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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 120/ मन्त्र 2
यद्वा॒ रुमे॒ रुश॑मे॒ श्याव॑के॒ कृप॒ इन्द्र॑ मा॒दय॑से॒ सचा॑। कण्वा॑सस्त्वा॒ ब्रह्म॑भि॒ स्तोम॑वाहस॒ इन्द्रा य॑च्छ॒न्त्या ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । वा॒ । समे॑ । रुश॑मे । श्याव॑के । कृपे॑ । इन्द्र॑ । मा॒दय॑से । सचा॑ ॥ कण्वा॑स: । त्वा॒ । ब्रह्म॑ऽभि: । स्तोम॑ऽवाहस: । इन्द्र॑ । आ । य॒च्छ॒न्ति॒ । आ । ग॒हि॒ ॥१२०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्वा रुमे रुशमे श्यावके कृप इन्द्र मादयसे सचा। कण्वासस्त्वा ब्रह्मभि स्तोमवाहस इन्द्रा यच्छन्त्या गहि ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । वा । समे । रुशमे । श्यावके । कृपे । इन्द्र । मादयसे । सचा ॥ कण्वास: । त्वा । ब्रह्मऽभि: । स्तोमऽवाहस: । इन्द्र । आ । यच्छन्ति । आ । गहि ॥१२०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 120; मन्त्र » 2
विषय - परमेश्वर।
भावार्थ -
(यद् वा) और हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! परमात्मन् ! तु (रुमे) उपदेश और श्रुतिसम्पन्न ज्ञानी पुरुष में, (रुशमे) हिंसाकारी क्षत्रिय पुरुष में, (श्यावके) देश देशान्तर जाने वाले व्यापारी पुरुष में और (कृपे) शारीरिक शक्ति वाले, श्रमी पुरुष में, इन चारों में (सचा, समान भाव से (मादयसे) स्वयं तृप्त, आनन्दमय एवं सबके आत्मा को आनन्दित करता है। (स्तोमवाहसः) स्तुतियों को धारण करने वाले, (कण्वासः) मेधावी विद्वान् पुरुष (ब्रह्मभिः) ब्रह्म वेदमन्त्रों से, हे (इन्द) ईश्वर ! (आयच्छन्ति) तुझे स्मरण करते हैं। तू (आगहि) साक्षात् प्राप्त हो, दर्शन दे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - देवातिथिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। प्रगाथः। द्व्यृचं सूक्तम्॥
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