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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
कः पृश्निं॑ धे॒नुं वरु॑णेन द॒त्तामथ॑र्वणे सु॒दुघां॒ नित्य॑वत्साम्। बृह॒स्पति॑ना स॒ख्यं जुषा॒णो य॑थाव॒शं त॒न्वः कल्पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठक: । पृश्नि॑म् । धे॒नुम् । वरु॑णेन । द॒त्ताम् । अथ॑र्वणे । सु॒ऽदुघा॑म् ॥ नित्य॑ऽवत्साम् । बृह॒स्पति॑ना । स॒ख्य᳡म् । जु॒षा॒ण: । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व᳡: । क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥१०९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
कः पृश्निं धेनुं वरुणेन दत्तामथर्वणे सुदुघां नित्यवत्साम्। बृहस्पतिना सख्यं जुषाणो यथावशं तन्वः कल्पयाति ॥
स्वर रहित पद पाठक: । पृश्निम् । धेनुम् । वरुणेन । दत्ताम् । अथर्वणे । सुऽदुघाम् ॥ नित्यऽवत्साम् । बृहस्पतिना । सख्यम् । जुषाण: । यथाऽवशम् । तन्व: । कल्पयाति ॥१०९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 104; मन्त्र » 1
विषय - प्रजापति ईश्वर।
भावार्थ -
(कः) प्रजापति के सिवाय और कौन है जो (पृश्चिम्) श्वेत वर्ण, उज्ज्वल अथवा ब्रह्मानन्द के भीतरी रस का आस्वादन करने वाली, (वरुणेन) सर्व विघ्ननिवारक परम राजा प्रभु ईश्वर की (अथर्वणे) ज्ञानवान्, अहिंसित नित्य आत्मा को (दत्ताम्) प्रदान की हुई दुधारी सुशील गाय के समान (सु-दुधाम्) आत्म-सुख प्रदान करने और (धेनुम्) रसपान करने वाली (नित्य-वत्सां) नित्य मनोरूप वत्स के साथ जुड़ी हुई अथवा (नित्य वत्सां) नित्य निवास करनेहारी अविनाशिनी शक्ति को (बृहस्पतिना) वाणी के पालक प्राण के साथ (सख्यम्) मैत्रीभाव को (जुषाणः) रखता हुआ या परस्पर प्रजा के साथ उस शक्ति से प्रेम ममत्व का सम्बन्ध करता हुआ, (यथा-वशम्) अभिलाषा या इच्छा के अनुसार (तन्वः) इस शरीर के भीतर (कल्पयाति) सामर्थ्यवान् बनाता है। अर्थात् इस शरीर में नित्य चेतनाशक्ति को प्राण के साथ जोड़कर उसे शरीर के भीतर इच्छानुसार कार्य करने को समर्थ कौन बनाता है ? वह प्रभु ही बनाता है। वरुण देव ने अथर्वा को गाय दी इत्यादि प्ररोचनामात्र है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः आत्मा देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
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