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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
मृ॒ळा नो॑ रुद्रो॒त नो॒ मय॑स्कृधि क्ष॒यद्वी॑राय॒ नम॑सा विधेम ते। यच्छं च॒ योश्च॒ मनु॑राये॒जे पि॒ता तद॑श्याम॒ तव॑ रुद्र॒ प्रणी॑तिषु ॥
स्वर सहित पद पाठमृ॒ळ । नः॒ । रु॒द्र॒ । उ॒त । नः॒ । मयः॑ । कृ॒धि॒ । क्ष॒यत्ऽवी॑राय । नम॑सा । वि॒धे॒म॒ । ते॒ । यत् । शम् । च॒ । योः । च॒ । मनुः॑ । आ॒ऽये॒जे । पि॒ता । तत् । अ॒श्या॒म॒ । तव॑ । रु॒द्र॒ । प्रऽनी॑तिषु ॥
स्वर रहित मन्त्र
मृळा नो रुद्रोत नो मयस्कृधि क्षयद्वीराय नमसा विधेम ते। यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रुद्र प्रणीतिषु ॥
स्वर रहित पद पाठमृळ। नः। रुद्र। उत। नः। मयः। कृधि। क्षयत्ऽवीराय। नमसा। विधेम। ते। यत्। शम्। च। योः। च। मनुः। आऽयेजे। पिता। तत्। अश्याम। तव। रुद्र। प्रऽनीतिषु ॥ १.११४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
विषय - प्रार्थनाविषयः
व्याखान -
हे (रुद्र) दुष्टों को रुलानेहारे रुद्रेश्वर ! (नः) हमको (मृळ) सुखी कर (उत) तथा (मयः, कृधि) हमारे लिए मय, अर्थात् अत्यन्त सुख का सम्पादन कर । (क्षयद्वीराय, नमसा, विधेम, ते) शत्रुओं के वीरों का क्षय करनेवाले आपकी नमस्कारादि से अत्यन्त परिचर्या करनेवाले हम लोगों का रक्षण यथावत् कर। (यच्छम्) हे रुद्र ! आप हमारे पिता [जनक] और पालक हो, हमारी सब प्रजा को सुखी कर, (योश्च) और प्रजा के रोगों का भी नाश कर। जैसे (मनुः पिता) मान्यकारक पिता (आयेजे) स्वप्रजा को संगत और अनेकविध लाडन करता है, वैसे आप हमारा पालन करो। हे (रुद्र) भगवन् ! (तव, प्रणीतिषु) आपकी आज्ञा का (प्रणय), अर्थात् उत्तम न्याययुक्त नीतियों में प्रवृत्त होके हम (तदश्याम) वीरों के चक्रवर्ती राज्य को आपके अनुग्रह से प्राप्त हों ॥ ४५ ॥
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