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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 114 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - रुद्रः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अवो॑चाम॒ नमो॑ अस्मा अव॒स्यव॑: शृ॒णोतु॑ नो॒ हवं॑ रु॒द्रो म॒रुत्वा॑न्। तन्नो॑ मि॒त्रो वरु॑णो मामहन्ता॒मदि॑ति॒: सिन्धु॑: पृथि॒वी उ॒त द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अवो॑चाम । नमः॑ । अ॒स्मै॒ । अ॒व॒स्यवः॑ । शृ॒णोतु॑ । नः॒ । हव॑म् । रु॒द्रः । म॒रुत्वा॑न् । तत् । नः॒ । मि॒त्रः । वरु॑णः । म॒म॒ह॒न्ता॒म् । अदि॑तिः । सिन्धुः॑ । पृ॒थि॒वी । उ॒त । द्यौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अवोचाम नमो अस्मा अवस्यव: शृणोतु नो हवं रुद्रो मरुत्वान्। तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदिति: सिन्धु: पृथिवी उत द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अवोचाम। नमः। अस्मै। अवस्यवः। शृणोतु। नः। हवम्। रुद्रः। मरुत्वान्। तत्। नः। मित्रः। वरुणः। ममहन्ताम्। अदितिः। सिन्धुः। पृथिवी। उत। द्यौः ॥ १.११४.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 11
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरध्यापकोपदेशकव्यवहारमाह ।

    अन्वयः

    अवस्यवो वयमस्मै सभाध्यक्षाय नमोऽवोचाम स मरुत्वान् रुद्रो नस्तन्नोऽस्माकं हवं च शृणोतु। हे मनुष्या यन्नो नमो मित्रो वरुणोऽदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौर्वर्धयन्ति तद्भवन्तो मामहन्ताम् ॥ ११ ॥

    पदार्थः

    (अवोचाम) वदेम (नमः) नमस्त इति वाक्यम् (अस्मै) माननीयाय सभाध्यक्षाय (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छवः (शृणोतु) (नः) अस्माकम् (हवम्) आह्वानरूपं प्रशंसावाक्यम् (रुद्रः) अधीतविद्यः (मरुत्वान्) बलवान् (तत्) (नः०) इति पूर्ववत् ॥ ११ ॥

    भावार्थः

    प्रजास्थैः पुरुषै राज्ञां प्रियाचरणानि नित्यं कर्त्तव्यानि राजभिश्च प्रजाजनानां वचांसि श्रोतव्यानि। एवं मिलित्वा न्यायमुन्नीयान्यायं निराकुर्य्युः ॥ ११ ॥अत्र ब्रह्मचारिविद्वत्सभाध्यक्षसभासदादिगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥इति चतुर्दशोत्तरं शततमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर अध्यापक और उपदेशकों के व्यवहारों को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (अवस्यवः) अपनी रक्षा चाहते हुए हम लोग (अस्मै) इस मान करने योग्य सभाध्यक्ष के लिये (नमः) “नमस्ते” ऐसे वाक्य को (अवोचाम) कहें और वह (मरुत्वान्) बलवान् (रुद्रः) विद्या पढ़ा हुआ सभापति (तत्) उस (नः) हमारे (हवम्) बुलानेरूप प्रशंसावाक्य को (शृणोतु) सुने। हे मनुष्यो ! जो (नः) हमारे “नमस्ते” शब्द को (मित्रः) प्राण (वरुणः) श्रेष्ठ विद्वान् (अदितिः) अन्तरिक्ष (सिन्धुः) समुद्र (पृथिवी) पृथ्वी (उत) और (द्यौः) प्रकाश बढ़ाते हैं अर्थात् उक्त पदार्थों को जाननेहारे सभापति को बार-बार “नमस्ते” शब्द कहा जाता है, उसको आप (मामहन्ताम्) बार-बार प्रशंसायुक्त करें ॥ ११ ॥

    भावार्थ

    प्रजापुरुषों को राजा लोगों के प्रिय आचरण नित्य करने चाहिये और राजा लोगों को प्रजाजनों के कहे वाक्य सुनने योग्य हैं। ऐसे सब राजा-प्रजा मिलकर न्याय की उन्नति और अन्याय को दूर करें ॥ ११ ॥इस सूक्त में ब्रह्मचारी, विद्वान्, सभाध्यक्ष और सभासद् आदि गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त में कहे अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ एकता जानने योग्य है ॥यह ११४ एकसौ चौदहवाँ सूक्त और ६ छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥ ११ ॥

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    विषय

    नमउक्तिं विधेम

    पदार्थ

    १. (अवस्यवः) = रक्षण की कामना करते हुए हम (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (नमः अवोचाम) = नमन की उक्तियों को कहते हैं , अर्थात् नतमस्तक होकर प्रभु के प्रति स्तुतिवचनों का उच्चारण करते हैं । इन स्तुतिवचनों से ही हमें प्रभु के गुणों के धारण की लक्ष्यदृष्टि प्राप्त होती है । उन गुणों को धारण करते हुए हम प्रभु के समीप पहुँचते हैं । २. वह (मरुत्वान्) = प्रशस्त मरुतों - प्राणोंवाला (रुद्रः) = प्राणों के द्वारा वासनाओं का विलय करनेवाला प्रभु (नः) = हमारी (हवम्) = पुकार को (शृणोतु) = सुने । हमारी प्रार्थना प्रभु से सुनी जाए । हम प्राणसाधना में निरन्तर प्रवृत्त होंगे तभी प्रभु के प्रिय बनेंगे और तभी हमारी प्रार्थना का कुछ महत्त्व होगा । ३. (नः तत्) = हमारे उस प्राणसाधना के सङ्कल्प को (मित्रः) = मित्र , (वरुणः) = वरुण , (अदितिः) = स्वास्थ्य , (सिन्धुः) = रेतः कणों के रूप में बहनेवाले जल , (पृथिवी) = यह शरीर (उत) = और (द्यौः) = दीप्त मस्तिष्क (मामहन्ताम्) = आदृत करें । स्नेह व निर्द्वेषता आदि के द्वारा मैं प्राणसाधना के मार्ग पर आगे बढ़ें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु के प्रति नमनवाले हों । प्राणसाधना के द्वारा अपने को इस योग्य बनाएँ कि हमारी प्रार्थना सुनी जाए ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ रुद्र से शान्ति , पुष्टि व अनातुरता की प्रार्थना से हुआ है [१] । समाप्ति पर भी उसी रुद्र से रक्षण की कामना की गई है [११] । ये रुद्र सूर्य द्वारा हमारा रक्षण करते हैं , अतः अगला सूक्त सूर्य - देवता का ही है -

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    विषय

    सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अवस्यवः ) रक्षा और ज्ञान के चाहने वाले हम लोग ( अस्मै ) इस शरण प्रद और ज्ञानप्रद राजा और आचार्य के मान के लिये सदा ( नमः अवोचाम ) आदर सत्कार सूचक पद ‘नमस्ते’ आदि का उच्चारण करें । ( मरुत्वान् ) विद्वान् वीर पुरुषों और ज्ञानेच्छु शिष्यों का स्वामी ( रुद्रः ) दुष्टों का रोदनकारी राजा और उत्तम उपदेशदाता आचार्य ( नः हवं शृणोतु ) हमारी प्रार्थना सुने । ( तत् नः० इत्यादि ) पूर्ववत् ॥ इति षष्ठो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेने राजाला प्रिय वाटेल असे आचरण नित्य करावे व राजाने प्रजेचे ऐकावे. अशा प्रकारे राजा व प्रजा यांनी मिळून न्याय वृद्धिंगत करून अन्याय दूर करावा. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Seekers of protection and bliss, let us sing in praise of the Lord. May Rudra, omniscient lord omnipotent, listen to our call and prayer. And may Mitra, Varuna, Aditi, the sea and rivers, the earth and heaven raise and sublimate our word of salutation and prayer to the divine presence. (The word is Namaste.)

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