाता बने, २. (वज्रिन्) = वह गतिशीलतारूप वज्रवाला हो – निरालस हो । पढ़ानेवालों में निम्न गुण हों – १. (नरः) = वे विद्यार्थियों को सदा आगे और आगे ले चलें। (न-रम्) = अनासक्त हों, किसी भी विषय में न फँसे हों। २. (भूर्जय:) = विद्यार्थियों का पालन करनेवाले हों, उन्हें विषयासक्ति से बचाने का सदा ध्यान करें। ३. (स्तोमवाहसः) = स्तुतिसमूह को धारण करनेवाले हों। वेदमन्त्र ‘स्तोम' हैं, उनके वे धुरन्धर ज्ञाता हों, ज्ञान के समुद्र होते हुए प्रभु-प्रवण मानसी वृत्तिवाले हों।

    भावार्थ

    हम कुशल आचार्यों के सम्पर्क में आकर ज्ञान का श्रवण करें और स्वार्थ से ऊपर उठ कुशलतापूर्वक इस संसार में विचरनेवाले ब्रह्मनिष्ठ बनें। 

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = हे ( वज्रिन्) = वज्र को धारण करने वाले शक्तिमन् ! ( भूर्णयः नरः ) = भरण पोषण करनेहारे नेता लोग, ( ह्यः ) = पूर्वकाल में ( त्वाम् इत् ) = तुझको ही ( आ अपीप्यन् ) = पुष्ट करते थे । हे ( इन्द्र ) = आत्मन् ( स्तोमवाहस: ) = स्तुतिकर्त्ता या अन्न को धारण करने हारे पुरुषों की स्तुतियों को ( इह ) = यहां ( स: ) = वह तू ( अधि ) = श्रवण कर और ( स्वसरं ) = स्वयं कर्मानुसार अर्थात् आत्मा के बल से चलने वाले स्वयं गति करने हारे देहरूप गृह में ( आगहि ) = आ विराजमान हो ।
     

    टिप्पणी

    ३०२ - 'स्तोमवाहसामिह' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - नृमेध: ।

    देवता - इन्द्रः।

    छन्दः - बृहती।

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरो नृपतिश्चाहूयते।

    पदार्थः

    हे (वज्रिन्) वज्रधर ! दुर्जनदलनसज्जनरक्षणशक्तियुक्त परमात्मन् राजन् वा ! (त्वाम्) भवन्तम् (भूर्णयः) जनानां भरणपोषणतत्पराः। डुभृञ् धारणपोषणयोः, ‘घृणिपृश्निपार्ष्णिचूर्णिभूर्णयः’ उ० ४।५२ इति निः प्रत्ययः। (नरः) नेतारो जनाः (इदा) अस्मिन् काले। ‘सर्वैकान्यकिंयत्तदः काले दा’ अ० २।३।१५ इति इदम् शब्दाद् दा प्रत्ययः। (ह्यः) गते च काले (अपीप्यन्२) वर्द्धयन्ति वर्द्धितवन्तश्च, वर्द्धनं चात्र प्रचारो ज्ञेयः। (सः) तादृशः त्वम्, हे (इन्द्र) दुर्मतिविदारक सुमतिप्रदायक परमात्मन् राजन् वा ! (स्तोमवाहसः) स्तुतिवाहकान् अस्मान्, अस्माकं निवेदनानीत्यर्थः (इह) अत्र (श्रुधि) शृणु, अस्माकम् (स्वसरम्) गृहम्, हृदयसदनम् सभागृहं वा। स्वसराणि इति गृहनामसु पठितम्। निघं० ३।४। (उप आ गहि) उपागच्छ ॥१०॥ अत्र अर्थश्लेषालङ्कारः ॥१०॥

    भावार्थः

    समाजे ये नेतारो भवन्ति तैः सर्वत्र परमात्मा प्रजारञ्जको राजा च प्रचारणीयः, येन राष्ट्रस्य सर्वे जना आस्तिका राजभक्ताश्च भवेयुः ॥१०॥ अथेन्द्रं प्रति सोमरसार्पणाद्, धेनुरूपेणेन्द्रं स्मृत्वा तदाह्वानात्, तत्सम्बन्धित्वष्टृपर्जन्यबृहस्पत्यदितीनामाह्वानाद्, इन्द्रनाम्ना नृपसेनापत्यादीनां चापि वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इति चतुर्थे प्रपाठके प्रथमार्धे प्रथमा दशतिः। इति तृतीयाध्याये सप्तमः खण्डः ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ८।९९।१ ‘वाहस इह’ इत्यत्र ‘वाहसामिह’ इति पाठः। साम० ८१३। २. ओप्यायी वृद्धौ इत्यस्येदं रूपम्। वर्धयन्तीत्यर्थः। आप्यायितवन्तः—इति भ०। सोममपाययन्—इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Subduer of the ignoble, the devoted praise-singers had satisfied Thee in the past and are satisfying Thee at present. Listen today here to the lauds of the worshippers and come unto us!

    Translator Comment

    Today means ever.

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    Meaning

    Indra, lord of mind and soul, wielder of adamantine will and energy, zealous celebrants and leading lights serve and adore you today as ever before in the past. Thus adored and contemplated, listen to the prayers of the devotees in meditation, come and arise in your own abode of the sages heart. (Rg. 8-99-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    302પદાર્થ : (वज्रिन्) હે ઓજસ્વી પરમાત્મન્ ! (भूर्णयः नरः) તને પોતાની અંદર ભરનાર - સ્થાપિત કરનાર ઉપાસકજન (त्वाम्) તને (ह्यः) ગઈકાલે-ગત સમયમાં (इदा) અને વર્તમાનમાં (अपीप्यन्) પોતાનું ઉપાસનારસનું પાન કરાવે-કરાવતા રહે (सः ते इन्द्रः) તું પરમાત્મન્ ! (इह) અહીં ફળદાન પ્રસંગ અથવા વરદાન પ્રસંગમાં વા પ્રતિદાન પ્રસંગમાં (स्तोमबाहसः उपश्रुधि) સ્તુતિને પહોંચાડનારા અમને ઉપશ્રુત ઉપકૃત કર, પોતાના બનાવ, તેથી (स्वसरम् आगहि) અમારા હૃદયગૃહમાં આવ-પ્રાપ્ત થા. જેથી તેના
    અભીષ્ટને જાણીને અમે ઉપકૃત કરી શકીએ.

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે ઓજસ્વી પરમાત્મન્ ! તને પોતાની અંદર ભરવા-સ્થાપિત કરનાર ઉપાસક જન ગઈ કાલે અને આજે પણ ઉપાસનારસનું પાન કરાવતા રહે અને અત્યારે પણ કરાવે છે, સ્તુતિ પહોંચાડનાર ઉપાસકોને પણ ઉપકૃત કર-કરે છે-તે અમને કદીપણ ઉપેક્ષિત કરતો નથી; તેથી ઉપકૃત કરવા માટે તું અમારા હૃદયગૃહમાં આવ-પ્રાપ્ત થા. (૧૦)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    اِسی جیون میں ہی پرگٹ ہوویں!

    Lafzi Maana

    (بجر دھاری) یعنی بُروں کو سزا دینے کے لئے ہر وقت ہاتھ میں نیائے دنڈ رکھنے والے! (بھُورنیہ نرا آہی یا تُوام اِت اچی سپیّنی) دھرتی کے باسی زن و مرد آپ کی ہی بڑائیاں کرتے رہتے ہیں، ہے اِندر پرمیشور! (سہ متوم واہسہ اِیہہ اُپ شردُھی) وہ آپ مجھ اپنے بھگت کو اِسی جیون میں ظاہر ظہور ہو کر میری بات کو سُنیئے اور کسی (سوسرمایہہ اگہی) شبھ دن میرے اندر پرگٹ ہو آئیے۔

    Tashree

    ہیں کرتے بڑائی سبھی دُنیا، سارے، سُنو بات میری نکٹ بیٹھ پیارے۔

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    समाजातील नेत्यांनी सर्वत्र परमात्मा किंवा प्रजारंजक राजाचा प्रचार करावा, ज्यामुळे राष्ट्रातील सर्व लोक अस्तिक व राजभक्त व्हावेत ॥१०॥

    टिप्पणी

    या दशतिमध्ये इंद्राला सोमरस अर्पित करण्याने, गाईच्या रूपात इंद्राचे स्मरण करून त्याचे आवाहन असल्यामुळे, इंद्राशी संबंध ठेवणारा त्वष्टा, पर्जन्य, बृहस्पती व अदितीचे आवाहन असल्यामुळे व इंद्र नावाने राजा, सेनापती इत्यादीचे वर्णन असल्यामुळे, या दशतिच्या विषयाची पूर्वदशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    (வச்சிராயுதனே!) நேற்று இச்சமயத்தில் உற்சாகமான மனிதர்கள் உனக்குப் பானமளித்தார்கள். (இந்திரனே) துதிசெய்பவனுக்குக் காதுகொடுக்கவும்,
    எங்கள் நிலயத்தினருகே வரவும்.

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