ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 38/ मन्त्र 10
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ द॑धि॒क्राः शव॑सा॒ पञ्च॑ कृ॒ष्टीः सूर्य॑इव॒ ज्योति॑षा॒पस्त॑तान। स॒ह॒स्र॒साः श॑त॒सा वा॒ज्यर्वा॑ पृ॒णक्तु॒ मध्वा॒ समि॒मा वचां॑सि ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठआ । द॒धि॒ऽक्राः । शव॑सा । पञ्च॑ । कृ॒ष्टीः । सूर्यः॑ऽइव । ज्योति॑षा । अ॒पः । त॒ता॒न॒ । स॒ह॒स्र॒ऽसाः । श॒त॒ऽसाः । वा॒जी । अर्वा॑ । पृ॒णक्तु॑ । मध्वा॑ । सम् । इ॒मा । वचां॑सि ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ दधिक्राः शवसा पञ्च कृष्टीः सूर्यइव ज्योतिषापस्ततान। सहस्रसाः शतसा वाज्यर्वा पृणक्तु मध्वा समिमा वचांसि ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठआ। दधिऽक्राः। शवसा। पञ्च। कृष्टीः। सूर्यःऽइव। ज्योतिषा। अपः। ततान। सहस्रऽसाः। शतऽसाः। वाजी। अर्वा। पृणक्तु। मध्वा। सम्। इमा। वचांसि ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 38; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
विषय - ‘दधिक्रा’ सेनापति राजा का वर्णन । भयहेतु ।
भावार्थ -
(सूर्य इव ज्योतिषा अपः ततान) सूर्य जिस प्रकार प्रकाश या तेज के बल से जलमय मेघों को विस्तारित करता है, उसी प्रकार (दधिक्राः) राष्ट्र को धारण करके शत्रु पर आक्रमण करने या उसको रथवत् चलाने में कुशल पुरुष (शवसा) अपने बल से (पञ्च कृष्टीः) पांचों प्रजाजनों को (आ ततान) विस्तृत करे और वश करे । वह (सहस्र-साः) सहस्रों को देने वाला और (शत-साः) सैकड़ों का दाता, (वाजी) अन्न, ज्ञान, ऐश्वर्यादि का स्वामी (अर्वा) शत्रुहिंसक होकर भी (इमा वचांशि) इन वचनों को (मध्वा) मधुर गुण से (सं मृणक्तु) युक्त करे । (२) ज्ञान धारण करके अन्यों को उपदेश करने से विद्वान् पुरुष भी ‘दधिक्राः ‘ है । वह ज्ञान ज्योति से सबको व्यापे, वचनों के मधुर ज्ञान से युक्त करे । इति द्वादशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ १ द्यावापृथिव्यौ। २-१० दधिक्रा देवता ॥ छन्दः- १, ४ विराट् पंक्तिः। ६ भुरिक् पंक्तिः। २, ३ त्रिष्टुप्। ५, ८, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥
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