ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 156/ मन्त्र 2
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यः पू॒र्व्याय॑ वे॒धसे॒ नवी॑यसे सु॒मज्जा॑नये॒ विष्ण॑वे॒ ददा॑शति। यो जा॒तम॑स्य मह॒तो महि॒ ब्रव॒त्सेदु॒ श्रवो॑भि॒र्युज्यं॑ चिद॒भ्य॑सत् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । पू॒र्व्याय॑ । वे॒धसे॑ । नवी॑यसे । सु॒मत्ऽजा॑नये । विष्ण॑वे । ददा॑शति । यः । जा॒तम् । अ॒स्य॒ । म॒ह॒तः । महि॑ । ब्रव॑त् । सः । इत् । ऊँ॒ इति॑ । श्रवः॑ऽभिः । युज्य॑म् । चि॒त् । अ॒भि । अ॒स॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः पूर्व्याय वेधसे नवीयसे सुमज्जानये विष्णवे ददाशति। यो जातमस्य महतो महि ब्रवत्सेदु श्रवोभिर्युज्यं चिदभ्यसत् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। पूर्व्याय। वेधसे। नवीयसे। सुमत्ऽजानये। विष्णवे। ददाशति। यः। जातम्। अस्य। महतः। महि। ब्रवत्। सः। इत्। ऊँ इति। श्रवःऽभिः। युज्यम्। चित्। अभि। असत् ॥ १.१५६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 156; मन्त्र » 2
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो नवीयसे सुमज्जानये पूर्व्याय वेधसे विष्णवे ददाशति योऽस्य महतो महि जातं ब्रवत् य उ श्रवोभिर्जातं महि युज्यमभ्यसत् स चिद्विद्वान् जायेत स इदेवाऽध्यापयितुं योग्यो भवेत् ॥ २ ॥
पदार्थः
(यः) (पूर्व्याय) पूर्वैर्विद्वद्भिः सुशिक्षया निष्पादिताय (वेधसे) मेधाविने (नवीयसे) अतिशयेनाधीतविद्याय नूतनाय (सुमज्जानये) सुष्ठुप्राप्तविद्याय प्रसिद्धाय (विष्णवे) विद्या व्याप्तुं शीलाय (ददाशति) ददाति। अत्र बहुलं छन्दसीति शपः श्लुः। (यः) (जातम्) उत्पन्नं विज्ञानम् (अस्य) विद्याविषयस्य (महतः) पूजितव्यस्य (महि) महत् पूजितम् (ब्रवत्) ब्रूयात् (सः) (इत्) एव (उ) वितर्के (श्रवोभिः) श्रवणमनननिदिध्यासनैः (युज्यम्) समाधातुमर्हम् (चित्) अपि (अभि) आभिमुख्ये (असत्) अभ्यासं कुर्यात् ॥ २ ॥
भावार्थः
ये निष्कपटतया धीमतो विद्यार्थिनोऽध्यापयन्त्युपदिशन्ति ये च धर्म्येणाऽधीयतेऽभ्यस्यन्ति च तेऽतिशयेन विद्वांसो धार्मिका भूत्वा महत्सुखं यान्ति ॥ २ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो (नवीयसे) अत्यन्त विद्या पढ़ा हुआ नवीन (सुमज्जानये) सुन्दरता से पाई हुई विद्या से प्रसिद्ध (पूर्व्याय) पूर्वज विद्वानों के द्वारा अच्छी सिखावटों से सिखाये हुए (वेधसे) मेधावी अर्थात् धीर (विष्णवे) विद्या में व्याप्त होने का स्वभाव रखनेवाले के लिये विज्ञान (ददाशति) देता है वा (यः) जो (अस्य) इस (महतः) सत्कार करने योग्य जन के (महि) महान् प्रशंसित (जातम्) उत्पन्न हुए विज्ञान को (ब्रवत्) प्रकट कहे (उ) और (श्रवोभिः) श्रवण, मनन और निदिध्यासन अर्थात् अत्यन्त धारण करने-विचारने से अत्यन्त उत्पन्न हुए (युज्यम्) समाधान के योग्य विज्ञान का (अभ्यसत्) अभ्यास करे (सः, चित्) वही विद्वान् हो और (इत्) वही पढ़ाने को योग्य हो ॥ २ ॥
भावार्थ
जो निष्कपटता से बुद्धिमान् विद्यार्थियों को पढ़ाते वा उनको उपदेश देते हैं और जो धर्मयुक्त व्यवहार से पढ़ते और अभ्यास करते हैं, वे सब अतीव विद्वान् और धार्मिक होकर बड़े सुख को प्राप्त होते हैं ॥ २ ॥
विषय
सायुज्य
पदार्थ
१. (य:) = जो (पूर्व्याय) = सृष्टि से पूर्व होनेवाले 'हिरण्यगर्भः समवर्तत्ताग्रे' (वेधसे) = ज्ञानी (नवीयसे) = नित्य नूतन, अत्यन्त रमणीय व स्तुत्य [नु स्तुतौ] सुमज्जानये स्वयं प्रादुर्भूत होनेवाले [सुमत् = स्वयम्] 'स्वयम्भू' विष्णवे व्यापक प्रभु के लिए (ददाशति) = अपने को अर्पित करता है और (यः) = जो (अस्य) = इस (महतः) = पूज्य, महान् प्रभु के (महि जातं ब्रवत्) = महान् विकास को व्यक्तरूप से प्रतिपादित करता है। (स इत् उ) = वह ही निश्चय से (श्रवोभिः) = ज्ञानों के द्वारा (युज्यं चित् अभि) = उस महान् साथी प्रभु की ओर (असत्) = होता है, प्रभु को प्राप्त होता है। प्रभु के सायुज्य को ज्ञान के द्वारा ही तो हमें प्राप्त करना है। २. 'प्रभु के प्रति अपने को अर्पण करना, प्रभु की महिमा को संसार में देखना और उसी का प्रतिपादन करना' यही प्रभु-प्राप्ति का मार्ग है। प्रभु का सायुज्य प्राप्त करने के लिए प्रभु को इस रूप में स्मरण करना चाहिए कि वे 'पूर्व्य' हैं, सदा से हैं, सृष्टि बनने से पहले ही विद्यमान हैं। 'वेधस्' ज्ञानी हैं, 'नवीयान्' अत्यन्त रमणीय व स्तुत्यतम हैं, 'सुमत् जानि' स्वयं होनेवाले हैं अथवा उत्तम ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले हैं, 'विष्णु' सर्वव्यापक हैं। इस प्रकार प्रभु का स्मरण करते हुए हम उसी के प्रति अपने को अर्पण करते हैं और उसी में प्रवेश कर जाते हैं, प्रभु हमारे युज्य होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सर्वव्यापक प्रभु के प्रति अपने को अर्पण करके हम उसके सायुज्य (समीपता) को प्राप्त करें ।
विषय
उपदेष्टा विद्वान् के कर्त्तव्य और परमेश्वर का वर्णन, इनका सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यः ) जो विद्वान् पुरुष ( वेधसे ) विद्वान् मेधावी, या विशेष रूप से सेवा करने वाले ( पूर्व्याय ) अपने से पूर्व विद्यमान विद्यावयोवृद्ध पुरुषों की उत्तम रीति से सेवा करने वाले, ( नवीयसे ) अति नवीन, सुन्दर एवं सदा सुप्रसन्न, ( सुमत्-जानये ) स्वयं ही स्वभाव से ही ज्ञान सम्पादन करने में संलग्न, (विष्णवे) ज्ञान मार्ग में प्रवेश करने वाले नव विद्यार्थी को ( ददाशति ) ज्ञान और अन्न, धनादि दान करता है और ( यः ) जो पुरुष ( महतः ) व्रतों और गुणों में महान् (अस्य) इस विद्यार्थी को ( महि जातम् ) उत्तम उत्तम ज्ञान का ( ब्रवत् ) सदा उपदेश करता है ( स इत् उ ) वह ही ( श्रवोभिः ) श्रवण योग्य उपदेशों तथा मनन निदिध्यासनादि कर्मों से (युज्यं चिद्) युज्य अर्थात् प्राप्त करने योग्य ब्रह्म ज्ञान का ही स्वयं ( अभि असत् ) अभ्यास करता है । ( २ ) परमेश्वर पक्ष में—वह परमेश्वर सबसे पूर्व विद्यमान, पूर्व के विद्वानों से उपास्य, सदा स्तुत्य, स्वयंभू, सर्व व्यापक है । उसके निभित्त जो दान करता है जो इस महान् परमेश्वर के ज्ञान का उपदेश करता है, वह ज्ञानों और गुरूपदेशों से उस परम सखा, योग द्वारा गम्य परमेश्वर को ही (अभि असत्) साक्षात् करता हुआ उसी की उपासना करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । निचृज्जगती । ४ जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे निष्कपटीपणाने बुद्धिमान विद्यार्थ्यांना शिकवितात व त्यांना उपदेश देतात व जे धर्मयुक्त व्यवहाराने शिकवितात व अभ्यास करतात ते सर्व अत्यंत विद्वान व धार्मिक बनून खूप सुख प्राप्त करतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
One who lovingly and generously does homage to Vishnu, ancient and yet most modern lord of knowledge, one who creates and imparts new knowledge for the devotees of knowledge, one who speaks and communicates this great new message of the great lord of universal knowledge, and one who practices this applicable and useful knowledge with thanks and grateful offerings in yajna for charity and social service, he is the real man.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The chapter of teacher-student relationship is again opened.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A pupil becomes a good scholar and can teach as well, when his teacher makes him well versed in all the branches of sciences. Such a pupil is trained by old and experienced gurus (teachers). They possessed genius and acquired up to date modern knowledge and are renowned on account of their wisdom and wide learning. Such a guru imparts knowledge to this venerable scholar and practices all scientific processes through hearing, reflection, contemplation and solution of all problems and questions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who teach intelligent students without any deceit any who study and practice righteously, become great scholars and enjoy much happiness by the observance of righteousness,
Foot Notes
(वेधसे) मेधाविने = For a genius. (सुमज्जानये ) सुष्ठ प्राप्तविद्यान = For a distinguished scholar. (श्रवोभिः ) श्रवणमननविदिध्यासनः = By the process of hearing, reflection and contemplation.
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