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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 55

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त

    सा॒यंसा॑यं गृ॒हप॑तिर्नो अ॒ग्निः प्रा॒तःप्रा॑तः सौमन॒सस्य॑ दा॒ता। वसो॑र्वसोर्वसु॒दान॑ एधि व॒यं त्वेन्धा॑नास्त॒न्वं पुषेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒यम्ऽसा॑यम्। गृ॒हऽप॑तिः। नः॒। अ॒ग्निः। प्रा॒तःऽप्रा॑तः। सौ॒म॒न॒सस्य॑। दा॒ता। वसोः॑ऽवसोः। व॒सु॒ऽदानः॑। ए॒धि॒। व॒यम्। त्वा॒। इन्धा॑नाः। त॒न्व᳡म्। पु॒षे॒म॒ ॥५५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातःप्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सायम्ऽसायम्। गृहऽपतिः। नः। अग्निः। प्रातःऽप्रातः। सौमनसस्य। दाता। वसोःऽवसोः। वसुऽदानः। एधि। वयम्। त्वा। इन्धानाः। तन्वम्। पुषेम ॥५५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे परमेश्वर ! हे गृहपते ! (नः गृहपतिः) हमारे गृह का पालक होकर (अग्निः) ज्ञानवान् प्रकाशवान् परमेश्वर (सायम् सायम्) प्रत्येक सायंकाल और (प्रातः प्रातः) प्रत्येक प्रातःकाल, अर्थात् शाम सबेरे, (सौमनसस्य) उत्तम चित्त, उत्तम संकल्पवान् मन, स्थिति अर्थात् सुख, स्वस्थता का (दाता) देने वाला है। (वसोः वसोः) प्रत्येक प्रकार के ऐश्वर्य का तू (वसुदानः) प्रदाता (एधि) हो (वयम्) हम (त्वा इन्धानः) तुझे प्रज्वलित करते हुए, तेरे गुणों का प्रकाश करते हुए (तन्वं पुषेम) अपने शरीर को पुष्ट करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। अग्निर्देवता। २ आस्तारपंक्तिः। ५, ६ (प्र० द्वि०) त्र्यवसाना पञ्चपदा पुरस्ताज्ज्योतिष्मती। ६ (तृ० च०) ७ (प्र० द्वि०) (?) शेषाः त्रिष्टुभः। षडृचं सूक्तम्॥

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