ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 40/ मन्त्र 8
उप॑ क्ष॒त्रं पृ॑ञ्ची॒त हन्ति॒ राज॑भिर्भ॒ये चि॑त्सुक्षि॒तिं द॑धे । नास्य॑ व॒र्ता न त॑रु॒ता म॑हाध॒ने नार्भे॑ अस्ति व॒ज्रिणः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । क्ष॒त्रम् । पृ॒ञ्ची॒त । हन्ति॑ । राज॑ऽभिः । भ॒ये । चि॒त् । सु॒ऽक्षि॒तिम् । द॒धे॒ । न । अ॒स्य॒ । व॒र्ता । न । त॒रु॒ता । म॒हा॒ऽध॒ने । न । अर्भे॑ । अ॒स्ति॒ । व॒ज्रिणः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप क्षत्रं पृञ्चीत हन्ति राजभिर्भये चित्सुक्षितिं दधे । नास्य वर्ता न तरुता महाधने नार्भे अस्ति वज्रिणः ॥
स्वर रहित पद पाठउप । क्षत्रम् । पृञ्चीत । हन्ति । राजभिः । भये । चित् । सुक्षितिम् । दधे । न । अस्य । वर्ता । न । तरुता । महाधने । न । अर्भे । अस्ति । वज्रिणः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 40; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(उप) सामीप्ये (क्षत्रम्) राज्यम् (पृञ्चीत) सम्बध्नीत (हन्ति) नाशयति (राजभिः) राजपूतैः सह (भये) बिभेति यस्मात्तस्मिन् (चित्) अपि (सुक्षिति) शोभना क्षितिर्भूमिर्यस्मिन् व्यवहारे तम्। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु। इति त लोपः। (न) निषेधार्थे (अस्य) पूर्वोक्तलक्षणाऽन्वितस्य सर्वसभाध्यक्षस्य (वर्त्ता) विपरिवर्तयिता। अत्र वृणोतेस्तृ च्र छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकत्वादिडभावः। (न) निषेधार्थे (तरुता) संप्लवनकर्त्ता। अत्र ग्रसित०। अ० ७।२।२४। इति निपातनम्। (महाधने) पुष्कलधनप्रापके संग्रामे (अर्भे) अल्पेयुद्धे (अस्ति) भवति (वज्रिणः) बलिनः। वज्रो वै वीर्यम्। शत० ७।४।२।२४। ॥८॥
अन्वयः
एतल्लक्षणस्य विदुषः कीदृशं राज्यं भवतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
यः क्षत्रं पृश्चीत सुक्षितिं दधेऽस्य वज्रिणो राजभिः संगे भये स्वकीयान् जनाञ्च्छत्रुर्न हन्ति महाधने युद्धे वर्त्ता विपरिवर्त्तयिता नास्त्यर्भे युद्धे चिदपि तरुता बलस्योल्लंघयिता नास्ति ॥८॥
भावार्थः
ये राजपुरुषा महाधनेऽल्पे वा युद्धे शत्रून् विजित्य बध्वा वा निवारयितुं धर्मेण राज्यं पालयितुं शक्नुवन्ति त इहानन्दं भुक्त्वा प्रेत्यापि महानन्दं भुञ्जते ॥८॥ अथैकोनचत्वारिंशत्सूक्तोक्तेन विद्वत्कृत्यार्थेन सह ब्रह्मणस्पत्यादीनामर्थानां संबन्धात्पूर्वेण सूक्तार्थेन सहैतदर्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। इति चत्वारिंशं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥४०॥
हिन्दी (4)
विषय
ऐसे विद्वान् का कैसा राज्य होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
जो मनुष्य (क्षत्रम्) राज्य को (पृञ्चीत) संबन्ध तथा (सुक्षितिम्) उत्तमोत्तम भूमि की प्राप्ति करानेवाले व्यवहार को (दधे) धारण करता है (अस्य) इस सर्व सभाध्यक्ष (वज्रिणः) बली के (राजभिः) रजपूतों के साथ (भये) युद्ध भीति में अपने मनुष्यों को कोई भी शत्रु (न) नहीं (हन्ति) मार सकता (न) (महाधने) नहीं महाधन की प्राप्ति के हेतु बड़े युद्ध में (वर्त्ता) विपरीत वर्त्तनेवाला और (न) इस वीर्यवाले के समीप (अर्भे) छोटे युद्ध में (चित्) भी (तरुता) बल को उल्लंघन करनेवाला कोई (अस्ति) होता है ॥८॥
भावार्थ
जो रजपूत लोग महाधन की प्राप्ति के निमित्त बड़े युद्ध वा थोड़े युद्ध में शत्रुओं को जीत वा बांध के निवारण करने और धर्म से प्रजा का पालन करने को समर्थ होते हैं वे इस संसार में आनन्द को भोग कर परलोक में भी बड़े भारी आनन्द को भोगते हैं ॥८॥ अब उनतालीसवें सूक्त में कहे हुए विद्वानों के कार्यरूप अर्थ के साथ ब्रह्मणस्पति आदि शब्दों के अर्थों के संबंध से पूर्वसूक्त की संगति जाननी चाहिये ॥८॥ यह चालीसवां सूक्त और इक्कीसवां वर्ग समाप्त हुआ ॥४०।२१॥
विषय
ऐसे विद्वान् का कैसा राज्य होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यः क्षत्रं पृञ्चीत सुक्षितिं दधे अस्य वज्रिणः राजभिः संगे भये स्वकीयान् जनान् शत्रुः न हन्ति महाधने युद्धे वर्त्ता विपरिवर्त्तयिता न अस्ति अर्भे युद्धे चित् अपि तरुता बलस्य उल्लंघयिता न अस्ति ॥८॥
पदार्थ
(यः)=जो मनुष्य, (क्षत्रम्) राज्यम्=राज्य को, (पृञ्चीत) सम्बध्नीत=एक साथ बांधकर संगठित करता है, (सुक्षिति) शोभना क्षितिर्भूमिर्यस्मिन् व्यवहारे तम्=जिस व्यवहार में उत्तम भूमियां, अर्थात् स्थितियां होती हैं, उसे, (दधे)=धारण करता है। (अस्य)=इसके, (वज्रिणः) बलिनः=बलशाली, (राजभिः) राजपुत्रैः सह=राजपुत्रों के साथ में (भये) बिभेति यस्मात्तस्मिन्=जिनसे किसी कारण से डरता है, (स्वकीयान्)=अपने, (जनान्)=लोगों को, (शत्रुः)=शत्रु, (न) निषेधार्थे=न, (हन्ति) नाशयति=नष्ट करे। (महाधने) पुष्कलधनप्रापके संग्रामे=बहुत सारा धन भूमि आदि प्राप्त करनेवाले युद्ध में, (वर्त्ता) विपरिवर्तयिता=संग्राम से पीछे लौटना, (न) निषेधार्थे=नहीं, (अस्ति) भवति=होता है। (अर्भे) अल्पेयुद्धे=छोटे युद्ध में, (चित्) अपि=भी, (तरुता) संप्लवनकर्त्ता=गलत व्यवस्था करनेवाले, (बलस्य)=बल का, (उल्लंघयिता)=उल्लंघ करनेवाला, (न) निषेधार्थे=नहीं, (अस्ति) भवति=होता है ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो राजपूत लोग महाधन की प्राप्ति के निमित्त बड़े युद्ध वा थोड़े युद्ध में शत्रुओं को जीत वा बांध के निवारण करने और धर्म से प्रजा का पालन करने को समर्थ होते हैं वे इस संसार में आनन्द को भोग कर परलोक में भी बड़े भारी आनन्द को भोगते हैं ॥८॥
विशेष
सूक्त के भावार्थ का भाषानुवाद - अब उनतालीसवें सूक्त में कहे हुए विद्वानों के कार्यरूप अर्थ के साथ ब्रह्मणस्पति आदि शब्दों के अर्थों के संबंध से पूर्वसूक्त की संगति जाननी चाहिये ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यः) जो मनुष्य (क्षत्रम्) राज्य को (पृञ्चीत) एक साथ बांधकर संगठित करता है, (सुक्षिति) जिस व्यवहार में उत्तम भूमियां, अर्थात् स्थितियां होती हैं, उस व्यवहार को (दधे) धारण करता है। (अस्य) इसके (वज्रिणः) बलशाली (राजभिः) राजपुत्रों के साथ में (भये) जिनसे किसी कारण से डरता है। (स्वकीयान्) अपने (जनान्) लोगों को (शत्रुः) शत्रु (न+हन्ति) नष्ट न करे। (महाधने) बहुत सारा धन भूमि आदि प्राप्त करनेवाले का युद्ध में (वर्त्ता) पीछे लौटना (न) नहीं (अस्ति) होता है। (अर्भे) छोटे युद्ध में (चित्) भी (तरुता) गलत व्यवस्था करनेवाले (बलस्य) बल का (उल्लंघयिता) उल्लंघ करनेवाला (न) नहीं (अस्ति) होता है ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उप) सामीप्ये (क्षत्रम्) राज्यम् (पृञ्चीत) सम्बध्नीत (हन्ति) नाशयति (राजभिः) राजपुत्रैः सह (भये) बिभेति यस्मात्तस्मिन् (चित्) अपि (सुक्षिति) शोभना क्षितिर्भूमिर्यस्मिन् व्यवहारे तम्। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेषु। इति त लोपः। (न) निषेधार्थे (अस्य) पूर्वोक्तलक्षणाऽन्वितस्य सर्वसभाध्यक्षस्य (वर्त्ता) विपरिवर्तयिता। अत्र वृणोतेस्तृ च्र छन्दस्युभयथा इति सार्वधातुकत्वादिडभावः। (न) निषेधार्थे (तरुता) संप्लवनकर्त्ता। अत्र ग्रसित०। अ० ७।२।२४। इति निपातनम्। (महाधने) पुष्कलधनप्रापके संग्रामे (अर्भे) अल्पेयुद्धे (अस्ति) भवति (वज्रिणः) बलिनः। वज्रो वै वीर्यम्। शत० ७।४।२।२४। ॥८॥
विषयः- एतल्लक्षणस्य विदुषः कीदृशं राज्यं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यः क्षत्रं पृञ्चीत सुक्षितिं दधेऽस्य वज्रिणो राजभिः संगे भये स्वकीयान् जनाञ्च्छत्रुर्न हन्ति महाधने युद्धे वर्त्ता विपरिवर्त्तयिता नास्त्यर्भे युद्धे चिदपि तरुता बलस्योल्लंघयिता नास्ति ॥८॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये राजपुरुषा महाधनेऽल्पे वा युद्धे शत्रून् विजित्य बध्वा वा निवारयितुं धर्मेण राज्यं पालयितुं शक्नुवन्ति त इहानन्दं भुक्त्वा प्रेत्यापि महानन्दं भुञ्जते ॥८॥
सूक्तस्य भावार्थः- अथैकोनचत्वारिंशत्सूक्तोक्तेन विद्वत्कृत्यार्थेन सह ब्रह्मणस्पत्यादीनामर्थानां संबन्धात्पूर्वेण सूक्तार्थेन सहैतदर्थस्य सङ्गतिरस्तीति बोध्यम्। ॥४०॥
विषय
ब्रह्म का क्षत्र से सम्पर्क
पदार्थ
१. (ब्रह्मणस्पतिः) - ज्ञान के पति को यह भी चाहिए कि वह (क्षत्रम्) - बल को भी (उपपृञ्चीत) - द्वितीय स्थान में प्राप्त करने का प्रयत्न करे । ज्ञान के साथ बल का सम्पादन आवश्यक है । अथवा क्षत्रियों के साथ इसका समुचित सम्पर्क हो, चूँकि ऐसा होने पर (राजभिः) - उन राजाओं के द्वारा (भये) - भय उपस्थित होने पर यह (हन्ति) - शत्रुओं का नाश कर सकता है । वस्तुतः क्षत्र को ब्रह्म का रक्षण करना ही चाहिए ।
२. इस रक्षण के होने पर यह ब्रह्मणस्पति (सुक्षितिं दधे) - उत्तम निवास को धारण करता है ।
३. जब एक मनुष्य ब्रह्म के साथ क्षत्र को जोड़ देता है, अर्थात् ज्ञान व बल का मेल हो जाता है तब (अस्य) - इस (वज्रिणः) - क्रियाशीलतारूप वज्रवाले पुरुष का (महाधने) - बड़े - बड़े संग्रामों में व (अर्भे) - छोटे - छोटे युद्धों में (न वर्ता अस्ति) - मुकाबला करनेवाला नहीं होता है (न तरुता अस्ति) - न इसको कोई लाँघ जानेवाला व परास्त करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान के साथ बल के मिल जाने पर हम शत्रुओं से भयभीत नहीं होते, हमारा निवास उत्तम होता है और हम बड़े - छोटे किसी भी संग्राम में पराजित नहीं होते ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ आचार्य के आदर्श के वर्णन से हुआ है । आचार्य को ज्ञानी, क्रियाशील, जितेन्द्रिय व सदा विद्यार्थी के साथ रहनेवाला होना चाहिए [३] । आचार्य अत्यन्त सहनशील हो, विद्यार्थी को 'ज्ञानी, सशक्त व जितेन्द्रिय' बनाने का प्रयत्न करे [२] । हम सूनृता वाणी व लोकहितकारी यज्ञों को अपनाएँ [३] । ये आचार्य लोग ही सच्चे दान के पात्र होते हैं [४] । आचार्य विद्यार्थी को सब विज्ञानों में निपुण बनाता है [५] । वेदवाणी के द्वारा सब सौन्दयों को प्राप्त कराता है [९] । इस देवयन् पुरुष को समृद्ध गृह प्राप्त होता है [७] । ब्रह्म के साथ क्षत्र को जोड़कर हम निर्भीकता से आगे बढ़ते हैं [८] । हमारे जीवनों में 'वरुण - मित्र - अर्यमा' का उचित स्थान होता है - यही उन्नति का मार्ग है ।
विषय
वीर राजा की प्रतिष्ठा पद ।
भावार्थ
जो राजा (क्षत्रं) अपने क्षत्र अर्थात् सेना बलको (उप पृञ्चीत) अच्छी प्रकार सुव्यवस्थित सुगठित कर लेता है वह (भये चित्) युद्ध आदि संकट के अवसर पर भी (राजभिः) अन्य सहयोगी राजाओं की सहायता से (हन्ति) मैदान मार लेता है, शत्रु का नाश कर देता है और (सुक्षितिम्) अपनी उत्तम निवास भूभि को भी (दधे) अपने वश किये रहता है। (महाधने) बड़े २ संग्राम में भी (अस्य वर्त्ता न) न कोई इसके मुकाबले पर रहने वाला और (न तरुता) न कोई उसको परास्त कर उससे बढ़ जाने वाला ही होता (अस्ति) है। और (न अर्भे) न छोटे संग्राममें ही (वज्रिणः) उस बल वीर्यशाली राजा को कोई परास्त और उल्लंघन कर सकता है। इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कण्वो घौर ऋषिः ॥ बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः—२, १, ८, निचदुपरिष्टाद्बृहती । ५ पथ्याबृहती । ३, ७ आर्चीत्रिष्टुप् । ४,६ सतः पंक्तिनिचृत्पंक्तिः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजपुरुष महाधनाच्या प्राप्तीसाठी मोठ्या किंवा छोट्या युद्धात शत्रूंना जिंकून व बंधनात ठेवून त्यांचे निवारण करण्यासाठी व धर्माने प्रजेचे पालन करण्यासाठी समर्थ असतात. ते या संसारात आनंद भोगून परलोकातही फार मोठा आनंद भोगतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Brahmanaspati consolidates the ruling power. With warriors and statesmen he eliminates the enemies. In a state of fear and challenge he maintains his cool constancy. Wielder of the thunderbolt as he is, none can turn him, none can defeat even in the greatest battle. In little skirmishes? No question.
Subject of the mantra
How is the reign of such scholar, this has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yaḥ)=That human, (kṣatram)=to the state, (pṛñcīta)=unites together and organizes, (sukṣiti)=the behaviour in which there are good lands, that is, conditions, that behavior (dadhe)=possesses, (asya)=its, (vajriṇaḥ)=strong, (rājabhiḥ)=with the princes, (bhaye)=whom he is afraid of for some reason, (svakīyān)=to its, (janān)=people, (śatruḥ)=enemy, (na+hanti)=must not destroy, (mahādhane)=one who gets a lot of money, land etc. in the war, (varttā)=return back, (na)=not, (asti)=becomes, (arbhe)=in a small war, (cit)=also, (tarutā)=wrong arrangers, (balasya)=of force, (ullaṃghayitā)=transgressor, (na) nahīṃ (asti)=becomes.
English Translation (K.K.V.)
The person, who organizes the state by uniting it together; the conduct in which there are perfect lands, that is, conditions, imbibe that conduct. With its powerful princes, whom it fears for some reason. Let the enemy not destroy your people. The one, who gets a lot of money, land etc. does not have to turn back in the war. Even in a small war, the one, who does wrong management is not the one, who violates the force.
Footnote
Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- Now, the meanings of the words "Brahmanspati" et cetera, appearing as a result meaning of the scholars said in the forty-ninth hymn, the association of the previous hymn should be known.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Those royal people who are capable of conquering and tying their enemies in a big and small war for the sake of getting great wealth and making the people follow the righteousness, they enjoy great happiness in this world and in the next birth hereafter.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is the Government of such a learned person is taught in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Such a highly learned President of the Assembly or of the Council of Ministers, concentrates his strength and amplifies his lordly might with the aid of brave heroes shining with splendor; he slays his foes, being himself very mighty. In greater or lesser fight, none checks him, none subdues as he is the wielder of the thunderbolt. Even amid alarms, he remains secure.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(क्षत्रम्) राज्यम् = Kingdom. (वर्ता) विपरिवर्तयिता = Changer or Checker. ( तरुता) संप्लवनर्ता = Subduer. (तृ-प्लवन-सन्तरणयोः) (वञ्त्रिण:) बलिन:, वज्नो वं वीर्यम् (शत ०७.४.२.२४) Of the mighty, holder of thunderbolt. This hymn is in continuation of the subject matter of the previous hymn and is connected with that. Thus ends the commentary on the fortieth hymn and 21st Verga of the first mandala of the Rigveda Sanhita.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those officers and workers of the State who conquer their enemies in greater as well as lesser fights, imprison them and restrain them from doing any mischief, can administer the State righteously, enjoy happiness in this world and attain emancipation after passing away.
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