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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 116

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 116/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वाङ्गिराः देवता - चन्द्रमाः छन्दः - एकावसाना द्विपदार्च्यनुष्टुप् सूक्तम् - ज्वरनाशन सूक्त

    यो अ॑न्ये॒द्युरु॑भय॒द्युर॒भ्येती॒मं म॒ण्डूक॑म॒भ्येत्वव्र॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒न्ये॒द्यु॒: । उ॒भ॒य॒ऽद्यु: । अ॒भि॒ऽएति॑ । इ॒मम । म॒ण्डूक॑म् । अ॒भि । ए॒तु॒ । अ॒व्र॒त: ॥१२१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अन्येद्युरुभयद्युरभ्येतीमं मण्डूकमभ्येत्वव्रतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अन्येद्यु: । उभयऽद्यु: । अभिऽएति । इमम । मण्डूकम् । अभि । एतु । अव्रत: ॥१२१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 116; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    और (यः) जो (अन्येद्युः) एक दिन छोड़कर अगले दिन आवे, (उभये) दो दिन छोड़कर (अभ्येति) आवे या दो दिन आकर एक दिन छोड़े और (अव्रतः) जो बिना किसी नियम के आवे वह सब ज्वर (इमं मण्डूकम्) इस मेंढक पर (अभि-एति) आता है और निर्बल हो जाता है। दलदल की जगहों में उत्पन्न ज्वर आदि रोगों को सहन करने की क्षमता दल दलकी ओषधियों और जीवों में है। इसलिये उनके शरीर का भीतरी विष अवश्य ज्वर के विष का शमनकारी होगा इस सिद्धान्त से ज्वर के लिये मेंडक का प्रयोग बतलाया गया है। ऐसा ही प्रयोग सर्प काटे का भी पूर्व लिख आये हैं। ज्वर प्रकरण देखो (का० १ सू० २६) मण्डूक के अर्थ और भी हैं। जैसे कि श्योनाक वृक्ष, मण्डूक पर्णी ओषधि अर्थात् मंजीठ, ब्राह्मी इत्यादि।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। चन्द्रमाः देवता। १ परा उष्णिक्। २ एकावसानाद्विपदा आर्ची अनुष्टुप्। द्वयृचं सक्तम्॥

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