अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - दैवी जगती
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
तस्मै॑ध्रु॒वाया॑ दि॒शः ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मै॑ । ध्रु॒वाया॑: । दिश॑: ॥४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्मैध्रुवाया दिशः ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मै । ध्रुवाया: । दिश: ॥४.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 4; मन्त्र » 13
विषय - व्रात्य प्रजापति का राजतन्त्र।
भावार्थ -
(ध्रुवाया: दिशा:) ध्रुवा = नीचे की दिशा से (तस्मै) उसके लिये (हैमनौ मासौ) हेमन्त ऋतु के दोनों मासों को (गोप्तारौ अकुर्वन्) रक्षक कल्पित किया। (भूमिं च अग्निम् च अनुष्टातारौ) भूमि और अग्नि को उसके भृत्य कल्पित किया। (यः एवं वेदं) जो व्रात्य प्रजापति के इस प्रकार के स्वरूप को साक्षात् कर लेता है (एनम्) उसको (हैमनौ मासौ) हेमन्त ऋतु के दोनों मास (ध्रुवायाः दिशः) ‘ध्रुवा’ दिशा, अर्थात् भूमि की ओर से, नीचे से (गोपायतः) रक्षा करते हैं और (भूमिः च) भूमि और (अग्निः च) अग्नि (अनु तिष्ठतः) उसके भृत्य के समान काम करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १, ५, ६ (द्वि०) दैवी जगती, २, ३, ४ (प्र०) प्राजापत्या गायत्र्य, १ (द्वि०), ३ (द्वि०) आर्च्यनुष्टुभौ, १ (तृ०), ४ (तृ०) द्विपदा प्राजापत्या जगती, २ (द्वि०) प्राजापत्या पंक्तिः, २ (तृ०) आर्ची जगती, ३ (तृ०) भौमार्ची त्रिष्टुप, ४ (द्वि०) साम्नी त्रिष्टुप, ५ (द्वि०) प्राजापत्या बृहती, ५ (तृ०), ६ (तु०) द्विपदा आर्ची पंक्तिः, ६ (द्वि०) आर्ची उष्णिक्। अष्टादशर्चं चतुर्थ पर्यायसूक्तम्॥
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