अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
तृ॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे तृ॒न्द्धि मे॑ पृतनाय॒तः। तृ॒न्द्धि मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ तृ॒न्द्धि मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। तृ॒न्द्धि। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। तृ॒न्द्धि। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। तृ॒न्द्धि। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तृन्द्धि दर्भ सपत्नान्मे तृन्द्धि मे पृतनायतः। तृन्द्धि मे सर्वान्दुर्हार्दो तृन्द्धि मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठतृन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। तृन्द्धि। मे। पृतनाऽयतः। तृन्द्धि। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। तृन्द्धि। मे। द्विषतः। मणे ॥२९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
विषय - शत्रु का उच्छेदन।
भावार्थ -
इसी प्रकार (तृन्धि) उनको तिनके की तरह तोड़ डाल॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सपत्नक्षयकामो ब्रह्माऋषिः। दर्भों देवता। अनुष्टुभः। नवर्चं सूक्तम्॥
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