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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 16/ मन्त्र 3
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१६

    सा॑ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः। बृह॒स्पतिः॒ पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒धु॒ऽअ॒र्या: । अ॒ति॒थिनी॑: । इ॒षि॒रा: । स्पा॒र्हा: । सु॒ऽवर्णा॑: । अ॒न॒व॒द्यऽरू॑पा: ॥ बृह॒स्पति॑: । पर्व॑तेभ्य: । वि॒ऽतूर्य॑ । नि: । गा: । ऊ॒पे॒ । यव॑म्ऽइव । स्थि॒विऽभ्य॑: ॥१६.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साध्वर्या अतिथिनीरिषिरा स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः। बृहस्पतिः पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    साधुऽअर्या: । अतिथिनी: । इषिरा: । स्पार्हा: । सुऽवर्णा: । अनवद्यऽरूपा: ॥ बृहस्पति: । पर्वतेभ्य: । विऽतूर्य । नि: । गा: । ऊपे । यवम्ऽइव । स्थिविऽभ्य: ॥१६.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 16; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (बृहस्पतिः) वृहस्पति, वायु, जिस प्रकार (पर्वतेभ्यः) पर्वत अर्थात् मेघों से (गाः वितूर्य) गमन करने वाली जलधाराओं को निकाल कर उनमें (यवम् निः ऊपे) यव=जव अर्थात् वेग को स्थापित करता है। और (बृहस्पतिः) जिस प्रकार बृहस्पति मन या मुख्य प्राण (पर्वतेभ्यः) पर्व वाले शरीर के अंगों से (गाः) इन्द्रियों को (वितूर्य) वेग से बाहर करके उनमें (स्थिविभ्यः) स्थिर पदार्थों के ग्रहण के लिये (यवम्) ज्ञान ग्रहण करने वाले सामर्थ्य को स्थापित करता है, उसी प्रकार (बृहस्पतिः) बृहती, वेदवाणी का पालक पुरुष (गाः) गमन करने योग्य, भोगयोग्य (साधु-अर्याः) उत्तम स्वामिनी होने वाली (अतिथिनीः) अतिथि के समान पूज्यवरों को प्राप्त होने वाली (स्पार्हाः) स्पृहा या कामना के योग्य, सुन्दर, मनोहर, (सुवर्णाः) उत्तम रूपवती कन्याओं को (पर्वतेभ्यः) पालन पोषण करने हारे माता पिताओं या गृहस्थों से (वितूर्य) पृथक् करके (स्थिविभ्यः) स्थिर, स्थायी, जितेन्द्रिय पुरुषों को प्रदान कर उन द्वारा (यवम् निः ऊपे) उनमें बीज आधान कराता और उसी प्रकार सन्तान उत्पन्न कराता है। जिस प्रकार (गाः यवम् इव) पृथिवियों पर जौ आदि अन्न उत्पन्न किया जाता है। अर्थात् अगली सन्तति के लिये युवती कन्याओं को योग्य वरों के द्वारा गृहस्थ कार्य में युक्त करना भी बृहस्पति, वेद के विद्वान् पुरुष का कर्तव्य है। विद्वान् आचार्य के पक्ष में—बृहस्पति वेद का विद्वान (साध्वर्याः) साधु रीति से ज्ञान करने योग्य, (अतिथिनीः) आत्मा या परमेश्वर तक पहुंचाने वाली, सुन्दर शुभ वर्णों वाली, अनिन्द्य, पवित्र (गाः) वेदवाणियों के (पर्वतेभ्यः) पर्व वाले, ज्ञान का पालन करने में समर्थ ग्रन्थों या विद्वानों से (वितूर्य) प्राप्त करके (स्थिविभ्यः) स्थिर, व्रतपालक शिष्यों के लिये उनको (निः ऊपे) यथावत् वीज वपन के समान उपदेश करता है। राजा के पक्ष में—वेद का विद्वान् पुरोहित पर्वत के समान ऊंचे राजाथों के हाथों से (गाः) प्रजाओं को निकालकर (स्थिविभ्यः) स्थिर निवासियों के लिये उनमें (यचम् निः ऊपे) यव अर्थात् राष्ट्र शक्ति का आाधान करता है। राष्ट्रं वै वयः। तै० ३। १। ३। ७॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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