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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 77/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - मरुद्गणः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    सं॒व॒त्स॒रीणा॑ म॒रुतः॑ स्व॒र्का उ॒रुक्ष॑याः॒ सग॑णा॒ मानु॑षासः। ते अ॒स्मत्पाशा॒न्प्र मु॑ञ्च॒न्त्वेन॑सः सांतप॒ना म॑त्स॒रा मा॑दयि॒ष्णवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽव॒त्स॒रीणा॑: । म॒रुत॑: । सु॒ऽअ॒र्का: । उ॒रुऽक्ष॑या: । सऽग॑णा: । मानु॑षास: । ते । अ॒स्मत् । पाशा॑न् । प्र । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । एन॑स: । सा॒म्ऽत॒प॒ना: । म॒त्स॒रा: । मा॒द॒यि॒ष्णव॑: ॥८२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    संवत्सरीणा मरुतः स्वर्का उरुक्षयाः सगणा मानुषासः। ते अस्मत्पाशान्प्र मुञ्चन्त्वेनसः सांतपना मत्सरा मादयिष्णवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽवत्सरीणा: । मरुत: । सुऽअर्का: । उरुऽक्षया: । सऽगणा: । मानुषास: । ते । अस्मत् । पाशान् । प्र । मुञ्चन्तु । एनस: । साम्ऽतपना: । मत्सरा: । मादयिष्णव: ॥८२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 77; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (सं-वत्सरीणाः) एक एक वर्ष के लिये नियुक्त हुए (सु-अर्काः) उत्तम ज्ञानवान्, पूज्य, मननशील श्रेष्ठ (उरु-क्षयाः) बड़े बड़े महलों में या भवनों में निवास करनेवाले (स-गणाः) अपने सहायकारी साथियों सहित (मानुषासः) मननशील विचारवान् (मरुतः) जो देश के प्राण स्वरूप विद्वान पुरुष हैं (ते) वे (अस्मत्) हमारे (एनसः) पाप के (पाशान्) पाशों को (प्र मुञ्चन्तु) उत्तम रीति से दूर करें। वे ही उस पापकारी पुरुष के (सांतपनाः) अच्छी प्रकार तपाने वाले होते और (मादयिष्णवः) दूसरों को भी हर्षित किया करते हैं। गर्भाधन से लेकर उपनयन, विवाह, अग्निहोत्र, व्रताचार आदि करने वाले गृहस्थ लोग ‘सांतपन अग्नि’ कहाते हैं। वे देश में अपनी व्यवस्था उक्त रूप से रखें और प्रतिवर्ष अपनी व्यवस्था को सुधार लिया करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिराः ऋषिः। मरुतः सांतपना मन्त्रोक्ताः देवताः। १ त्रिपदा गायत्री। २ त्रिष्टुप्। ३ जगती। तृचात्मकं सूक्तम्॥

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