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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 113/ मन्त्र 2
सूक्त - भार्गवः
देवता - तृष्टिका
छन्दः - शङ्कुमती चतुष्पदा भुरिगुष्णिक्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
तृ॒ष्टासि॑ तृष्टि॒का वि॒षा वि॑षात॒क्यसि। परि॑वृक्ता॒ यथास॑स्यृष॒भस्य॑ व॒शेव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒ष्टा । अ॒सि॒ । तृ॒ष्टि॒का । वि॒षा । वि॒षा॒त॒की । अ॒सि॒ । परि॑ऽवृक्ता । यथा॑ । अस॑सि । ऋ॒ष॒भस्य॑ । व॒शाऽइ॑व ॥११८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तृष्टासि तृष्टिका विषा विषातक्यसि। परिवृक्ता यथासस्यृषभस्य वशेव ॥
स्वर रहित पद पाठतृष्टा । असि । तृष्टिका । विषा । विषातकी । असि । परिऽवृक्ता । यथा । अससि । ऋषभस्य । वशाऽइव ॥११८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 113; मन्त्र » 2
विषय - स्त्री पुरुषों में कलह के कारण।
भावार्थ -
हे कामातुर तृष्णालु स्त्रि ! तू (तृष्टा) तृष्णावाली हो कर ही (तृष्टिका असि) कुत्सित तृष्णावाली हो जाती है। तू (विषा) विषैली वेल के समान ही (विषातकी) अपने हृदय के द्वेष के विष से पति को ऐसी आतंक या दुःख देनेवाली (असि) हो जाती है कि (यथा) जिससे (वशा इव) जिस प्रकार बन्ध्या गौ (वृषभस्य) सन्तानोत्पादक वीर्यवान् महा सांड के भी छोड़ने योग्य होती है उसी प्रकार तू भी (वृषभस्य) वीर्यवान् पुत्रोत्पादन में समर्थ पति के भी (परि-वृक्ता) छोड़ने योग्य (अससि) हो जाती है। अर्थात् जो स्त्री काम-तृष्णा में फंस जाती है वह तृष्णा के कारण ही बदनाम हो जाती है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भार्गव ऋषिः। तृष्टिका देवता। १ विराट् अनुष्टुप्। शङ्कुमती, चतुष्पदा भुरिक् उष्णिक्। द्वयृचं सूक्तम्॥
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