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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 131 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 131/ मन्त्र 7
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    त्वं तमि॑न्द्र वावृधा॒नो अ॑स्म॒युर॑मित्र॒यन्तं॑ तुविजात॒ मर्त्यं॒ वज्रे॑ण शूर॒ मर्त्य॑म्। ज॒हि यो नो॑ अघा॒यति॑ शृणु॒ष्व सु॒श्रव॑स्तमः। रि॒ष्टं न याम॒न्नप॑ भूतु दुर्म॒तिर्विश्वाप॑ भूतु दुर्म॒तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तम् । इ॒न्द्र॒ । व॒वृ॒धा॒नः । अ॒स्म॒ऽयुः । अ॒मि॒त्र॒ऽयन्त॑म् । तु॒वि॒ऽजा॒त॒ । मर्त्य॑म् । वज्रे॑ण । शू॒र॒ । मर्त्य॑म् । ज॒हि । यः । नः॒ । अ॒घ॒ऽयति॑ । शृ॒णु॒ष्व । सु॒श्रवः॑ऽतमः । रि॒ष्टम् । न । याम॑न् । अप॑ । भू॒तु॒ । दुः॒ऽम॒तिः । विश्वा॑ । अप॑ । भू॒तु॒ । दुः॒ऽम॒तिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तमिन्द्र वावृधानो अस्मयुरमित्रयन्तं तुविजात मर्त्यं वज्रेण शूर मर्त्यम्। जहि यो नो अघायति शृणुष्व सुश्रवस्तमः। रिष्टं न यामन्नप भूतु दुर्मतिर्विश्वाप भूतु दुर्मतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। तम्। इन्द्र। ववृधानः। अस्मऽयुः। अमित्रऽयन्तम्। तुविऽजात। मर्त्यम्। वज्रेण। शूर। मर्त्यम्। जहि। यः। नः। अघऽयति। शृणुष्व। सुश्रवःऽतमः। रिष्टम्। न। यामन्। अप। भूतु। दुःऽमतिः। विश्वा। अप। भूतु। दुःऽमतिः ॥ १.१३१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 131; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजप्रजाजनैः किं निवार्य्य किं कर्त्तव्यमित्याह ।

    अन्वयः

    हे तुविजात शूरेन्द्र सुश्रवस्तमो वावृधानोऽस्मयुस्त्वं वज्रेणामित्रयन्तं मर्त्यं जहि। यो नोऽघायति तं मर्त्यं जहि। यो यामन् दुर्मतिरभूतु तं रिष्टन्नेव जहि। या दुर्मतिः स्यात्सा विश्वाऽस्मत्तोऽपभूत्विति शृणुष्व ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (तम्) जनम् (इन्द्र) विद्यैश्वर्य्याढ्य (वावृधानः) वर्धमानः (अस्मयुः) अस्मास्वात्मानमिच्छुः (अमित्रयन्तम्) शत्रूयन्तम् (तुविजात) तुविषु बहुषु प्रसिद्ध (मर्त्यम्) मनुष्यम् (वज्रेण) शस्त्रेण (शूर) शत्रूणां हिंसक (मर्त्यम्) मनुष्यम् (जहि) (यः) (नः) अस्मभ्यम् (अघायति) आत्मनोऽघमिच्छति (शृणुष्व) (सुश्रवस्तमः) अतिशयेन सुष्ठु शृणोति सः (रिष्टम्) हिंसितम् (न) इव (यामन्) यामनि (अप) (भूतु) भवतु (दुर्मतिः) दुष्टा मतिर्यस्य सः (विश्वा) अखिला (अप) (भूतु) (दुर्मतिः) दुष्टा चासौ मतिश्च दुर्मतिः ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये धार्मिका राजप्रजाजनास्ते सर्वाभिश्चातुर्य्यैर्द्वेषकारिपरस्वापहारिणो हत्वा धर्म्यं राज्यं प्रशास्य निर्भयान् मार्गान् कृत्वा विद्यावृद्धिं कुर्य्युः ॥ ७ ॥अत्र श्रेष्ठाऽश्रेष्ठमनुष्यसत्कारताडनवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥इत्येकत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा और प्रजाजनों को किसको छोड़ क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (तुविजात) बहुतों में प्रसिद्ध (शूर) शत्रुओं को मारनेवाले (इन्द्र) विद्या और ऐश्वर्य्य से युक्त (सुश्रवस्तमः) अतीव सुन्दरता से सुननेहारे और (वावृधानः) बढ़ते हुए (अस्मयुः) हम लोगों में अपनी इच्छा करनेवाले (त्वम्) आप (वज्रेण) शस्त्र से (अमित्रयन्तम्) शत्रुता करते हुए (अर्त्यम्) मनुष्य को (जहि) मारो (यः) जो (नः) हम लोगों के लिये (अघायति) अपना दुष्कर्म चाहता है (तम्) उस (मर्त्यम्) मनुष्य को मारो और जो (यामन्) रात्रि में (दुर्मतिः) दुष्टमतिवाला मनुष्य (अप, भूतु) अप्रसिद्ध हो छिपे, उसको (रिष्टम्) दो मारनेवाले (न) जैसे मारें वैसे (जहि) मारो अर्थात् अत्यन्त दण्ड देओ जो (दुर्मतिः) दुष्टमति हो वह (विश्वा) समस्त हम लोगों से (अप, भूतु) छिपे दूर हो यह आप (शृणुष्व) सुनो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो धार्मिक राजा और प्रजाजन हों, वे सब चतुराइयों से द्वेष वैर करने और पराया माल हरनेवाले दुष्टों को मार धर्म के अनुकूल राज्य की शिक्षा और बेखटक मार्ग कर विद्या की वृद्धि करें ॥ ७ ॥इस सूक्त में श्रेष्ठ और दुष्ट मनुष्यों का सत्कार और ताड़ना के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥ यह एक सौ १३१ इकतीसवाँ सूक्त और बीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    रिष्ट व दुर्मति से दूर

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! (वावधानः) = स्तुति के द्वारा हममें वृद्धि को प्राप्त होते हुए (त्वम्) = आप (तं मर्त्यम्) = उस मनुष्य को जहि नष्ट कीजिए जो (अमित्रयन्तम्) = हमारे प्रति शत्रुता का आचरण करता है । हे (तुविजात) = महान् विकासवाले । (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो । आप (अस्मयुः) = हमारे हित की कामनावाले हैं और हमारा हित चाहते हुए आप (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज़ से (मर्यत्म) = हमारे शत्रुभूत मनुष्य को नष्ट कीजिए । वस्तुतः सब अपने-अपने कामों में लगने का ध्यान करें तो पारस्परिक शत्रुताएँ नष्ट ही हो जाएँ । उस मनुष्य को (जहि) = नष्ट कीजिए (यः) = जो (नः) = हमारा (अघायति) = अशुभ चाहता है । समाज के विरोध में क्रिया करनेवाले मनुष्य को आप दण्डित कीजिए । यहाँ 'यः' यह एकवचन और 'नः' यह बहुवचन इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि जो कोई एक व्यक्ति सारे समाज के अहित में प्रवृत्त होता है उस व्यक्ति का नाश आवश्यक है । नाश का सर्वोत्तम उपाय यही है कि उसे भी क्रिया में व्याप्त कर दिया जाए । वह अपने कर्तव्य को निभाने में लगेगा तो व्यर्थ की बातों से बचा ही रहेगा । २. हे प्रभो! आप (सुश्रवस्तमः) = सुन्दर, सर्वाधिक ज्ञानवाले हैं, (शृणुष्व) = हमारी प्रार्थना को सुनिए कि (यामन्) = इस जीवन-मार्ग में (रिष्टं न) = हिंसा की भाँति (दुर्मतिः) = (दुर्बुद्धि अप भूत) = हमसे दूर हो । विश्वा - सम्पूर्ण (दुर्मतिः) = अशुभ बुद्धि अपभूत - सुदूर विनष्ट हो । न तो हम शरीर में रोगों से हिंसित हों और न ही हमारा मस्तिष्क अशुभ विचारों का क्षेत्र बने ।

    भावार्थ

    भावार्थ - अशुभ चाहनेवाले व्यक्ति को प्रभु नष्ट करें । हमें रोगों से और अशुभ विचारों के आक्रमण से बचाएँ ।

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    विषय

    सूर्यवत् राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शूरवीर पुरुष ! राजन् ! सेनापते ! हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुनाशक ! ( वं ) तू ( वावृधानः ) बल, पराक्रम तथा ऐश्वर्य में बढ़ता हुआ और ( अस्मयुः ) हमें हृदय से चाहता हुआ ( तम् ) उस उस नाना प्रकार के ( अमित्रयन्तं ) शत्रु भाव दर्शाने वाले ( मर्त्यं ) मारने योग्य ( मर्त्यम् ) उस मनुष्य को ( वज्रेण ) शस्त्र बल से ( जहि ) मार ( यः ) जो ( नः ) हम पर ( अघायति ) पाप या घात करना चाहता है । हे ( तुविजात ) बहुतों में प्रसिद्ध ! लोकविख्यात ! तू ( सुश्रवस्तमः ) उत्तम यशस्वी, ज्ञानी और प्रजाओं के कष्टों को उत्तम रूप से श्रवण करने हारा होकर ( शृणुष्व ) श्रवण कर। ( यामन् ) मार्ग में आये ( रिष्टं न ) विघ्न के समान ( यामन् ) शत्रु पर की चढ़ाई या प्रयाण काल में ( रिष्टं ) विघ्न और ( विश्वा ) समस्त प्रकार की ( दुर्मतिः ) दुर्बुद्धि और सब प्रकार के ( दुर्मतिः ) दुष्ट बुद्धि वाले जन भी ( अप भूतु ) दूर हों । इति विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेष ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, २ निचृदत्यष्टिः । ४ विराडत्यष्टिः । ३, ५, ६, ७ भुरिगष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. धार्मिक राजा व प्रजा यांनी चतुरतेने द्वेष, वैर व दुसऱ्यांचे धन घेणाऱ्या दुष्टांचे हनन करून धर्मानुकूल राज्याचे शिक्षण व निष्कंटक मार्गाने विद्येची वृद्धी करावी. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power and glory, ever exalting, friend of ours, universally famous, mighty bold, eliminate with the thunderbolt every man who entertains hate and enmity toward us and does sinful acts against us. Listen lord, since you are the closest listener. Let the man of evil intention be off from our way like one broken by evil. Let all evil intentions and evil designers be off and away from us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should mem be is further told in the Seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (lord of wealth of wisdom) endowed with many excellent virtues, do thou who art exalted by our praises and art well disposed towards us, slay the man who is inimical to us, slay, such a man O hero, destroyer of thy foes, with thy strong weapons, kill him who sins against us, ever most prompt to hear us, let every ill-intent toward us, such as alarms a worried traveler on the road, be counter-acted, let every evil-thought be kept away.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तुविजात) तुविषु-बहुषु प्रसिद्ध = Distinguished among many. (यामन् ) यामनि मार्गे = On the road. (रिष्टम् ) हिसितम् = Violated.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who are righteous rulers and their subjects they should destroy all wicked cheats who take away other's property with all tact and cleverness. They should govern the State righteously, should construct fearless (safe) paths and should spread knowledge and education.

    Translator's Notes

    सुवोति बहुनाम ( निध० ३.१ ) रिष-हिंसायाम् (यामन्) या गति प्रापणयोः यान्ति अनेनेतियामा मार्गस्तस्मिन् । This hymn is connected with the previous hymn, as there is mention of honoring good men and punishing the ignoble, as in that hymn. Here ends the commentary on the 131th hymn and 20th Verga of the first Mandala of the Rigveda Samhita.

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