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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 115/ मन्त्र 1
अ॒हमिद्धि पि॒तुष्परि॑ मे॒धामृ॒तस्य॑ ज॒ग्रभ॑। अ॒हं सूर्य॑ इवाजनि ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । इत् । हि । पि॒तु: । परि॑ । मे॒धाम् । ऋ॒तस्य॑ । ज॒ग्रभ॑ । अ॒हम् । सूर्य॑:ऽइव । अ॒ज॒नि॒ ॥११५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ। अहं सूर्य इवाजनि ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । इत् । हि । पितु: । परि । मेधाम् । ऋतस्य । जग्रभ । अहम् । सूर्य:ऽइव । अजनि ॥११५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 115; मन्त्र » 1
विषय - राजा, परमेश्वर।
भावार्थ -
(अहम् इत्) मैं ही केवल (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, व्यक्त जगत् और राष्ट्र के व्यवस्था कानून के और (पितुः) पालक प्रभु कीं (मेधाम्) पवित्र सत्संगकारी बुद्धि को (परि जग्रभ) सब प्रकार से ग्रहण करता हूँ, धारण करता हूं, इसलिये (अहं) मैं (सूर्य इव) सूर्य के समान (अजनि) हो जाता हूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्र्यः। तृचं सूक्तम्॥
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