ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 10
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - रुद्रः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ॒रे ते॑ गो॒घ्नमु॒त पू॑रुष॒घ्नं क्षय॑द्वीर सु॒म्नम॒स्मे ते॑ अस्तु। मृ॒ळा च॑ नो॒ अधि॑ च ब्रूहि दे॒वाधा॑ च न॒: शर्म॑ यच्छ द्वि॒बर्हा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒रे । ते॒ । गो॒ऽघ्नम् । उ॒त । पु॒रु॒ष॒ऽघ्नम् । क्षय॑त्ऽवीर । सु॒म्नम् । अ॒स्मे इति॑ । ते॒ । अ॒स्तु॒ । मृ॒ळ । च॒ । नः॒ । अधि॑ । च॒ । ब्रू॒हि॒ । दे॒व॒ । अध॑ । च॒ । नः॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । द्वि॒ऽबर्हाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आरे ते गोघ्नमुत पूरुषघ्नं क्षयद्वीर सुम्नमस्मे ते अस्तु। मृळा च नो अधि च ब्रूहि देवाधा च न: शर्म यच्छ द्विबर्हा: ॥
स्वर रहित पद पाठआरे। ते। गोऽघ्नम्। उत। पुरुषऽघ्नम्। क्षयत्ऽवीर। सुम्नम्। अस्मे इति। ते। अस्तु। मृळ। च। नः। अधि। च। ब्रूहि। देव। अध। च। नः। शर्म। यच्छ। द्विऽबर्हाः ॥ १.११४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजप्रजाधर्म उपदिश्यते ।
अन्वयः
हे क्षयद्वीर देव पुरुषघ्नं गोघ्नं च निवार्य तेऽस्मे च सुम्नमस्तु। अधाथ त्वं नोऽस्मान् मृडाहं च त्वां मृडानि त्वं नोऽस्मानधिब्रूहि। अहं त्वां चाधिब्रुवाणि। द्विबर्हास्त्वं नः शर्म यच्छ। अहं वः शर्म यच्छानि सर्वे वयमारे धर्मात्मनां निकटे दुष्टात्मभ्यो दूरे च वसेम ॥ १० ॥
पदार्थः
(आरे) समीपे दूरे च (ते) तव सकाशात् (गोघ्नम्) गवां हन्तारम् (उत) (पूरुषघ्नम्) पुरुषाणां हन्तारम् (क्षयद्वीर) शूरवीरनिवासक (सुम्नम्) सुखम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (ते) तुभ्यम् (अस्तु) भवतु (मृडय) अत्रान्तर्भावितो ण्यर्थः। द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घश्च। (च) (नः) अस्मान् (अधि) आधिक्ये (च) (ब्रूहि) आज्ञापय (देव) दिव्यकर्मकारिन् (अध) आनन्तर्ये। अत्र वर्णव्यत्ययेन थस्य धो निपातस्य चेति दीर्घश्च। (च) (नः) (शर्म) गृहसुखम् (यच्छ) देहि (द्विबर्हाः) द्व्योर्व्यवहारपरमार्थयोर्वर्धकः ॥ १० ॥
भावार्थः
मनुष्यैः प्रयत्नेन पशुघातिकेभ्यो मनुष्यमारेभ्यश्च दूरे निवसनीयम्, स्वेभ्य एते दूरे निवासनीयाः। राज्ञा प्रजापुरुषैश्च परस्परमुपदिश्य सभां निर्माय रक्षणं विधाय व्यवहारपरमार्थौ साधनीयौ ॥ १० ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा-प्रजा के धर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे (क्षयद्वीर) शूरवीर जनों का निवास कराने और (देव) दिव्य अच्छे-अच्छे कर्म करनेहारे विद्वान् सभापति ! (पुरुषघ्नम्) पुरुषों को मारने (च) और (गोघ्नम्) गौ आदि उपकार करनेहारे पशुओं के विनाश करनेवाले प्राणी को निवार करके (ते) आपके (च) और (अस्मे) हम लोगों के लिये (सुम्नम्) सुख (अस्तु) हो, (अधा) इसके अनन्तर (नः) हम लोगों को (मृड) सुखी कीजिये (च) और मैं आपको सुख देऊँ, आप हम लोगों को (अधिब्रूहि) अधिक उपदेशक देओ (च) और मैं आपको अधिक उपदेश करूँ (द्विबर्हाः) व्यवहार और परमार्थ के बढ़ानेवाले आप (नः) हम लोगों के लिये (शर्म्म) घर का सुख (यच्छ) दीजिये (च) और आपके लिये मैं सुख देऊँ। सब हम लोग धर्मात्माओं के (आरे) निकट और दुराचारियों से दूर रहें ॥ १० ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि यत्न के साथ पशु और मनुष्यों के विनाश करनेहारे दुराचारियों से दूर रहें और अपने से उनका दूर निवास करावें। राजा और प्रजाजनों को परस्पर एक दूसरे से उपदेश कर सभा बना और सबकी रक्षा कर व्यवहार और परमार्थ का सुख सिद्ध करना चाहिये ॥ १० ॥
विषय
अभ्युदय + निःश्रेयस
पदार्थ
१. हे (क्षयद्वीर) = वीर पुरुषों में निवास करनेवाले प्रभो ! (ते) = आपका (गोघ्नम्) = हमारी इन्द्रियों का [गावः इन्द्रियाणि] नाशक अस्त्र (आरे) = हमसे दूर ही रहे (उत) = और (पुरुषम्) = पौरुष को नष्ट करनेवाला अस्त्र भी हमसे दूर रहे । आपकी कृपा से हमारी इन्द्रियाँ ठीक से कार्य करने की क्षमतावाली हों और हमारे पौरुष में किसी प्रकार की न्यूनता न आये । २. इसी उद्देश्य से (ते सुम्नम्) = आपका स्तोत्र (अस्मे अस्तु) = हमारे लिए हो । हम सदा आपका स्तवन करनेवाले हों । आपका यह स्तवन ही हमें विषयों में फँसने से बचाएगा और परिणामतः हमारी इन्द्रियाँ ठीक रहेंगी तथा हमारे पौरुष में कमी न आएगी । ३. हे (देव) = ज्ञान का प्रकाश देनेवाले प्रभो ! (नः) = हमारे लिए (मृड) = आप अवश्य सुख दीजिए (च) = और (अधिब्रूहि) = हमें ज्ञान का खूब उपदेश दीजिए । (अध च) = और इस ज्ञानोपदेश के द्वारा (नः) = हमारे लिए (शर्म) = सुख (यच्छ) = दीजिए । आप हमारे लिए (द्विबर्हाः) = अभ्युदय और निःश्रेयस - दोनों का वर्धन करनेवाले होओ । हम आपके ज्ञान के द्वारा इहलोक व परलोक दोनों का साधन करनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारी इन्द्रियाँ व पौरुष ठीक बना रहे । प्रभु के ज्ञान के अनुसार चलने से हम अभ्युदय व निः श्रेयस को सिद्ध करें ।
विषय
सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
हे (क्षयद्-वीर) वीर पुरुषों को अपने आश्रय में बसाने हारे ! ( ते ) तेरे राष्ट्र में रहने वाले ( गोघ्ननम् ) गाय आदि पशु के हत्यारे और पुरुषों के हत्यारे पुरुष को तू ( आरे ) दूर कर । ( अस्मे ते ) इस प्रकार हम और तुझ राजा दोनों को ( सुभ्नं अस्तु ) सुख प्राप्त हो । हे ( देव ) प्रजाजन को सुख देने वाले राजन् ! तू ( नः मृड ) हमें सुखी कर । (अधि ब्रूहि च ) गुरु के समान सर्वोपरि शासक होकर उपदेश कर । (अध) और तू ( द्विबर्हा ) ऐहिक और पारमार्थिक दोनों सुखो को बढ़ाने वाला, या राजवर्ग प्रजावर्ग दोनों का वर्धक, दोनों का स्वामी, या ज्ञान कर्म दोनों का स्वामी होकर ( नः च ) हमें भी ( शर्म यच्छ ) शरण, सुख प्रदान कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी पशू व माणसांचा विनाश करणाऱ्या दुराचारी लोकांपासून प्रयत्नपूर्वक दूर राहावे व त्यांना दूर ठेवावे. राजा व प्रजा यांनी परस्पर एकमेकांना उपदेश करून सभा बनवून सर्वांचे रक्षण करावे व व्यवहार आणि परमार्थाचे सुख सिद्ध करावे ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord protector and shelter of the brave, let the butcher of cows and murderer of men be off by your protection and grace. May the peace and joy of your blessings be for us. Be kind and gracious to us. Speak to us in the heart from above. Lord of the world of here and after, give us peace and joy on earth, and the ultimate freedom after.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Again the duties of Kings end their subjects are taught in the tenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O cause of inhabitation of heroes, let a man-killing and cow-killing person be kept away from us. By so doing, let the felicity be ours. Make us happy and may I make thee happy. Speak O brilliant hero to me and let me speak to thee. Thou who art augmenter of dealing in this and the next world, grant us home and happiness, O Self-refulgent God.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(आरे) समीपे दूरे च = Far and near. (शर्मा) गृहसुखम् = The happiness of home. (द्विबर्हा:) द्वयोव्यैवहारः परमार्थयोवर्धकः = The accomplisher of the works of this world and the next.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should remain at a distance from the killers of men and the animals, and they should be kept at a distance. The King and subjects should accomplish the task of this world and the next by teaching mutually, by starting an assembly and by protecting one another.
Translator's Notes
आरे-दूरसमीपयो: = Far and nigh. बृहि-वृद्धौ (धातु) शर्मेति गृहह्नाम (निघ० ३.४) शर्मेति सुखनाम (निघ० ३.६ )
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