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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 96
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्व꣡म꣢ग्ने꣣ व꣡सू꣢ꣳरि꣣ह꣢ रु꣣द्रा꣡ꣳ आ꣢दि꣣त्या꣢ꣳ उ꣣त꣢ । य꣡जा꣢ स्वध्व꣣रं꣢꣫ जनं꣣ म꣡नु꣢जातं घृत꣣प्रु꣡ष꣢म् ॥९६॥

स्वर सहित पद पाठ

त्व꣢म् । अ꣣ग्ने । व꣡सू꣢꣯न् । इ꣣ह꣢ । रु꣣द्रा꣢न् । आ꣣दित्या꣢न् । आ꣣ । दित्या꣢न् । उ꣣त꣢ । य꣡ज꣢꣯ । स्व꣣ध्वर꣢म् । सु꣣ । अध्वर꣢म् । ज꣡न꣢꣯म् । म꣡नु꣢꣯जातम् । म꣡नु꣢꣯ । जा꣣तम् । घृ꣣तप्रु꣡ष꣢म् । घृ꣣त । प्रु꣡ष꣢꣯म् ॥९६॥


स्वर रहित मन्त्र

त्वमग्ने वसूꣳरिह रुद्राꣳ आदित्याꣳ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥९६॥


स्वर रहित पद पाठ

त्वम् । अग्ने । वसून् । इह । रुद्रान् । आदित्यान् । आ । दित्यान् । उत । यज । स्वध्वरम् । सु । अध्वरम् । जनम् । मनुजातम् । मनु । जातम् । घृतप्रुषम् । घृत । प्रुषम् ॥९६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 96
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
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भावार्थ -

भा० = हे ( अग्ने ) = प्रभो ! तू ( इह ) = इस संसार में ( वसून् ) = सृष्टि को वसाने वाले और जीवन के मूलकारण पृथिवी आदि आठों वसुओं को ( रुद्रान् ) = दुष्टों को रुलाने वाले, या मूढों को अन्तकाल में दुखदायी, ११ रुद्रों , प्राणों को और आदान-विसर्ग का कार्य करनेवाले १२ आदित्यों  मासों को और ( मनुजाते ) = अपने मनन सामर्थ्य से उन्नतरूप में प्रकट हुए ( घृतप्रुषम्१  ) = ज्ञान और कर्म से भरपूर या तेज से पूर्ण, या ज्ञान के प्रसारक ( स्वध्वरं जनं ) = सब के रक्षक, अहिंसक, मनुष्य को ( यज ) = अपनी संगति में रख  । 

मनुष्य सब प्राणियों से इसी बात में उन्नत है कि वह १. 'मनुजात' मननशक्ति  से बना हुआ  २.'घृतप्रुषम्' अपना तेज दूसरों पर फैलाने वाला, ३. 'स्वध्वरं' किसी प्राणी की प्राणाहिंसा न करने वाला हो । इन  तीन गुणों के कारण वह परमात्मा के संग का लाभ करता है और देवतुल्य हो जाता है ।

ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

ऋषिः - प्रस्कण्वः ।

छन्दः - अनुष्टुप् । 

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