ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 114/ मन्त्र 5
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - रुद्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
दि॒वो व॑रा॒हम॑रु॒षं क॑प॒र्दिनं॑ त्वे॒षं रू॒पं नम॑सा॒ नि ह्व॑यामहे। हस्ते॒ बिभ्र॑द्भेष॒जा वार्या॑णि॒ शर्म॒ वर्म॑ च्छ॒र्दिर॒स्मभ्यं॑ यंसत् ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । व॒रा॒हम् । अ॒रु॒षम् । क॒प॒र्दिन॑म् । त्वे॒षम् । रू॒पम् । नम॑सा । नि । ह्व॒या॒म॒हे॒ । हस्ते॑ । बिभ्र॑त् । भे॒ष॒जा । वार्या॑णि । शर्म॑ । वर्म॑ । छ॒र्दिः । अ॒स्मभ्य॑म् । यं॒स॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवो वराहमरुषं कपर्दिनं त्वेषं रूपं नमसा नि ह्वयामहे। हस्ते बिभ्रद्भेषजा वार्याणि शर्म वर्म च्छर्दिरस्मभ्यं यंसत् ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। वराहम्। अरुषम्। कपर्दिनम्। त्वेषम्। रूपम्। नमसा। नि। ह्वयामहे। हस्ते। बिभ्रत्। भेषजा। वार्याणि। शर्म। वर्म। छर्दिः। अस्मभ्यम्। यंसत् ॥ १.११४.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 114; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वैद्यविषयमाह ।
अन्वयः
वयं नमसा यो हस्ते भेषजा वार्याणि बिभ्रत् सन् शर्म वर्म छर्दिरस्मभ्यं यंसत् तं कपर्दिनं वैद्यं दिवो वराहमरुषं त्वेषं रूपं च निह्वयामहे ॥ ५ ॥
पदार्थः
(दिवः) विद्यान्यायप्रकाशितव्यवहारान् (वराहम्) मेघमिव (अरुषम्) अश्वादिकम् (कपर्दिनम्) कृतब्रह्मचर्यं जटिलं विद्वांसम् (त्वेषम्) प्रकाशमानम् (रूपम्) सुरूपम् (नमसा) अन्नेन परिचर्यया च (नि) (ह्वयामहे) स्पर्द्धामहे (हस्ते) करे (बिभ्रत्) धारयन् (भेषजा) रोगनिवारकाणि (वार्याणि) ग्रहीतुं योग्यानि साधनानि (शर्म) गृहं सुखं वा (वर्म) कवचम् (छर्दिः) दीप्तियुक्तं शस्त्रास्त्रादिकम् (अस्मभ्यम्) (यंसत्) यच्छेत् ॥ ५ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या वैद्यमित्राः पथ्यकारिणो जितेन्द्रियाः सुशीला भवन्ति त एवास्मिञ् जगति नीरोगा भूत्वा राज्यादिकं प्राप्य सुखमेधन्ते ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब वैद्यजन के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हम लोग (नमसा) अन्न और सेवा से जो (हस्ते) हाथ में (भेषजा) रोगनिवारक औषध (वार्य्याणि) और ग्रहण करने योग्य साधनों को (बिभ्रत्) धारण करता हुआ (शर्म्म) घर, सुख (वर्म्म) कवच (छर्दिः) प्रकाशयुक्त शस्त्र और अस्त्रादि को (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (यंसत्) नियम से रक्खे उस (कपर्दिनम्) जटाजूट ब्रह्मचारी वैद्य विद्वान् वा (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशित व्यवहारों वा (वराहम्) मेघ के तुल्य (अरुषम्) घोड़े आदि की (त्वेषम्) वा प्रकाशमान (रूपम्) सुन्दर रूप की (निह्वयामहे) नित्य स्पर्द्धा करें ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य वैद्य के मित्र पथ्यकारी जितेन्द्रिय उत्तम शीलवाले होते हैं, वे ही इस जगत् में रोगरहित और राज्यादि को प्राप्त होकर सुख को बढ़ाते हैं ॥ ५ ॥
विषय
शर्म - वर्म - छर्दि
पदार्थ
१. हम (नमसा) = नमन के द्वारा - नम्रतापूर्वक उच्चारण किये गये स्तुतिवचनों के द्वारा उस प्रभु को (निह्वयामहे) = निश्चितरूप से अपने हृदयों [नि - In] में पुकारते हैं , जो प्रभु (दिवः वराहम्) = ज्ञान के द्वारा ‘वरमाहन्ति’ उत्कृष्ट पदार्थों को प्राप्त कराते हैं [हन् गतौ] । ज्ञान देकर प्रभु हमें इस योग्य बनाते हैं कि हम पवित्र व उत्तम कर्मों को ही करनेवाले बनते हैं । ज्ञान हममें पवित्रता का सञ्चार करता है । २. जो प्रभु (अरुषम्) = आरोचमान हैं - जिनका ज्ञान सर्वतः दीप्त है , (कपर्दिनम्) = वे प्रभु सुख की पूर्ति को देनेवाले हैं । ज्ञान के अनुपात में ही तो सुख होता है ; जितना ज्ञान अधिक उतना ही सुख अधिक ; (त्वेषम्) = वे प्रभु तेजस्विता से दीप्त है - तेज ही हैं , (रूपम्) = [रूपयति] लोक - लोकान्तरों को रूप देनेवाले हैं अथवा सृष्टि के प्रारम्भ में ही ज्ञान का निरूपण करनेवाले हैं । ३. वे प्रभु (हस्ते) = हाथ में (वार्याणि भेषजानि) = वरणीय व रोगों का निवारण करनेवाली ओषधियों को (बिभ्रत्) = धारण करते हुए (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (शर्म) = आरोग्यजनित सुख दें , वासनाओं के आक्रमण से बचाने के लिए (वर्म) = कवच (यंसत्) = दें । प्रभु हमारे कवच हों और हमें वासनाओं के आक्रमण से आक्रान्त न होने दें [ब्रह्म वर्म ममान्तरम्] । वे प्रभु (छर्दिः) = घर (यंसत) = दें । हम प्रभु की शरण हों , हमारे रक्षक हों । ‘हाथ में भेषजों के धारण करने’ का अभिप्राय यह है कि यदि हम कर्मशील बने रहें [इन् गतौ] तो अस्वस्थ भी न हों और वासनाओं से आक्रान्त भी न हों । हाथ में रोगों का भी औषध है , वासनाओं का भी । अकर्मण्य व्यक्ति ही रोगी बनता है और विकारयुक्त मनवाला होता है । ‘कर्मणे हस्तौ विसृष्टौ’ - प्रभु ने कर्म के लिए ही तो हाथ दिये हैं । कर्म ही सर्वमहान् औषध है - व्याधियों की भी , आधियों की भी ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - प्रदत्त ज्ञान के अनुसार हम हाथों से कर्म करनेवाले बनें । यही नीरोगता , निर्मलता व आत्मरक्षण का मार्ग है ।
विषय
सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
ज्ञान, न्याय तथा तेज से प्रकाशित व्यवहार से ( वराहम् ) श्रेष्ठ गुणों का उपदेश करने वाले मेघ के समान निष्पक्षपात और उत्तम सात्विक आहार करने हारे ( अरुषं ) रोष रहित, अति देदीप्यमान, तेजस्वी (कपर्दिनम्) पूर्णब्रह्मचारी, जटिल, विद्वान् अथवा सुन्दर मुकुटधारी, (त्वेषं) सूर्य के समान दीप्तिमान् ( रूपं ) रुचिकर, सुन्दर रूपवान् पुरुष को ( निह्वयामहे ) आदरपूर्वक निवेदन करें । वह ( हस्ते ) अपने हाथ में वैद्य के समान ( वार्याणि भेषजा ) रोगों के समान शत्रुओं का वारण करने वाले साधनों, कष्टों के नाशक, स्वीकार करने योग्य ऐश्वर्यों और उत्तम उपायों को ( बिभ्रत् ) धारण करता हुआ ( अस्मभ्यम् ) हमें ( शर्म वर्म ) सुख, शरण, कवच और ( छर्दिः ) गृह और शस्त्रास्त्र साधन ( यंसत् ) प्रदान करे । इति पञ्चमो वर्गः।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः॥ रुद्रो देवता॥ छन्दः- १ जगती । २, ७ निचृज्जगती । ३, ६, ८, ९ विराड् जगती च । १०, ४, ५, ११ भुरिक् त्रिष्टुप् निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे वैद्यमित्र, पथ्यकारी, जितेंद्रिय, उत्तम शीलवान असतात तीच या जगात रोगरहित बनतात व राज्य इत्यादीला प्राप्त करतात आणि सुख वाढवितात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
With offerings of food and salutations we invoke Rudra from the regions of light, generous as a cloud, brilliant, master controller of the gambler’s dice and blazing magnificent of form. May he come bearing in hand the choicest herbs for medicine and bless us with gifts of a peaceful happy home, protective armour, and preventive and deterrent arms and armaments.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Now the attributes of a Vaidya (Physician) are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We invoke with reverence and food a good physician who is radiant and has braided hair, who is brilliant, holding in his hands excellent medicaments; may he grant us health and happiness, defensive armor and glorious weapons and arms.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिवः) विद्यान्यायप्रकाशितव्यवहारान् = Dealings illuminated with knowledge and justice. (वराहम् ) मेघम् इव = Like the cloud. (वराह इति मेघ नाम न० १.१० ) Tr. (कपर्दिनम् ) कृतब्रह्मचर्य जटिलं विद्वांसम् = A scholar who has observed Brahmacharya and has matted hair. (छर्दि:) दीप्तियुक्तं शस्त्रास्त्रादिकम् = Glorious weapons and arms.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who are friendly to good physicians, taking nourishing diet self-controlled and good mannered, enjoy happiness being healthy and having attained kingdom.
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