ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - दध्रिकाः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ॒शुं द॑धि॒क्रां तमु॒ नु ष्ट॑वाम दि॒वस्पृ॑थि॒व्या उ॒त च॑र्किराम। उ॒च्छन्ती॒र्मामु॒षसः॑ सूदय॒न्त्वति॒ विश्वा॑नि दुरि॒तानि॑ पर्षन् ॥१॥
स्वर सहित पद पाठआ॒शुम् । द॒धि॒ऽक्राम् । तम् । ऊँ॒ इति॑ । नु । स्त॒वा॒म॒ । दि॒वः । पृ॒थि॒व्याः । उ॒त । च॒र्कि॒रा॒म॒ । उ॒च्छन्तीः॑ । माम् । उ॒षसः॑ । सू॒द॒य॒न्तु॒ । अति॑ । विश्वा॑नि । दुः॒ऽइ॒तानि॑ । प॒र्ष॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आशुं दधिक्रां तमु नु ष्टवाम दिवस्पृथिव्या उत चर्किराम। उच्छन्तीर्मामुषसः सूदयन्त्वति विश्वानि दुरितानि पर्षन् ॥१॥
स्वर रहित पद पाठआशुम्। दधिऽक्राम्। तम्। ऊम् इति। नु। स्तवाम। दिवः। पृथिव्याः। उत। चर्किराम। उच्छन्तीः। माम्। उषसः। सूदयन्तु। अति। विश्वानि। दुःऽइतानि। पर्षन् ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
विषय - ‘दधिक्रा’ परमेश्वर ।
भावार्थ -
(आशुं) वेगवान् (दधिक्राम्) धारण करके पीठ पर लेकर चलने में समर्थ अश्व के तुल्य (दिवः पृथिव्याः दधिक्राम्) आकाश और भूमि दोनों को धारण करने वाले और चलाने वाले (तम् अनु) उस परमेश्वर की ही निश्चय से हम स्तुति करें (उत) और (तम् अनु चर्किराम) उसके गुणों को सर्वत्र फैलावें । (उच्छन्तीः) अन्धकार को दूर करती हुई (उषसः) प्रभात वेलाओं के समान ज्ञान दीप्तियां और धार्मिक अग्नियें (माम् सूदयन्तु) मुझे अपना रस प्रदान करें, और वे मुझे (विश्वानि दुरितानि पर्षन्) समस्त बुराइयों से पार करें। (२) राष्ट्रपक्ष में—राष्ट्र का धारक, सञ्चालक विद्वान् ‘दधिक्रा’ है । राजा जो तेजस्वी ज्ञानवान् पुरुषों और सामान्य भूमि निवासी प्रजा दोनों को धारण करता है, शत्रु दाहक सेनाएं मुझ राष्ट्र प्रजा को ऐश्वर्य दें और सब दुःखदायी संकटों से पार करें। अथवा उत्तरार्ध मन्त्र राजा का सेनाओं या प्रजाओं के प्रति है, कि वे प्रभात-वेला के समान (उच्छन्तीः) मनोभावों को प्रकट करती हुई (माम् सूदयन्तु) मुझ राजा का अभिषेक करें, और सब पापों से पार करें ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ दधिक्रा देवता॥ छन्दः- १, ३, ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २, स्वराट् पंक्तिः। ६ अनुष्टुप॥ षडृचं सूक्तम्॥
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