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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - ब्रह्म
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्म यज्ञ सूक्त
अं॑हो॒मुचे॒ प्र भ॑रे मनी॒षामा सु॒त्राव्णे॑ सुम॒तिमा॑वृणा॒नः। इ॒ममि॑न्द्र॒ प्रति॑ ह॒व्यं गृ॒भाय॑ स॒त्याः स॑न्तु॒ यज॑मानस्य॒ कामाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअं॒हः॒ऽमुचे॑। प्र। भ॒रे॒। म॒नी॒षाम्। आ। सु॒ऽत्राव्ने॑। सु॒ऽम॒तिम्। आ॒ऽवृ॒णा॒नः। इ॒मम्। इ॒न्द्र॒। प्रति॑। ह॒व्यम्। गृ॒भा॒य॒। स॒त्याः। स॒न्तु॒। यज॑मानस्य। कामाः॑ ॥४२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अंहोमुचे प्र भरे मनीषामा सुत्राव्णे सुमतिमावृणानः। इममिन्द्र प्रति हव्यं गृभाय सत्याः सन्तु यजमानस्य कामाः ॥
स्वर रहित पद पाठअंहःऽमुचे। प्र। भरे। मनीषाम्। आ। सुऽत्राव्ने। सुऽमतिम्। आऽवृणानः। इमम्। इन्द्र। प्रति। हव्यम्। गृभाय। सत्याः। सन्तु। यजमानस्य। कामाः ॥४२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
विषय - ईश्वरोपासना।
भावार्थ -
मैं (सुमतिम्) शुभ, उत्तम मति, ज्ञान, मानस प्रवृत्ति को (आवृणानः) चाहता हुआ, उसकी याचना करता हुआ (आसुत्राव्णे) सबसे उत्तम रक्षक, (अंहोमुचे) सब पापों और कष्टों से छुड़ाने वाला परमात्मा के लिये (मनीषाम्) अपनी मानस इच्छा या स्तुति को (प्रभरे) भेटरूप में रखता हूं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवान् इन्द्र ! परमेश्वर ! तू (यमं हव्यं) इस ज्ञानमय स्तुति को (प्रति गृभाय) स्वीकार कर। (यजमानस्य) देवोपासना करने वाले मेरी (कामाः) सब काम संकल्प कामनाएं (सत्याः) सत्य रूप से सफल (सन्तु) हों।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘सुमतिं मा’ इति बहुत्र। (प्र०) ‘प्रभरेमा मनीषाम्’ इति पैप्प० सं०, तै० सं०। (द्वि०) ‘ओषिष्ठ दाव्ने सुमतिं गृणानः’ इति तै० सं०। ‘भूयिष्ठ दाव्ने सुमतिमावृणानः’ इति मै० सं०। ‘हव्यं जुषस्व’ इति मै० सं०। ‘हव्या’ इति पैप्प० सं० (तृ०) इदमिन्द्र इति क्वचित्। (द्वि०) सुमतिं गृणानः। ‘हव्या’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्म देवता। १ अनुष्टुप्। २ त्र्यवसाना ककुम्मती पथ्या पंक्तिः। ३ त्रिष्टुप्। ४ जगती। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
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