ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 4
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - रुद्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वे॒षं व॒यं रु॒द्रं य॑ज्ञ॒साधं॑ व॒ङ्कुं क॒विमव॑से॒ नि ह्व॑यामहे। आ॒रे अ॒स्मद्दैव्यं॒ हेळो॑ अस्यतु सुम॒तिमिद्व॒यम॒स्या वृ॑णीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे॒षम् । व॒यम् । रु॒द्रम् । य॒ज्ञ॒ऽसाध॑म् । व॒ङ्कुम् । क॒विम् । अव॑से । नि । ह्व॒या॒म॒हे॒ । आ॒रे । अ॒स्मत् । दैव्य॑म् । हेळः॑ । अ॒स्य॒तु॒ । सु॒ऽम॒तिम् । इत् । व॒यम् । अ॒स्य॒ । आ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वेषं वयं रुद्रं यज्ञसाधं वङ्कुं कविमवसे नि ह्वयामहे। आरे अस्मद्दैव्यं हेळो अस्यतु सुमतिमिद्वयमस्या वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वेषम्। वयम्। रुद्रम्। यज्ञऽसाधम्। वङ्कुम्। कविम्। अवसे। नि। ह्वयामहे। आरे। अस्मत्। दैव्यम्। हेळः। अस्यतु। सुऽमतिम्। इत्। वयम्। अस्य। आ। वृणीमहे ॥ १.११४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
वयमवसे यं त्वेषं वङ्कुं कविं यज्ञसाधं दैव्यं रुद्रं विह्वयामहे तथा वयं यस्यास्य सुमतिमावृणीमहे स इदेव सभाध्यक्षो हेडोऽस्मदारे अस्यतु ॥ ४ ॥
पदार्थः
(त्वेषम्) विद्यान्यायदीप्तिमन्तम् (वयम्) (रुद्रम्) शत्रुरोद्धारम् (यज्ञसाधनम्) यो यज्ञं प्रजापालनं साध्नोति तम् (वङ्कुम्) दुष्टशत्रून् प्रति कुटिलम् (कविम्) सर्वेषां शास्त्राणां क्रान्तदर्शिनम् (अवसे) रक्षणाद्याय (नि) (ह्वयामहे) स्वसुखदुःखनिवेदनं कुर्महे (आरे) दूरे (अस्मत्) (दैव्यम्) देवेषु विद्वत्सु कुशलम् (हेडः) धार्मिकाणामनादरकर्तॄनधार्मिकाञ्जनान् (अस्यतु) प्रक्षिपतु (सुमतिम्) धर्म्यां प्रज्ञाम् (इत्) एव (वयम्) (अस्य) (आ) समन्तात् (वृणीमहे) स्वीकुर्महे ॥ ४ ॥
भावार्थः
यथा प्रजास्था जना राजाज्ञां स्वीकुर्वन्ति तथा राजपुरुषा अपि प्रज्ञाज्ञां मन्येरन् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(वयम्) हम लोग (अवसे) रक्षा आदि के लिये जिस (त्वेषम्) विद्या न्याय प्रकाशवान् (वङ्कुम्) दुष्ट शत्रुओं के प्रति कुटिल (कविम्) समस्त शास्त्रों को क्रम-क्रम से देखने और (यज्ञसाधम्) प्रजापालनरूप यज्ञ को सिद्ध करनेहारे (दैव्यम्) विद्वानों में कुशल (रुद्रम्) शत्रुओं के रोकनेहारे को (नि, ह्वयामहे) अपना सुख-दुःख का निवेदन करें तथा (वयम्) हम लोग जिस (अस्य) इस रुद्र की (सुमतिम्) धर्मानुकूल उत्तम प्रज्ञा को (आ, वृणीमहे) सब ओर से स्वीकार करें (इत्) वही सभाध्यक्ष (हेडः) धार्मिक जनों का अनादर करनेहारे अधार्मिक जनों को (अस्मत्) हमसे (आरे) दूर (अस्यतु) निकाल देवें ॥ ४ ॥
भावार्थ
जैसे प्रजाजन राजा की आज्ञा को स्वीकार करते हैं, वैसे राजपुरुष भी प्रजा की आज्ञा को माना करें ॥ ४ ॥
विषय
दैव्य हेड का दूर करना
पदार्थ
१. (वयम्) = हम (रुद्गम्) = ज्ञानदाता प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिए (निह्वयामहे) = निश्चितरूप से पुकारते हैं । वे (त्वेषम्) = दीप्त हैं , तेज व ज्ञान के पुञ्ज हैं । (यज्ञसाधम्) = हमारे सब यज्ञों को सिद्ध करनेवाले हैं । (वङ्कुम्) = [वंक - to go] वे प्रभु स्वाभाविक रूप से क्रियावाले हैं और (कविम्) = क्रान्तदर्शी व ज्ञानी हैं । २. इस प्रकार उस रुद्र की उपासना ‘त्वेष , यज्ञसाध , वंकु व कवि’ के रूप में करते हुए हम भी दीप्त , यज्ञशील , क्रिया व ज्ञानवाले बनने का प्रयत्न करते हैं और यह प्रार्थना करने योग्य बनते हैं कि (दैव्यं हेडः) = देव - सम्बन्धी क्रोध प्राकृतिक देवों के क्रोध जलवायु में परिवर्तन व प्रकृति द्वारा किया गया अपना समायोजन (अस्मत्) = हमसे (आरे) = दूर (अस्यतु) = फेंका जाए । जब पाप अधिक बढ़ जाते हैं प्रकृति से छेड़छाड़ तब आधिदैविक Global warming , अतिवृष्टि , अनावृष्टि , अवृष्टि आदि कष्ट आया करते हैं । हम अपने समाज को पवित्र बनाकर इन आधिदैविक कष्टों से अपने को बचानेवाले हों । ३. इसी विचार से (वयम्) = हम (अस्य) = इस प्रकार की (सुमतिं इत्) = कल्याणी मति को ही (आवृणीमहे) = सर्वथा वरते हैं । प्रभु की इस कल्याणी मति में चलते हुए हम देवों के कोपभाजन नहीं होते । हमारे आधिदैविक कष्ट तभी दूर होंगे जब हम इस सुमति को अपनाएँगे ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की सुमति का वरण करके हम आधिदैविक कष्टों से उठते हैं ।
विषय
सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
( वयं ) हम लोग ( त्वेषं ) विद्या, न्याय और तेज से देदीप्यमान, तेजस्वी ( यज्ञसाधम् ) युद्ध के विजयी और प्रजा पालन रूप उत्तम कर्म के साधक (वंकुम्) अति कुटिल, टेढ़े, शत्रुओं से कभी पराजित न होने हारे, ( कविम् ) दूरदर्शी पुरुष को ( नि ह्वयामहे ) अपने सुख दुःख आदि निवेदन करें । वह ( दैव्यम् ) विद्वानों के (हेळः) क्रोध अथवा अनादर आदि करने वाले पुरुषों को ( अस्मत् आरे अस्यतु ) हमसे दूर करे । ( वयम् ) हम ( अस्य ) इस शत्रुरोधक वीर पुरुष की ( सुमतिम्) शुभ मति, धर्मानुकूल प्रज्ञा और बल को प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जशी प्रजा राजाचा स्वीकार करते तशी राजपुरुषांनीही प्रजेची आज्ञा मानावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
For our protection and guidance we invoke Rudra, blazing brilliant, destroyer of enemies, giver of success in the yajnic projects of life, lord of instant motion and action, and seer of universal vision. May He ward off all furies of nature from us. We choose and pray for His vision and wisdom for our conduct in life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We invoke and tell our pleasure and pain for our preservation to the illustrious President of the Assembly who is restrainer of all enemies, who is accomplisher of Yajna in the form of the protection of his subjects, who is crooked or tactful to wicked foes, expert among enlightened persons and exceedingly wise. May he remove far from us such unrighteous persons as insult righteous scholars. We earnestly solicit his noble intellect.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(रुद्रम्) शत्रुरोद्वारम् = Restrainer of enemies. (यज्ञसाधम्) यो यज्ञं प्रजापालनं साध्नोति तम् = The accomplisher of Yajna in the form of protection of the subjects. (वंकुम्) दुष्टशत्रून् प्रति कुटिलम् | = Crooked insulter of un-righteous foes. (हेड:) धार्मिकाणाम् अनादरकर्ता न् अधार्मिकान् जनान् । = Unrighteous insulters of righteous persons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the subjects obey the orders of the King, the officers of the State should also go according to the noble wishes of the subjects.
Translator's Notes
हेड़-अनादरे । वंकि कौटिल्ये ।
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