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अथर्ववेद > काण्ड 16 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 16/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
    सूक्त - दुःस्वप्ननासन देवता - प्राजापत्या गायत्री छन्दः - यम सूक्तम् - दुःख मोचन सूक्त

    अन्त॑कोऽसिमृ॒त्युर॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अन्त॑क: । अ॒सि॒ । मृ॒त्यु : । अ॒सि॒ ॥५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अन्तकोऽसिमृत्युरसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अन्तक: । असि । मृत्यु : । असि ॥५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 16; सूक्त » 5; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे (स्वप्न) स्वप्न ! (ते जनित्रं विद्म) हम तेरे उत्पत्ति स्थान को जानते हैं तू (ग्राह्याः) ग्राही अंगों को शिथिल करने वाली शक्ति का (पुत्रः असि=) पुत्र है, उससे उत्पन्न होता है। तू (यमस्य करणः) यम बांध लेने वाले का करण साधन है। तू (अन्तकः असि) ‘अन्तक’ है सब चेतना वृत्तियों का अन्त करने वाला है। तू (मृत्युः असि) मृत्यु है। हे (स्वप्न) स्वप्न ! (तं त्वा) उस तुझको हम (तथा) उस प्रकार (संविद्म) भली प्रकार से जानते हैं। (सः सः) वह तू हमें (दुःस्वप्न्यात्) (पाहि) दुःखप्रद स्वप्न की अवस्था या मृत्यु से बचा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - यम ऋषिः। दुःस्वप्ननाशनो देवता। १-६ (प्र०) विराड्गायत्री (५ प्र० भुरिक्, ६ प्र० स्वराड्) १ प्र० ६ मि० प्राजापत्या गायत्री, तृ०, ६ तृ० द्विपदासाम्नी बृहती। दशर्चं पञ्चमं पर्यायसूक्तम्॥

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