अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
अ॒भि हि स॑त्य सोमपा उ॒भे ब॒भूथ॒ रोद॑सी। इन्द्रासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धः पति॑र्दि॒वः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । हि । स॒त्य॒ । सो॒म॒ऽपा॒: । उ॒भे इति॑ । ब॒भूथ॑ । रोद॑सी॒ इति॑ ॥ इन्द्र॑ । असि॑ । सु॒न्व॒त: । वृ॒ध: । पति॑: । दि॒व: ॥६४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि हि सत्य सोमपा उभे बभूथ रोदसी। इन्द्रासि सुन्वतो वृधः पतिर्दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । हि । सत्य । सोमऽपा: । उभे इति । बभूथ । रोदसी इति ॥ इन्द्र । असि । सुन्वत: । वृध: । पति: । दिव: ॥६४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
विषय - ईश्वर और राजा।
भावार्थ -
हे (सत्य) सत्यस्वरूप ! तू (सोमपाः) सोमरूप संसार या परमैश्वर्य का पालन करने हारा होकर (उभे रोदसी) दोनों लोकों को (अभि बभूथ) वश करता है। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यचन् ! तू (सुन्वतः वृधः) अपने सवन करने वाले उपासक को बढ़ाने वाला और (दिवः पतिः) ज्ञानी पुरुष और द्यौ और सूर्य का भी पालक है।
राजा के पक्ष में—हे सत्य व्यवहार के रक्षक राजन् ! तू (सोमपाः) राष्ट्र का रक्षक होकर (उभे रोदसी अभि बभूथ) राजा और प्रजा दोनों दलों के भी ऊपर है। अपना सवन या अभिषेक करने वाले या कर देने वाले प्रजागण का बढ़ाने वाला और ज्ञानवान् पुरुषों की सभा का पति है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १-३ नृमेधाः। ४-६ गोसूक्त्यश्वसूक्तिनौ। इन्द्रो देवता। उष्णिहः॥
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