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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 58

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 58/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यज्ञः, मन्त्रोक्ताः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यज्ञ सूक्त

    व्र॒जं कृ॑णुध्वं॒ स हि वो॑ नृ॒पाणो॒ वर्मा॑ सीव्यध्वं बहु॒ला पृ॒थूनि॑। पुरः॑ कृणुध्व॒माय॑सी॒रधृ॑ष्टा॒ मा वः॑ सुस्रोच्चम॒सो दृं॑हता॒ तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्र॒जम्। कृ॒णु॒ध्व॒म्। सः। हि। वः॒। नृ॒ऽपानः॑। वर्म॑। सी॒व्य॒ध्व॒म्। ब॒हु॒ला। पृ॒थूनि॑। पुरः॑। कृ॒णु॒ध्व॒म्। आय॑सीः। अधृ॑ष्टाः। मा। वः॒। सु॒स्रो॒त्। च॒म॒सः। दृं॒ह॒त॒। तम् ॥५८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्रजं कृणुध्वं स हि वो नृपाणो वर्मा सीव्यध्वं बहुला पृथूनि। पुरः कृणुध्वमायसीरधृष्टा मा वः सुस्रोच्चमसो दृंहता तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्रजम्। कृणुध्वम्। सः। हि। वः। नृऽपानः। वर्म। सीव्यध्वम्। बहुला। पृथूनि। पुरः। कृणुध्वम्। आयसीः। अधृष्टाः। मा। वः। सुस्रोत्। चमसः। दृंहत। तम् ॥५८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 58; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे मनुष्यो ! (व्रजं कृणुध्वम्) गौश्नों के रहने के लिये बड़ी गोशाला बनाओ। (सः हि) वह ही निश्चय से (वः) तुम्हारे (नृपाणः) सब मनुष्यों का पालन करने में समर्थ है। और (बहुला) बहुत से (पृथूनि) बड़े बड़े विस्तृत (वर्मा) शरीररक्षक कवच (सीव्यध्वम्) सीयो। बड़े बड़े कवच बनाओ। (आयसीः) लोहे की (पुरः) दृढ़ नगरियां (अधृष्टाः) जिन पर शत्रु अपना बल न जमा सकें ऐसी (कृणुध्वम्) बनाओ। (वः) तुम्हारा (चमसः) चमस पात्र, अन्न आदि का साधन (मा सुस्रोत) मत बहे मत चूए। (तम् दृंहत) उसको खूब दृढ़ करो। अध्यात्म में—हे मनुष्यो (व्रजं कृणुध्वम्) शरीर आदि संघात को दृढ़ करो। (सः हि वः नृपाणः) वह ही तुम्हारे नृ=अर्थात् विषयतक पहुंचाने वाले नेता, इन्द्रियों का पालक है। उनके लिये (बहुला पृथूनि वर्मा सीव्यध्वम्) बहुतसे बड़े बड़े रक्षा साधन तैयार करो। उनको (अधृष्टा आयसीः पुरः कृणुध्वम्) पराजित न होने वाली लोहे से बनी पुरियों के समान अपने विषयों के ग्रहण में समर्थ बनाश्रो। (वः चमसः मा सुस्रोत्) तुम्हारा चमस अर्थात् पूर्णपात्र के समान ब्रह्मचर्य से पूर्ण देह स्रवित न हो, ब्रह्मचर्य खण्डित न हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। मन्त्रोक्ता बहवो देवताः। उत यज्ञो देवता। १, ४, ६ त्रिष्टुभः। २ पुरोऽनुष्टुप्। ३ चतुष्पदा अतिशक्वरी। ५ भुरिक्। षडृचं सूक्तम्।

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