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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 119/ मन्त्र 2
सूक्त - कौशिक
देवता - वैश्वानरोऽग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पाशमोचन सूक्त
वै॑श्वान॒राय॒ प्रति॑ वेदयामि॒ यद्यृ॒णं सं॑ग॒रो दे॒वता॑सु। स ए॒तान्पाशा॑न्वि॒चृतं॑ वेद॒ सर्वा॒नथ॑ प॒क्वेन॑ स॒ह सं भ॑वेम ॥
स्वर सहित पद पाठवै॒श्वा॒न॒राय॑ । प्रति॑ । वे॒द॒या॒मि॒ । यदि॑ । ऋ॒णम् । स॒म्ऽग॒र: । दे॒वता॑सु । स: । ए॒तान् । पाशा॑न् । वि॒ऽचृत॑म् । वे॒द॒ । सर्वा॑न् । अथ॑ । प॒क्वेन॑ । स॒ह । सम् । भ॒वे॒म॒ ॥११९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
वैश्वानराय प्रति वेदयामि यद्यृणं संगरो देवतासु। स एतान्पाशान्विचृतं वेद सर्वानथ पक्वेन सह सं भवेम ॥
स्वर रहित पद पाठवैश्वानराय । प्रति । वेदयामि । यदि । ऋणम् । सम्ऽगर: । देवतासु । स: । एतान् । पाशान् । विऽचृतम् । वेद । सर्वान् । अथ । पक्वेन । सह । सम् । भवेम ॥११९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 119; मन्त्र » 2
विषय - ऋण और दोष का स्वीकार करना।
भावार्थ -
मैं ऋणी या दोषी पुरुष (वैश्वानराय) समस्त पुरुषों के हितकारी, जज, मजिस्ट्रेट या धर्माध्यक्ष के समक्ष (यद् ऋणम्) जो मेरे ऊपर ऋण है उसको (प्रति-वेदयामि) स्पष्टरूप से स्वीकार करता हूं। और (देवतासु) देव, विद्वान् पंचों के बीच (यः संगरः) जो मेरी प्रतिज्ञा है उसको भी निवेदन करता हूं। (स) वह धर्माध्यक्ष ही (एतान् सर्वान् पाशान्) इन सब दण्डव्यवस्थाओं को (वि चृतम्) स्पष्टरूप से (वेद) जानता है (अथ) और हम सब प्रजागण (पक्वेन सह) परिपक्व, सुविचारित परिणाम के साथ (सं भवेम) सहमत हों।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनृणकामः। कौशिक ऋषिः। अग्निर्देवता। त्रिष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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