ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
उ॒शिक्पा॑व॒को वसु॒र्मानु॑षेषु॒ वरे॑ण्यो॒ होता॑धायि वि॒क्षु। दमू॑ना गृ॒हप॑ति॒र्दम॒ आँ अ॒ग्निर्भु॑वद्रयि॒पती॑ रयी॒णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒शिक् । पा॒व॒कः । वसुः॑ । मानु॑षेषु । वरे॑ण्यः । होता॑ । अ॒धा॒यि॒ । वि॒क्षु । दमू॑ना । गृ॒हऽप॑तिः । दमे॑ । आ । अ॒ग्निः । भु॒व॒त् । र॒यि॒ऽपतिः॑ । र॒यी॒णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उशिक्पावको वसुर्मानुषेषु वरेण्यो होताधायि विक्षु। दमूना गृहपतिर्दम आँ अग्निर्भुवद्रयिपती रयीणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठउशिक्। पावकः। वसुः। मानुषेषु। वरेण्यः। होता। अधायि। विक्षु। दमूना। गृहऽपतिः। दमे। आ। अग्निः। भुवत्। रयिऽपतिः। रयीणाम् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
मनुष्यैर्य उशिक् पावको वसुर्वरेण्यो दमूना गृहपती रयिपतिरग्निरिव मानुषेषु विक्षु दमे च रयीणां होता दाता भुवद्भवेत्, स प्रजापालनक्षम अधायि ॥ ४ ॥
पदार्थः
(उशिक्) सत्यं कामयमानः (पावकः) पवित्रः (वसुः) वासयिता (मानुषेषु) युक्त्याहारविहारकर्त्तृषु (वरेण्यः) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हः (होता) सुखानां दाता (अधायि) धीयते (विक्षु) प्रजासु (दमूनाः) दाम्यति येन सः। अत्र दमेरुनसि० (उणा०४.२४०) इत्युनस् प्रत्ययो अन्येषामपि इति दीर्घः। (गृहपतिः) गृहस्य पालयिता (दमे) गृहे (आ) समन्तात् (अग्निः) भौतिकोऽग्निरिव (भुवत्) भवेत्। अयं लेट् प्रयोगः। (रयिपतिः) धनानां पालयिता (रयीणाम्) राज्यादिधनानाम् ॥ ४ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्नैव कदाचिदविद्वानधार्मिको राज्यरक्षायामधिकर्त्तव्यः ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
मनुष्यों को उचित है कि जो (उशिक्) सत्य की कामनायुक्त (पावकः) अग्नि के तुल्य पवित्र करने (वसुः) वास कराने (वरेण्यः) स्वीकार करने योग्य (दमूनाः) दम अर्थात् शान्तियुक्त (गृहपतिः) गृह का पालन करने तथा (रयिपतिः) धनों को पालने (अग्निः) अग्नि के समान (मानुषेषु) युक्तिपूर्वक आहार-विहार करनेवाले मनुष्य (विक्षु) प्रजा और (दमे) गृह में (रयीणाम्) राज्य आदि धन और होता सुखों का देनेवाला (भुवत्) होवे, वही प्रजा में राजा (अधायि) धारण करने योग्य है ॥ ४ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि अधर्मी मूर्खजन को राज्य की रक्षा का अधिकार कदापि न देवें ॥ ४ ॥
विषय
उशिक् पावक
पदार्थ
१. वे प्रभु (उशिक्) = [कामयमानः] अपने सखा जीव का हित चाहनेवाले हैं । उसका हित करने के लिए ही (पावकः) = उसके जीवन को पवित्र बनानेवाले हैं । जीव को पवित्र बनाकर (वसः) = उनके निवास को उत्तम बनानेवाले हैं । २. (मानुषेषु) = विचारशील पुरुषों में (वरेण्यः) = वरण के योग्य हैं । जब हम विचार नहीं करते तो गलती से प्रकृति का वरण कर बैठते हैं, विचारशील पुरुष प्रभु का ही वरण करते हैं । ३. (होता) = वे प्रभु इस मित्र जीव को उन्नति के साधन प्राप्त कराने के लिए इस सृष्टियज्ञ के होता बनते हैं । सम्पूर्ण सृष्टि जीव की उन्नति के साधनार्थ ही बनाई गई है । ये प्रभु (विक्षु अधायि) = सब प्रजाओं के हृदयदेश में स्थित हैं । हृदयस्थ होकर सब पदार्थों के 'यथायोग' के लिए प्रेरणा दे रहे हैं । इन पदार्थों का 'अयोग' तो हमें लाभ ही क्या दे सकता है, 'अतियोग' हानिकर हो जाता है, 'यथायोग' के लिए प्रभु प्रेरणा दे रहे हैं । ४. (दमूनाः) = [दम इति गृहनाम तन्मनः - निरु०] वे प्रभु इस शरीररूप घर में ही मनवाले हैं, इसे सुन्दर बनाने का ही सतत ध्यान कर रहे हैं । (गृहपतिः) = इस गृह के रक्षक हैं । वे (अग्निः) = अग्रणी प्रभु दमे (आभुवत्) = इस घर में सदा रहते हैं और (रयीणां रयिपतिः) = सर्वोत्कृष्ट धनों के स्वामी हैं । इन उत्कृष्ट धनों से इस शरीररूप गृह को धन्य व अलंकृत करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - वे महान् मित्र प्रभु हमारा हित चाहते हैं, सदा इस शरीरगृह में सावधान होकर इसका रक्षण व अलंकरण करते हैं ।
विषय
वायु के दृष्टान्त से विजिगीषु राजा का वर्णन । पक्षा न्तर में परमेश्वर की स्तुति ।
भावार्थ
( उशिक् ) प्रजाओं को हृदय से चाहने वाला, कान्तिमान्, तेजस्वी, (पावकः) अग्नि के समान समस्त मलों, कण्टकों और बाधक दुष्ट पुरुषों को दूर करने हारा, (मानुषेषु) मनुष्यों के बीच में सबको समान रूप से (वसुः) बसाने वाला, (वरेण्यः) सबको वरण करने योग्य, सर्वश्रेष्ठ है । वही ( रयीणाम् ) समस्त ऐश्वर्यों, अधिकारों के स्वामी और प्रदान करने हारे के रूप में (विक्षु) प्रजाओं के ऊपर (अधायि) स्थापित किया जाय और वही (दमूनाः) सबको दमन करने वाला, स्वयं भी जितेन्द्रिय और अपने मन पर काबू करने वाला, (गृहपतिः) गृहस्वामी के समान राष्ट्रवासी प्रजाओं को अपनी सन्तान के समान पालन करने वाला (अग्निः) दीपक या तेजस्वी सूर्य के समान सबका अग्रणी हो। वही (रयिपतिः) समस्त ऐश्वर्यों का पालक भी ( अ भुवत् ) बनाया जावे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-५ नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः- १ विराट् त्रिष्टुप् । ३,५ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक पंक्ति: ।
विषय
फिर वह मनुष्य कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
मनुष्यैः यः उशिक् पावकः वसुः वरेण्यः दमूना गृहपती रयिपतिः {आ} अग्निः इव मानुषेषु विक्षु दमे च रयीणां होता दाता भुवत् भवेत् स प्रजापालनक्षम अधायि ॥४॥
पदार्थ
(मनुष्यैः)= मनुष्यों के द्वारा, (यः)=जो, (उशिक्) सत्यं कामयमानः=सत्य की कामना करनेवाला, (पावकः) पवित्रः= पवित्र करनेवाला, (वसुः) वासयिता= निवास करनेवाला, (वरेण्यः) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हः=स्वीकार किये जाने योग्य, (दमूनाः) दाम्यति येन सः= वश में करनेवाला, (गृहपतिः) गृहस्य पालयिता=घर का रक्षक, (रयिपतिः) धनानां पालयिता=धनों का रक्षक, {आ} समन्तात्=हर ओर से, (अग्निः) भौतिकोऽग्निरिव=भौतिक अग्नि के, (इव)= समान, (मानुषेषु) युक्त्याहारविहारकर्त्तृषु=युक्त आहार विहार करनेवाली, (विक्षु) प्रजासु=प्रजाओं में, (दमे) गृहे=घर में, (च)=और, (रयीणाम्) राज्यादिधनानाम्=राज्य आदि के धनों और, (होता) सुखानां दाता=सुखों का दाता, (भुवत्) भवेत्= होवे, (सः)=वह, (प्रजापालनक्षम)= प्रजा के पालन के योग्य, (अधायि) धीयते=धारण किया जाता है ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा अविद्वान्, अधार्मिक को राज्य की रक्षा का कर्तव्य कभी नहीं देना चहिए ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(मनुष्यैः) मनुष्यों के द्वारा (यः) जो (उशिक्) सत्य की कामना करनेवाला, (पावकः) पवित्र करनेवाला, (वसुः) निवास करनेवाला, (वरेण्यः) स्वीकार किये जाने योग्य, (दमूनाः) वश में करनेवाला, (गृहपतिः) घर का रक्षक, (रयिपतिः) धनों का रक्षक, {आ} हर ओर से (अग्निः) भौतिक अग्नि के (इव) समान (मानुषेषु) युक्त आहार विहार करनेवाला, (विक्षु) प्रजाओं (च) और (दमे) घर में (रयीणाम्) राज्य आदि के धनों और (होता) सुखों का दाता (भुवत्) होवे। (सः) वह (प्रजापालनक्षम) प्रजा का रक्षण करने के योग्य है। [वह ही] (अधायि) धारण किया जाता है ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उशिक्) सत्यं कामयमानः (पावकः) पवित्रः (वसुः) वासयिता (मानुषेषु) युक्त्याहारविहारकर्त्तृषु (वरेण्यः) वरितुं स्वीकर्त्तुमर्हः (होता) सुखानां दाता (अधायि) धीयते (विक्षु) प्रजासु (दमूनाः) दाम्यति येन सः। अत्र दमेरुनसि० (उणा०४.२४०) इत्युनस् प्रत्ययो अन्येषामपि इति दीर्घः। (गृहपतिः) गृहस्य पालयिता (दमे) गृहे (आ) समन्तात् (अग्निः) भौतिकोऽग्निरिव (भुवत्) भवेत्। अयं लेट् प्रयोगः। (रयिपतिः) धनानां पालयिता (रयीणाम्) राज्यादिधनानाम् ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- मनुष्यैर्य उशिक् पावको वसुर्वरेण्यो दमूना गृहपती रयिपतिरग्निरिव मानुषेषु विक्षु दमे च रयीणां होता दाता भुवद्भवेत्, स प्रजापालनक्षम अधायि ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्नैव कदाचिदविद्वानधार्मिको राज्यरक्षायामधिकर्त्तव्यः ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अधार्मिक मूर्ख लोकांना राज्याच्या रक्षणाचा अधिकार कधीही देऊ नये. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The man of love and initiative worthy of love, pure and purifying as fire, generous among people, worthy of choice, commanding loyalty, dedicated to yajna and social good, such a person should be given a prominent position among people. Man of peace and self-control, keeper and protector of the home, creator and protector of wealth, such a person shines as fire on top and commands the nation.
Subject of the mantra
Then what kind of person he should be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(manuṣyaiḥ) =By humans, (yaḥ) =that, (uśik)=seeker of truth, (pāvakaḥ)=purifier, (vasuḥ)=resident, (vareṇyaḥ)=acceptable, (damūnāḥ)=subduer, (gṛhapatiḥ) =protector of house, (rayipatiḥ)= protector of wealth, {ā} =from all sides, (agniḥ) =of physical fore, (iva) =like, (mānuṣeṣu)= one who follows a healthy diet, (vikṣu) = in subjects, (ca) =and, (dame) =in house, (rayīṇām) =f wealth of the state etc. and, (hotā) =provider of happiness, (bhuvat) =be, (saḥ) =He, (prajāpālanakṣama)=is capable of protecting the people, [vaha hī]=that only (adhāyi) =is to be retained.
English Translation (K.K.V.)
One who desires the truth, purifies, resides, is acceptable, subdues, is protector of the house, is protector of wealth, eats food filled with physical fire everywhere, is responsible for the subjects and the kingdom at home etc. May He be the giver of wealth and happiness. Only he is capable of protecting the people. He only is retained.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Humans should never give the duty of protecting the state to an uneducated or unrighteous person.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Men should appoint among the subjects only such a person in charge of the administration of the State who is 'splendid like the fire, who desires truth, who is pure and purifying, the most desirable among discreet men, giver of happiness, self-controlled protector of the house and the State, the guardian of all kinds of wealth, the giver of dwellings or habitation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( उशिक्) सत्यं कामयमानः = Desiring truth वश-कान्तौ (दमे) गृहे = In the house. दमे इति गृहनाम ( निघ० ३.४) Tr.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should never appoint an unrighteous and un-educated person in charge of the administration.
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