यजुर्वेद - अध्याय 9/ मन्त्र 21
आयु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पतां प्रा॒णो य॒ज्ञेन॑ कल्पतां॒ चक्षु॑र्य॒ज्ञेन॑ कल्पता॒ श्रोत्रं॑ य॒ज्ञेन॑ कल्पतां पृ॒ष्ठं य॒ज्ञेन॑ कल्पतां य॒ज्ञो य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्। प्र॒जाप॑तेः प्र॒जाऽअ॑भूम॒ स्वर्देवाऽअगन्मा॒मृता॑ऽअभूम॥२१॥
स्वर सहित पद पाठआयुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्रा॒णः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। चक्षुः॑। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। श्रोत्र॑म्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। पृ॒ष्ठम्। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। य॒ज्ञः। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒ता॒म्। प्र॒जाप॑ते॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तेः। प्र॒जा इति॑ प्र॒ऽजाः। अ॒भू॒म॒। स्वः॑। दे॒वाः॒। अ॒ग॒न्म॒। अ॒मृताः॑। अ॒भू॒म॒ ॥२१॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुर्यज्ञेन कल्पताम्प्राणो यज्ञेन कल्पताञ्चक्षुर्यज्ञेन कल्पताँ श्रोत्रँ यज्ञेन कल्पताम्पृष्ठँ यज्ञेन कल्पताँयज्ञो यज्ञेन कल्पताम् । प्रजापतेः प्रजाऽअभूम स्वर्देवा ऽअगन्मामृता ऽअभूम ॥
स्वर रहित पद पाठ
आयुः। यज्ञेन। कल्पताम्। प्राणः। यज्ञेन। कल्पताम्। चक्षुः। यज्ञेन। कल्पताम्। श्रोत्रम्। यज्ञेन। कल्पताम्। पृष्ठम्। यज्ञेन। कल्पताम्। यज्ञः। यज्ञेन। कल्पताम्। प्रजापतेरिति प्रजाऽपतेः। प्रजा इति प्रऽजाः। अभूम। स्वः। देवाः। अगन्म। अमृताः। अभूम॥२१॥
विषय - मूल स्तुति
व्याखान -
[यज्ञो वै विष्णु:, यज्ञो वै ब्रह्मर, इत्याद्यैतरेय-शतपथब्राह्मणश्रुतेः] यज्ञ-यजनीय जो सब मनुष्यों का पूज्य, इष्टदेव परमेश्वर है, उसके हेतु [उसके अर्थ तथा उसके सङ्ग] अतिश्रद्धा से [यज्ञ जो परमात्मा उसके लिए] सब मनुष्य सर्वस्व समर्पण यथावत् करें, यही इस मन्त्र में उपदेश और प्रार्थना है।(आयुर्यज्ञेन कल्पतां – रथन्तरञ्च) हे सर्वशक्तिमन् ईश्वर ! आपकी जो यह आज्ञा है कि सब लोग सब पदार्थ मेरे अर्पण करें, इस कारण हम लोग आयु [उम्र], प्राण, चक्षु [आँख], कान, वाणी, मन, आत्मा [जीव] ब्रह्म-वेदविद्या, ज्योति [सूर्यादि लोक तथा अग्न्यादि पदार्थ] तथा स्वर्ग [सुखसाधन], पृष्ठ [पृथिव्यादि सब लोक आधार] तथा पुरुषार्थ, यज्ञ [जो-जो अच्छा काम हम लोग करते हैं], स्तोम = स्तुति, यजुर्वेद, ऋग्वेद, सामवेद, चकार से अथर्ववेद, बृहद्रथन्तर, महारथन्तर साम इत्यादि - सब पदार्थ आपके समर्पण करते हैं। हम लोग तो केवल आपके ही शरण हैं । जैसी आपकी इच्छा हो वैसा हमारे लिए आप कीजिए, परन्तु हम लोग आपके सन्तान आपकी कृपा से (स्वरगन्म) उत्तम सुख को प्राप्त हों । जब तक जीवें तब तक सदा चक्रवर्ती राज्यादि भोग से सुखी रहें और मरणानन्तर भी हम सुखी हीरहें। हे महादेवामृत ! हम लोग देव [परमविद्वान्] हों तथा अमृत - मोक्ष जो आपकी प्राप्ति उसको प्राप्त होके जन्म-मरणरहित अमृतस्वरूप सदैव रहें। "वेद् स्वाहा " आपकी आज्ञा का पालन और जिससे आपकी प्राप्ति हो, उस क्रिया में सदा तत्पर रहें तथा अन्तर्यामी आप हृदय में जो आज्ञा करें, अर्थात् जैसा हमारे हृदय में ज्ञान हो, वैसा ही सदा भाषण करें, इससे विपरीत कभी नहीं। हे कृपानिधे ! हम लोगों का योगक्षेम सब निर्वाह] आप ही सदा करो। आपके सहाय से सर्वत्र हमको विजय और सुख मिले ॥ १३ ॥
टिपण्णी -
१. शत० १।१।२।१३ २. ब्रह्म वै यज्ञः । – ऐ० ब्रा० ८ । २२
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