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अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
अग्ने॒ तप॑स्तप्यामह॒ उप॑ तप्यामहे॒ तपः॑। श्रु॒तानि॑ शृ॒ण्वन्तो॑ व॒यमायु॑ष्मन्तः सुमे॒धसः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । तप॑: । त॒प्या॒म॒हे॒ । उप॑ । त॒प्या॒म॒हे॒ । तप॑: । श्रु॒तानि॑ । शृ॒ण्वन्त॑: । व॒यम् । आयु॑ष्मन्त: । सु॒ऽमे॒धस॑: ॥६३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तपस्तप्यामह उप तप्यामहे तपः। श्रुतानि शृण्वन्तो वयमायुष्मन्तः सुमेधसः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । तप: । तप्यामहे । उप । तप्यामहे । तप: । श्रुतानि । शृण्वन्त: । वयम् । आयुष्मन्त: । सुऽमेधस: ॥६३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
विषय - तपस्या का व्रत।
भावार्थ -
हे (अग्ने) ब्रह्मन् ! आचार्य ! ज्ञानमय, ज्ञानप्रकाशक ! हम (तपः) तप (तप्यामहे) करें, और (तपः) तपस्वरूप आत्मा और ब्रह्म की ही (उप तप्यामहे) उपासना या ज्ञान करें। हम (श्रुतानि) वेदवाक्यों का (शृण्वन्तः) श्रवण करते हुए (सु-मेधसः) उत्तम बुद्धि सम्पन्न और (आयुष्मन्तः) दीर्घायु होकर रहें।
टिप्पणी -
‘तप पर्यालोचने’ इति धातुपाठः। वेद का पर्यालोचन, साक्षात्कार और अनुशीलन करना ‘तप’ है। ऋत, सत्य, तप, शम, दम, यज्ञ, मनुष्यसेवा, प्रजोत्पादन, प्रजारक्षण, प्रजावर्धन और स्वाध्याय तथा प्रवचन करना यही तप है। राथीतर आचार्य सत्यपालन को तप कहते हैं। पौरुशिष्ट आचार्य ‘तप’ को ही तप कहते हैं। वास्तव में ऋत आदि सभी ‘तप’ हैं। ‘ऋतं’ तपः, सत्यं तपः, श्रुतं तपः, शान्तं तपो, दमस्तपः, शमस्तपः, दानं तपो यज्ञस्तपो, भूर्भुवः सुवर्ब्रह्मेतदुपास्वैतत्तपः। (तैत्तरीय आरण्यक प्रपा १०। अनु० ८) तैत्तिरीयारण्यक में ऋत आदि क्यों तप हैं इसकी विस्तृत व्याख्या देखने योग्य है। ‘मनसश्चेन्द्रियाणां चैकाग्रयं तप उच्यते’। मन और इन्द्रियों का दमन ही तप है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुभौ। द्वयृचं सूक्तम्॥
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