ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 57/ मन्त्र 7
इन्द्रः॒ सीतां॒ नि गृ॑ह्णातु॒ तां पू॒षानु॑ यच्छतु। स नः॒ पय॑स्वती दुहा॒मुत्त॑रामुत्तरां॒ समा॑म् ॥७॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रः॑ । सीता॑म् । नि । गृ॒ह्णा॒तु॒ । ताम् । पू॒षा । अनु॑ । य॒च्छ॒तु॒ । सा । नः॒ । पय॑स्वती । दु॒हा॒म् । उत्त॑राम्ऽउत्तराम् । समा॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रः सीतां नि गृह्णातु तां पूषानु यच्छतु। स नः पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ॥७॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रः। सीताम्। नि। गृह्णातु। ताम्। पूषा। अनु। यच्छतु। सा। नः। पयस्वती। दुहाम्। उत्तराम्ऽउत्तराम्। समाम् ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 57; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 9; मन्त्र » 7
विषय - उत्तम रीति से कृषि का उपदेश ।
भावार्थ -
(इन्द्र) ऐश्वर्यवान् पुरुष वा भूमि में जल देने वाला, भूमि को हल से विदारण करने वाला कृषक जन (सीतां निगृह्णातु) हल की फाली को अच्छी प्रकार दबाकर पकड़े। (ताम्) इस हल की फाली को (पूषा) भूमि (अनु यच्छतु) अनुकूल होकर ग्रहण करे। तब (सा) वह भूमि (पयस्वती) जल और अन्न से पूर्ण होकर (उत्तराम् उत्तराम् समाम्) उत्तरोत्तर प्रतिवर्ष (दुहाम्) दूध को गौ के समान अन्नादि समृद्धि को प्रदान करती हैं। (२) इन्द्र ऐश्वर्यवान्, बलवान् पुरुष प्रिय स्त्री का पाणि ग्रहण करे, पोषक पति उसके अनुकूल होकर (यच्छतु) विवाह करे। वह (पयस्वती) उत्तम अन्न और दुग्धवती होकर आगे के वर्षो में प्रजा सन्तानादि से गृह को पूर्ण करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वामदेव ऋषिः॥ १–३ क्षेत्रपतिः। ४ शुनः। ५, ८ शुनासीरौ। ६, ७ सीता देवता॥ छन्द:– १, ४, ६, ७ अनुष्टुप् । २, ३, ८ त्रिष्टुप् । ५ पुर-उष्णिक्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
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