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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - रुद्रः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    मृ॒ळा नो॑ रुद्रो॒त नो॒ मय॑स्कृधि क्ष॒यद्वी॑राय॒ नम॑सा विधेम ते। यच्छं च॒ योश्च॒ मनु॑राये॒जे पि॒ता तद॑श्याम॒ तव॑ रुद्र॒ प्रणी॑तिषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मृ॒ळ । नः॒ । रु॒द्र॒ । उ॒त । नः॒ । मयः॑ । कृ॒धि॒ । क्ष॒यत्ऽवी॑राय । नम॑सा । वि॒धे॒म॒ । ते॒ । यत् । शम् । च॒ । योः । च॒ । मनुः॑ । आ॒ऽये॒जे । पि॒ता । तत् । अ॒श्या॒म॒ । तव॑ । रु॒द्र॒ । प्रऽनी॑तिषु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मृळा नो रुद्रोत नो मयस्कृधि क्षयद्वीराय नमसा विधेम ते। यच्छं च योश्च मनुरायेजे पिता तदश्याम तव रुद्र प्रणीतिषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मृळ। नः। रुद्र। उत। नः। मयः। कृधि। क्षयत्ऽवीराय। नमसा। विधेम। ते। यत्। शम्। च। योः। च। मनुः। आऽयेजे। पिता। तत्। अश्याम। तव। रुद्र। प्रऽनीतिषु ॥ १.११४.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयः प्रोच्यते ।

    अन्वयः

    हे रुद्र ये वयं क्षयद्वीराय ते तुभ्यन्नमसा विधेम तान्नो त्वं मृड नोऽस्मभ्यमयस्कृधि च। हे रुद्र मनुः पितेव भवान् यच्छं च योश्चायेजे तदश्याम त उत वयं तव प्रणीतिषु वर्त्तमाना सततं सुखिनः स्याम ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (मृड) सुखय। अत्र दीर्घः। (नः) अस्मान् (रुद्र) दुष्टान् शत्रून् रोदयितः (उत) अपि (नः) अस्मभ्यम् (मयः) सुखम् (कृधि) कुरु (क्षयद्वीराय) क्षयन्तो विनाशिताः शत्रुसेनास्था वीरा येन तस्मै (नमसा) अन्नेन सत्कारेण वा (विधेम) सेवेमहि (ते) तुभ्यम् (यत्) (शम्) रोगनिवारणम् (च) ज्ञानम् (योः) दुःखवियोजनम्। अत्र युधातोर्डोसिः प्रत्ययः। (च) गुणप्रापणसमुच्चये (मनुः) मननशीलः (आयेजे) समन्ताद्याजयति (पिता) पालकः (तत्) (अश्याम) प्राप्नुयाम। अत्र व्यत्ययेन श्यन् परस्मैपदं च। (तव) (रुद्र) न्यायाधीश (प्रणीतिषु) प्रकृष्टासु नीतिषु ॥ २ ॥

    भावार्थः

    राजपुरुषाः स्वयं सुखिनो भूत्वा सर्वाः प्रजाः सुखयेयुः. नैवात्र कदाचिदालस्यं कुर्युः, प्रजाजनाश्च राजनीतिनियमेषु वर्त्तित्वा राजपुरुषान् सदा प्रीणयेयुः ॥ २ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब राजविषय कहा जाता है ।

    पदार्थ

    हे (रुद्र) दुष्ट शत्रुओं को रुलानेहारे राजन् ! जो हम (क्षयद्वीराय) विनाश किये शत्रु सेनास्थ वीर जिसने उस (ते) आपके लिये (नमसा) अन्न वा सत्कार से (विधेम) विधान करें अर्थात् सेवा करें, उन (नः) हम लोगों को तुम (मृड) सुखी करो और (नः) हम लोगों के लिये (मयः) सुख (कृधि) कीजिये। हे (रुद्र) न्यायाधीश ! (मनुः) मननशील (पिता) पिता के समान आप (यत्) जो रोगों का (शम्) निवारण (च) ज्ञान (योः) दुःखों का अलग करना (च) और गुणों की प्राप्ति का (आयेजे) सब प्रकार सङ्ग कराते हो (तत्) उसको (अश्याम) प्राप्त होवें (उत) वे ही हम लोग (तव) तुम्हारी (प्रणीतिषु) उत्तम नीतियों में प्रवृत्त होकर निरन्तर सुखी होवें ॥ २ ॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को योग्य है कि स्वयं सुखी होकर सब प्रजाओं को सुखी करें। इस काम में आलस्य कभी न करें और प्रजाजन राजनीति के नियम में वर्त्त के राजपुरुषों को सदा प्रसन्न रक्खें ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे (रुद्र) दुष्टों को रुलानेहारे रुद्रेश्वर ! (नः)  हमको (मृळ) सुखी कर (उत) तथा (मयः, कृधि)  हमारे लिए मय, अर्थात् अत्यन्त सुख का सम्पादन कर । (क्षयद्वीराय, नमसा, विधेम, ते) शत्रुओं के वीरों का क्षय करनेवाले आपकी नमस्कारादि से अत्यन्त परिचर्या करनेवाले हम लोगों का रक्षण यथावत् कर। (यच्छम्) हे रुद्र ! आप हमारे पिता [जनक] और पालक हो, हमारी सब प्रजा को सुखी कर, (योश्च) और प्रजा के रोगों का भी नाश कर। जैसे (मनुः पिता) मान्यकारक पिता (आयेजे) स्वप्रजा को संगत और अनेकविध लाडन करता है, वैसे आप हमारा पालन करो। हे (रुद्र) भगवन् ! (तव, प्रणीतिषु)  आपकी आज्ञा का (प्रणय), अर्थात् उत्तम न्याययुक्त नीतियों में प्रवृत्त होके हम (तदश्याम)  वीरों के चक्रवर्ती राज्य को आपके अनुग्रह से प्राप्त हों ॥ ४५ ॥

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    विषय

    शान्ति व निर्ममता

    पदार्थ

    १. हे (रुद्र) = ज्ञान देकर हमारी शत्रुभूत सब वासनाओं को रुलानेवाले प्रभो ! (नः मृळ) = वासनानाश के द्वारा हमारे जीवनों को सुखी कीजिए । (उत) = और (नः) = हमारे लिए (मयः कृधि) = तृप्ति [Satisfaction] कीजिए । आपकी कृपा से हम वासनाओं को जीतकर आत्मतुष्ट बन पाएँ । २. (क्षयद्वीराय) = वीरों में निवास करनेवाले (ते) = आपके लिए (नमसा) = नमन के द्वारा (विधेम) = हम पूजा करें । वस्तुतः वीर बनकर हम अपने को प्रभु का निवास - स्थान बनाएँ । उस वीरता को भी ‘बलं बलवतां चाहम्’ , ‘तेजस्तेजस्विनामहम्’ इन वाक्यों के अनुसार हम प्रभु की ही विभूतियाँ समझें । यह नमन है , नम्रता है जो हमें प्रभु के समीप पहुँचाती है । ३. (मनुः) = वह ज्ञानपुञ्ज (पिता) = सर्वरक्षक प्रभु (यत्) = जिस (शं च) = शान्ति को (योः च) = और भयों के यावन [दूरीकरण] को (आयेजे) = हमारे साथ सर्वथा सङ्गत करते हैं , (तत्) = उस शान्ति व भयों के पृथक्करण को हम हे (रुद्र) = ज्ञानप्रद प्रभो ! (तव प्रणीतिषु) = आपके प्रणयनों में - आपकी प्रेरणा के अनुसार चलने में (अश्याम) = प्राप्त करें । प्रभु की प्रेरणा के अनुसार चलने से जीवन में शान्ति व निर्भयता आती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - उपासना में ही सुख व तृप्ति है । प्रभु - प्रेरणा के अनुसार चलने पर शान्ति व निर्भयता प्राप्त होती है ।

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    विषय

    सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( रुद्र ) दुष्ट शत्रुओं को रुलाने वाले ! संसार के दुःखों को दूर करने वाले ! अध्यात्म ज्ञान के उपदेश देने हारे ! आचार्य ! ज्ञानरोधक अविद्या आदि के नाशक ! प्रभो ! ( नः मृड ) हमें सुखी कर । ( उत ) और ( नः ) हमें ( मयः कृधि ) सुख प्रदान कर । ( क्षयद्-वीराय ) शत्रु सेना के वीरों के नाश करने वाले ( ते ) तेरा ( नमसा ) अन्न, बल, वीर्य, पदाधिकार, मान, आदर द्वारा (विधेम) हम सत्कार करे । ( मनुः ) मननशील विवेकी (पिता) पालक राजा हमें ( यत् ) जो कुछ भी ( शं ) शान्तिदायक और (योः च ) दुःखों का नाशक साधन ( आयेजे ) प्रदान करता है हम ( तत् ) उसको ( अश्याम ) ओषधि के समान उपयोग करें । हे ( रुद्र ) दुःखों को दूर भगाने हारे हम ( तव ) तेरी उत्तम ( प्रणीतिषु ) नीतियों में चलें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी स्वतः सुखी व्हावे व सर्व प्रजेला सुखी करावे. या कामी कधी आळस करू नये. प्रजेने राजनीतीच्या नियमांचे पालन करावे व राजपुरुषांना सदैव प्रसन्न ठेवावे. ॥ २ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे दुष्टांना रडविणाऱ्या रौद्रस्वरूप ईश्वरा (नः) आम्हाला (मृड) सुखी कर व (मयस्कृधि) आम्ही सुख प्राप्त करावे अशी स्थिती उत्पन्न कर. (क्षयद्वीराय, नमसा, विधेम, ते) ते शत्रूच्या वीरांचा नाश करणाऱ्या परमेश्वरा, तुला वंदन करून तुझी सेवा करणाऱ्या आम्हा लोकांचे तु रक्षण कर, (यच्छम्) हे रुद्र [ईश्वरा] ! तू आमचा पिता व पालक आहेस. तरी आमच्या सर्व प्रजेला सुखी कर (योश्च) आणि प्रजेचे रोग नाहीसे कर. जसा (मनुः) माननीय पिता (आयेजे) आपल्या संतानाचे अनेक प्रकारे लाड करतो, तसेच तू आमचे पालन कर. हे (रुद्र) रौद्रस्वरूप भगवान ! (तव प्रणीतिषु) आम्ही तुइया आज्ञेचे [प्रणय] उत्तम न्याय नीतीमध्ये प्रवृत्त होऊन पालन करावे. (तदश्याम) तुझ्या अनुग्रहाने वीरांचे चक्रवर्ती राज्य प्राप्त व्हावे. ॥४५॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Rudra, be kind to us, be good and give us peace, comfort and good health. We do homage to you, leader and protector of the brave, with oblations and salutations. The peace and freedom which Manu, father guardian of humanity, procured and secured for us, may we, we pray, attain under your kind guidance and discipline.

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    Purport

    O the terrific God! O Compeller of the wicked to weep! Make us happy. Make us extremly happy and prosper. O the destroyer of the brave men of the enemy ! We who with reverential salutation serve you, beseech you to protect us in every possible way. O awe inspiring God! You are our father [creator] and protector. Make a lake all your subjects happy and prosper, also root out the diseases of all the subjects. cts. Just as a father has a regard for his offspring and treats them in a friendly manner and loves them in many ways, in the same way, do protect and rear us up. O Terror-inspiring Lord! Following your commandments, being engaged in the path of justice shown by you, we may acquire the imperial sovereign sway of the brave gentlemen by your grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes and duties of a King & Judge are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O dispenser of justice making wicked persons to weep. We make obeisance to you and honor you who are destroyer of inimical heroes (by offering food). Be gracious to us and grant us happiness. May we enjoy that happiness and exemption from disease that you bestow upon us like a thoughtful or wise father, following your noble directions. May we obtain freedom from disease, knowledge, exemption from miseries and acquisition of merits.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (नमसा ) अन्नेन सत्करणेन = By offering food and making obeisance. (शम्) रोगनिवारणम् (च) ज्ञानम् = Removal of diseases and knowledge. (यो:) दुःखवियोजनम् (च) गुणप्रापणम् = Exemption from miseries and acquisition of merits. (रुद्र) न्यायाधीश = Dispenser of Justice. (मनः) मननशील: = Thoughtful or wise.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The officers of the State should enjoy happiness themselves and should make the people to do so. They should never show laziness in the discharge of this duty. The subjects also should always please the officers of the State by abiding by the laws of the State.

    Translator's Notes

    It is wrong on the part of Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others to take Manu as the name of a particular person, while it simply means a thoughtful, reflective or wise man, as the word is derived from मन-ज्ञाने or मनु-अवगमे In the Shatapatha Brahmana 8 6.3.19 it is clearly stated ये विद्वांसस्ते मनव। (शतपथ० ८. ६. ३.१९ ) i e by manus are meant learned persons. Rishi Dayananda Sarasvati's interpretation is therefore authentic, being based upon the root-meaning and the Brahmana (Ancient Vedic Commentary).

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे रुद्र दुष्टजन हरु लाई रुवाउने रुद्रेश्वर ! नः= हामीलाई मृळ = सुखी गर्नुहोस् उत= तथा मयः, कृधि = हाम्रा निमित्त मय अर्थात् सुख को सम्पादन गर्नु होस् । क्षयद्वीराय, नमसा, विधेम, ते= वैरी हरु का वीर हरु लाई क्षय गर्नुहुने तपाईंको नमस्कारादि ले अत्यन्तै परिचर्या गर्ने हाम्रो यथावत् संरक्षण गर्नुहोस् । यच्छम्= हे रुद्र ! तपाईं हाम्रा पिता अर्थात् जनक र पालक हुनुहुन्छ, हाम्रा सम्पूर्ण जनता लाई सुखी गर्नुहोस्, योश्च= र जनता को रोग हरु को पनि नाश गर्नुहोस् । जस्तै मनुः पिता = मान्यतादिने पिता ले आयेजे = स्व प्रजा लाई राम्रो संगति र अनेक विध स्नेह गर्दछ, तेसै गरी तपाईंले हामी सबैको पालन गर्नु होस् । हे रुद्र= भगवन् ! तव, प्रणीतिषु = हजुरका आज्ञा को ‘प्रणय' अर्थात् उत्तम न्याय युक्त नीति हरु मा प्रवृत्त भएर हामी तदश्याम= तपाईंका अनुग्रह ले वीर हरु को चक्रवर्ती राज्य प्राप्त गरौं ॥४५॥ 

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