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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 137 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 137/ मन्त्र 3
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - भुरिक्शक्वरी स्वरः - धैवतः

    तां वां॑ धे॒नुं न वा॑स॒रीमं॒शुं दु॑ह॒न्त्यद्रि॑भि॒: सोमं॑ दुह॒न्त्यद्रि॑भिः। अ॒स्म॒त्रा ग॑न्त॒मुप॑ नो॒ऽर्वाञ्चा॒ सोम॑पीतये। अ॒यं वां॑ मित्रावरुणा॒ नृभि॑: सु॒तः सोम॒ आ पी॒तये॑ सु॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । वा॒म् । धे॒नुम् । न । वा॒स॒रीम् । अं॒शुम् । दु॒ह॒न्ति॒ । अद्रि॑ऽभिः । सोम॑म् । दु॒ह॒न्ति॒ । अद्रि॑ऽभिः । अ॒स्म॒ऽत्रा । ग॒न्त॒म् । उप॑ । नः॒ । अ॒र्वान्चा॑ । सोम॑ऽपीतये । अ॒यम् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । नृऽभिः॑ । सु॒तः । सोमः॑ । आ । पी॒तये॑ । सु॒तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां वां धेनुं न वासरीमंशुं दुहन्त्यद्रिभि: सोमं दुहन्त्यद्रिभिः। अस्मत्रा गन्तमुप नोऽर्वाञ्चा सोमपीतये। अयं वां मित्रावरुणा नृभि: सुतः सोम आ पीतये सुतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम्। वाम्। धेनुम्। न। वासरीम्। अंशुम्। दुहन्ति। अद्रिऽभिः। सोमम्। दुहन्ति। अद्रिऽभिः। अस्मऽत्रा। गन्तम्। उप। नः। अर्वाञ्चा। सोमऽपीतये। अयम्। वाम्। मित्रावरुणा। नृऽभिः। सुतः। सोमः। आ। पीतये। सुतः ॥ १.१३७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 137; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मित्रावरुणा नोऽर्वाञ्चा सन्तौ युवां वां यां वासरीं धेनुं नेवाऽद्रिभिरंशुं दुहन्त्यद्रिभिः सोमपीतये सोमं दुहन्ति तामस्मत्रोपागन्तं योऽयं नृभिः सोमः सुतः स वामापीतये सुतोऽस्ति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (ताम्) (वाम्) युवयोः (धेनुम्) (न) इव (वासरीम्) निवासयित्रीम् (अंशुम्) विभक्तां सोमवल्लीम् (दुहन्ति) प्रपिपुरति (अद्रिभिः) मेघैः (सोमम्) ऐश्वर्यम् (दुहन्ति) प्रपूरयन्ति (अद्रिभिः) प्रस्तरैः (अस्मत्रा) अस्मासु (गन्तम्) गमयतम् (उप) (नः) अस्माकम् (अर्वाञ्चा) अर्वागञ्चतौ (सोमपीतये) सोमा ओषधिरसाः पीयन्ते यस्मिँस्तस्मै (अयम्) (वाम्) युवाभ्याम् (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव (नृभिः) नायकैः सह (सुतः) संपादितः (सोमः) सोमलतादिरसः (आ) समन्तात् (पीतये) पानाय (सुतः) निष्पादितः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा दुग्धदा गावः सुखान्यलङ्कुर्वन्ति तथा युक्त्या निर्मितः सोमलतादिरसः सर्वान् रोगान् निहन्ति ॥ ३ ॥अत्र सोमगुणवर्णनादेतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह संगतिरस्तीति वेद्यम् ॥इति सप्तत्रिंशदुत्तरं शततमं सूक्तं प्रथमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान के समान सर्वमित्र और सर्वोत्तम सज्जनो ! (नः) हमारे (अर्वाञ्चा) अभिमुख होते हुए तुम (वाम्) तुम्हारी जिस (वासरीम्) निवास करानेवाली (धेनुम्) धेनु के (न) समान (अद्रिभिः) पत्थरों से (अंशुम्) बढ़ी हुई सोमवल्ली को (दुहन्ति) दुहते जलादि से पूर्ण करते वा (अद्रिभिः) मेघों से (सोमपीतये) उत्तम ओषधि रस जिसमें पीये जाते उसके लिये (सोमम्) ऐश्वर्य को (दुहन्ति) परिपूर्ण करते (ताम्) उसको (अस्मत्रा) हमारे (उपागन्तम्) समीप पहुँचाओ, जो (अयम्) यह (नृभिः) मनुष्यों ने (सोमः) सोमवल्ली आदि लताओं का रस (सुतः) सिद्ध किया है वह (वाम्) तुम्हारे (आपीतये) अच्छे प्रकार पीने को (सुतः) सिद्ध किया गया है ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे दूध देनेवाली गौयें सुखों को पूरा करती हैं, वैसे युक्ति से सिद्ध किया हुआ सोमवल्ली आदि का रस सब रोगों का नाश करता है ॥ ३ ॥इस सूक्त में सोमलता के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ सैंतीसवाँ सूक्त और पहिला वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    सोम-रक्षण से शक्ति का विकास

    पदार्थ

    १. (न) = जैसे (वासरीं धेनुम्) = बहुत दूध देनेवाली गाय को दुहते हैं, उसी प्रकार (वाम्) = हे मित्रावरुणो! आपके लिए (ताम् अंशुम्) = उस सोम को ज्ञानप्राप्ति की साधनभूत वीर्यशक्ति को (अद्रिभिः) = [अ+दृ] वासनाओं से विदीर्ण न होने के द्वारा तथा [आदृ to adore] प्रभु-उपासना के द्वारा दुहन्ति अपने में पूरित करते हैं। सोम को 'मित्रावरुणों का' इसलिए कहा है कि यह प्राणसाधना द्वारा ही शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला होता है। (सोमम्) = सोम को (अद्रिभिः) = वासनाओं से अविदीर्णता तथा प्रभु के उपासन द्वारा अपने में दुहन्ति पूरित करते हैं । २. हे मित्रावरुणा - प्राणापानो! आप सोमपीतये इस सोमशक्ति के शरीर में ही पान-सुरक्षित करने के लिए (अस्मत्रा) = [अस्मान् त्रातारौ - सा०] हमारा रक्षण करनेवाले आप (अर्वाञ्चा) = हमारे अभिमुख होते हुए (नः) = हमारे उप आगन्तम्- समीप आइए। हे प्राणापानो! (अयं सोमः) = यह सोम (नृभिः) = प्रगतिशील पुरुषों से (वाम्) = आपके लिए ही (सुतः) उत्पन्न किया गया है। यह सोम (आ-पीतये) = सब प्रकार से शरीर में ही सुरक्षित करने के लिए (सुतः) = उत्पन्न किया गया है। इस सोम का उत्पादन इसे शरीर में ही व्याप्त करके सब शक्तियों के विकास के लिए ही हुआ है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान की साधना से सोम का रक्षण होता है। रक्षित सोम सब अङ्गों की शक्ति का रक्षण करता है।

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    विषय

    सोम और गोदोहन के दृष्टान्त से भूमि- दोहन ।

    भावार्थ

    ( वासरीं धेनुं न ) दिन भर चर कर पुनः घर पर आयी गाय को जिस प्रकार गृहस्थ लोग ( अद्रिभिः दुहन्ति ) उसके अंगों को विक्षत न करने वाले हाथों से दोहते हैं उसी प्रकार विद्वान् पुरुष ( वासरीम् ) रसयुक्त हरी त्वचा से आच्छादित ( अंशुम् ) सोमलता को (अद्रिभिः) पाषाणों से ( दुहन्ति ) दोहते हैं, सिलबट्टों से उसका रस निकालते हैं । और उसी प्रकार विद्वान् पुरुष ( वासरीम् ) सबके आच्छादन करने वाली, सबको अपने भीतर बसाने वाली ( अंशुम् ) भोग्या वसुंधरा को ( अद्रिभिः ) पर्वतों द्वारा, वा शस्त्राधारी सैन्यों द्वारा अथवा न दीर्ण होने अखण्डित शासनों और शासकों द्वारा ( दुहन्ति ) दोहते हैं, उसका सारभूत ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार वे ( वासरीं अंशुम् ) दिन के अंशु अर्थात् व्यापक प्रकाश वाले सूर्य की दीप्ति को ( अद्रिभिः ) मेघों द्वारा दोहते हैं। उसका जल प्राप्त करते हैं उसी प्रकार ( सोमं अद्रिभिः दुहन्ति ) जिस प्रकार लोग ( अद्रिभिः ) प्रस्तरों से सोमरस को भी दोहते हैं उसका रस प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार वे ( अद्रिभिः ) शस्त्रास्त्र बलों से ऐश्वर्यवान् राष्ट्र को दोहते हैं, ( अद्रिभिः ) अखण्ड व्रत नियमों से ( सोमम् ) आज्ञापक गुरु का ज्ञानरस प्राप्त करते हैं । हे ( मित्रा वरुणा ) स्नेहवान्, माता पिता, और उनके समान कष्टवारक गुरुजनो ! आप लोग (अस्मत्रा ) हमारे बीच और हमारी रक्षा करते हुए ( नः सोमपीतये ) हमारे ऐश्वर्य के पालन और उपभोग करने के लिये ( आ गन्तम् ) आइये । ( सुतः सोमः आपीतये ) जिस प्रकार सिद्ध किया सोमरस पान करने के लिये होता है उसी प्रकार ( सुतः ) विद्या आदि में निष्णात यह पुत्र और शिष्य और पदाभिषिक्त युवक ( सोमः ) ज्ञानवान्, और सोम्य स्वभाव होकर ( वां ) आप दोनों के ( पीतये ) पालन के लिये ( नृभिः ) नायक और उत्तम पुरुषों द्वारा ( सुतः ) योग्य पद पर अभिषिक्त किया जाय । इति प्रथमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेप ऋषिः । मित्रावरुणौ देवते । छन्दः- १ निचृच्छक्वरी । २ विराट् शक्वरी । ३ भुरिगतिशक्वरी ॥ तृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशा दूध देणाऱ्या गाई सुख देतात तसे युक्तीने सिद्ध केलेला सोमवल्ली इत्यादींचा रस सर्व रोगांचा नाश करतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, best of friends and highest order of the wise, our people extract and distil the soma drink for you from delicate shoots of soma plant crushed with soma stones and seasoned with showers, yes, they extract this soma as they milk a fertile generous cow. Saviours and protectors of us all, come here close to us upfront for a drink of soma and for protection of the soma joy of the people. Listen both of you graciously, Mitra and Varuna, these somas are distilled by all our people for you, for your drink, delightful drink of soma distilled for you.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again in the praise of MITRA and VARUNA.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O MITRA and VARUNA (Men like Prana and Udana) ! they milk for you both, the juices of that succulent creeper (SOMA) like a milch cow; they extract that SOMA juice with pounding stones. Come to us as our protector; be with us to drink the SOMA juice. This SOMA juice has been offered to you, both, for your drinking.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the milch cows bestow happiness, in the same manner, the juice of some creepers and other herbs destroys all diseases.

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