ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 155/ मन्त्र 2
त्वे॒षमि॒त्था स॒मर॑णं॒ शिमी॑वतो॒रिन्द्रा॑विष्णू सुत॒पा वा॑मुरुष्यति। या मर्त्या॑य प्रतिधी॒यमा॑न॒मित्कृ॒शानो॒रस्तु॑रस॒नामु॑रु॒ष्यथ॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वे॒षम् । इ॒त्था । स॒म्ऽअर॑णम् । शिमी॑ऽवतोः । इन्द्रा॑विष्णू॒ इति॑ । सु॒त॒ऽपाः । वा॒म् । उ॒रु॒ष्य॒ति॒ । या । मर्त्या॑य । प्र॒ति॒ऽधी॒यमा॑नम् । इत् । कृ॒शानोः॑ । अस्तुः॑ । अ॒स॒नाम् । उ॒रु॒ष्यथः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वेषमित्था समरणं शिमीवतोरिन्द्राविष्णू सुतपा वामुरुष्यति। या मर्त्याय प्रतिधीयमानमित्कृशानोरस्तुरसनामुरुष्यथ: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वेषम्। इत्था। सम्ऽअरणम्। शिमीऽवतोः। इन्द्राविष्णू इति। सुतऽपाः। वाम्। उरुष्यति। या। मर्त्याय। प्रतिऽधीयमानम्। इत्। कृशानोः। अस्तुः। असनाम्। उरुष्यथः ॥ १.१५५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 155; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यः शिमीवतोरध्यापकोपेदशकयोः सकाशात् समरणं त्वेषं प्राप्य मर्त्याय प्रतिधीयमानमुरुष्यति स सुतपा या इन्द्राविष्णू इवाध्यापकोपदेशकौ युवामस्तुः कृशानोरसनां यथेदुरुष्यथ इत्था वां सेवताम् ॥ २ ॥
पदार्थः
(त्वेषम्) प्रकाशम् (इत्था) अनेन प्रकारेण (समरणम्) सम्यक् प्रापकम् (शिमीवतोः) प्रशस्तकर्मयुक्तयोः (इन्द्राविष्णू) विद्युत्सूर्याविव (सुतपाः) सुतं पाति रक्षति सः (वाम्) युवाम् (उरुष्यति) वर्द्धयति (या) यौः (मर्त्याय) मनुष्याय (प्रतिधीयमानम्) सम्यक् ध्रियमाणम् (इत्) (कृशानोः) विद्युतः (अस्तुः) प्रक्षेप्तुः (असनाम्) प्रक्षेपणां क्रियाम् (उरुष्यथः) सेवेथाम् ॥ २ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये तपस्विनो जितेन्द्रियाः सन्तो विद्यामभ्यस्यन्ति ते सूर्यविद्युद्वत्प्रकाशितात्मानो भवन्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जो (शिमीवतोः) प्रशस्त कर्मयुक्त अध्यापक और उपदेशक की उत्तेजना से (समरणम्) अच्छे प्रकार प्राप्ति करानेवाले (त्वेषम्) प्रकाश को प्राप्त होकर (मर्त्याय) मनुष्य के लिये (प्रतिधीयमानम्) अच्छे प्रकार धारण किये हुए व्यवहार को (उरुष्यति) बढ़ाता है वह (सुतपाः) सुन्दर तपस्यावाला सज्जन पुरुष (या) जो (इन्द्राविष्णू) बिजुली और सूर्य के समान पढ़ाने और उपदेश करनेवाले तुम दोनों (अस्तुः) एक देश से दूसरे देश को पदार्थ पहुँचा देनेवाले (कृशानोः) बिजुली रूप आग की (असनाम्) पहुँचाने की क्रिया को जैसे (इत्) ही (उरुष्यथः) सेवते हो (इत्था) इसी प्रकार से (वाम्) तुम दोनों को सेवें ॥ २ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो तपस्वी जितेन्द्रिय होते हुए विद्या का अभ्यास करते हैं, वे सूर्य और बिजुली के समान प्रकाशितात्मा होते हैं ॥ २ ॥
विषय
सुतपा ही अर्चना करता है
पदार्थ
१. (शिमीवतोः) = शान्तभाव से अपने कर्मों को करनेवाले इन्द्र और विष्णु का (समरणम्) = गमन (इत्था) = सचमुच (त्वेषम्) = दीप्त होता है। इनके कार्य दीप्ति से युक्त होते हैं । २. हे (इन्द्राविष्णू) = सर्वशक्तिमान् [इन्द्र] व सर्वव्यापक [विष्णु] प्रभो ! (सुतपाः) = उत्पन्न हुए हुए सोम का रक्षण करनेवाला उपासक ही (वाम्) = आपको (उरुष्यति) = अपने जीवन में रक्षित करता है और इस प्रकार आपको अपने में धारण करता हुआ आपकी सच्ची स्तुति करता है। ३. यह उन आपका स्तवन करता है या जो आप मर्त्याय मनुष्य के लिए प्रतिधीयमानम् इत् निश्चय से धारण किये जाते हुए [धारण किये जाने योग्य] (असनाम्) = [असति = to shine] शरीर में दीप्ति प्राप्त करानेवाले अन्न को (अस्तुः कृशानोः) = अपने में आहुत अन्न व घृत को सूर्य तक फेंकनेवाली [असु क्षेपणे] अग्नि के द्वारा (उरुष्यथ:) = [अविच्छेदेन प्रवर्तयथः - सा०] निरन्तर प्राप्त कराते हैं । अग्नि में किये गये इन यज्ञों से पर्जन्य- बादल होता है और उससे अन्न उत्पन्न होता है।
भावार्थ
भावार्थ - सोम का रक्षण करनेवाला इन्द्र और विष्णु का उपासक बनता है। ये इन्द्र और विष्णु यज्ञों के द्वारा उपासक को दीप्ति देनेवाला अन्न प्राप्त कराते हैं ।
विषय
सूर्य वायुवत् राजा का अपने राष्ट्र और शक्ति की रक्षा का उपदेश
भावार्थ
सूर्य और वायु के तेज और वेग को जिस प्रकार (सुतपाः) उत्तम जलपान करने वाला मेघ ( उरुष्यति ) अपेक्षा करता है, हे ( इन्द्रा विष्णू ) वायु और सूर्य के समान बलवान् और तेजस्वी, प्रकाश देने वाले दोनों विद्वान् और शूरवीर पुरुषो ! ( शिमीवतोः ) क्रियाकुशल ( वां ) तुम दोनों पुरुषों के ( इत्था ) इस प्रकार के ( त्वेषम् ) तेज को और ( सम्-अरणम् ) उत्तम ज्ञान और सत्संग को ( सु-तपाः ) उत्तम तपस्वी शिष्य या ( सु-तपाः ) उत्तम ज्ञान रस का पिपासु जन ( उरुष्यति ) प्राप्त करता है। जिस प्रकार वायु और सूर्य दोनों ही ( मर्त्याय प्रतिधीयमानम् ) मनुष्यों के हित के लिये प्रतिक्षण धारण पोषणार्थ देने योग्य अन्नादि पदार्थ को पालन करते हैं और जिस प्रकार वे दोनों ( कृशानोः असनाम् ) अग्नि के व्यापनशील ज्वाला की रक्षा करते हैं उसी प्रकार उक्त इन्द्र और विष्णु, सेनापति और राजा (मर्त्याय) प्रजा के साधारणजन के हितार्थ ( प्रतिधीयमानम् उरुष्यथः ) धारण करने योग्य प्रत्येक पदार्थ की रक्षा करें और वे (अस्तुः) शत्रु पर बाणवर्षा करने वाले ( कृशानोः ) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष की ( असनाम् ) शत्रु को उखाड़ फेंकने और शस्त्रादि फेंकने की शक्ति की ( उरुष्यथः ) रक्षा करें । इसी प्रकार आचार्य और अध्यापक दोनों भी जिज्ञासु मनुष्य के धारने योग्य ज्ञान की रक्षा करें और तेजस्वी, अग्नि के समान (अस्तुः) दोषों को दूर करने वाले जितेन्द्रिय पुरुष की ( असनाम् ) दोषों को त्यागने की प्रवृत्ति की रक्षा करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषि॥ विष्णुर्देवता इन्द्रश्च ॥ छन्दः- १, ३, ६ भुरिक त्रिष्टुप् । ४ स्वराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २ निचृज्जगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे तपस्वी जितेंद्रिय असून विद्याभ्यास करतात ते आत्मे सूर्य व विद्युतप्रमाणे प्रकाशित होतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power such as lightning, and Vishnu, lord of light such as the sun, extend and expand the range and potential of the mighty shooting archer’s missile-fitted defence of humanity. And thus does the man of yajna, protecting, promoting and drinking the soma-joy of the nation, extend and expand the blaze of the battle of the mighty defender of the nation and thus does he glorify you both, Indra and Vishnu.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The austere persons shine.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Let the person who advances the light of knowledge received from you disseminate it among the doers of noble deeds. Such teachers and preachers radiate like the lightning and sun. They also utilize the power (electricity) which takes articles to distinct places, and serves you well. Let him acquire the knowledge that leads to happiness. He is a good protector of his sons or pupils.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The ascetics and self-restrained people practice Vidya good knowledge. They also shine like the sun and the lighting in their souls.
Foot Notes
( त्वेषम् ) प्रकाशम् = Light. (इन्द्रा विष्णु) विद्युत्सूर्याविव प्रध्यापकोपदेशकौ = Teachers and preachers who are like the lightning and the sun. (कृशानो:) विद्यतः = Of electricity.!
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