अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म
छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। सोमो॑ मा॒ तत्र॑ नयतु॒ पयः॒ सोमो॑ दधातु मे। सोमा॑य॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। सोमः॑। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। पयः॑। सोमः॑। द॒धा॒तु॒। मे॒। सोमा॑य। स्वाहा॑ ॥४३.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। सोमो मा तत्र नयतु पयः सोमो दधातु मे। सोमाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। सोमः। मा। तत्र। नयतु। पयः। सोमः। दधातु। मे। सोमाय। स्वाहा ॥४३.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
विषय - ईश्वर से परमपद की प्रार्थना।
भावार्थ -
(सोमः मा तत्र नयतु) सोमलता के समान सब लोकों का प्रेरक प्रभु मुझे उस पद पर लेजावे (सोमः मे पयः दधातु, सोमाय स्वाहा) सोम, सर्वप्रेरक, सर्वोत्पादक प्रभु मुझे पय, पुष्टिकारक अन्न, वीर्य, तेज प्रदान करे। उस सोम की मैं उत्तम स्तुति करता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। ब्रह्म, बहवो वा देवता। त्र्यवसानाः। ककुम्मत्यः पथ्यापंक्तयः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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