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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 25/ मन्त्र 2
सूक्त - मेधातिथिः
देवता - विष्णुः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विष्णु सूक्त
यस्ये॒दं प्र॒दिशि॒ यद्वि॒रोच॑ते॒ प्र चान॑ति॒ वि च॒ चष्टे॒ शची॑भिः। पु॒रा दे॒वस्य॒ धर्म॑णा॒ सहो॑भि॒र्विष्णु॑मग॒न्वरु॑णं पू॒र्वहू॑तिः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । इ॒दम् । प्र॒ऽदिशि॑ । यत् । वि॒ऽरोच॑ते । प्र । च॒ । अन॑ति । वि । च॒ । चष्टे॑ । शची॑भि: । पु॒रा । दे॒वस्य॑ । धर्म॑णा । सह॑:ऽभि: । विष्णु॑म् । अ॒ग॒न् । वरु॑णम् । पू॒र्वऽहू॑ति: ॥२६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्येदं प्रदिशि यद्विरोचते प्र चानति वि च चष्टे शचीभिः। पुरा देवस्य धर्मणा सहोभिर्विष्णुमगन्वरुणं पूर्वहूतिः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । इदम् । प्रऽदिशि । यत् । विऽरोचते । प्र । च । अनति । वि । च । चष्टे । शचीभि: । पुरा । देवस्य । धर्मणा । सह:ऽभि: । विष्णुम् । अगन् । वरुणम् । पूर्वऽहूति: ॥२६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 25; मन्त्र » 2
विषय - विष्णु और वरुण रूप परमेश्वर का सबसे पूर्व स्मरण।
भावार्थ -
उक्त दोनों शक्तियों को और अधिक स्पष्ट करते हैं। इस विशाल संसार में (यस्य प्र-दिशि) जिसके शासन में (इदं) यह समस्त विश्व (वि-रोचते) नाना प्रकार से शोभा पा रहा है, (प्र अनति च) और उत्तम रूप से प्राण धारण करता है, जीवित रहता है, और (शचीभिः च वि चष्टे) नाना शक्तियों से प्रेरित होकर नाना प्रकार के पदार्थों को देखता, पाता, अनुभव करता है, और जिस (देवस्य) सर्व प्रकाशक सर्व शक्ति के प्रदाता, प्रभु परमात्मा के (धर्मणा) धारक बल और (सहोभिः) दमनकारी बलों से (पुरा) पूर्व कल्पों में भी यह जगत् उसके शासन में रहा, प्राण लेता रहा, और नाना शक्तियों से नाना फल प्राप्त करता रहा वह शक्ति विष्णु और वरुण है, ये दोनों नाम उसी के हैं। उस (विष्णुम् वरुणम्) व्यापक और कष्टनिवारक प्रभु को (पूर्वहूतिः) सबसे प्रथम हमारा स्मरण, नाम ग्रहण (अगन्) प्राप्त हो।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिर्ऋषिः। विष्णुर्वरुणश्च देवते। १, २ त्रिष्टुभौ द्वयृचं सूक्तम्॥
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